क्या एम.एस.पी. को कानूनी गारंटी मिलेगी ?
- मधुकर पवार
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29 मार्च 2023, भोपाल । क्या एम.एस.पी. को कानूनी गारंटी मिलेगी ? – 28 मार्च को इंदौर की लक्ष्मीबाई अनाज मंडी में व्यापारियों द्वारा कम दाम में गेहूं की खरीदी करने पर किसानों ने विरोध दर्ज कराया। किसानों ने हंगामा करते हुये सड़क पर जाम भी लगा दिया। किसानों का आरोप था कि व्यापारी कम दाम पर गेहूं की खरीदी कर मुनाफा कमा रहे हैं। उधर दूसरी ओर व्यापारियों का कहना है कि गेहूं में नमी और कचरा है इसलिये कम कीमत पर खरीदी कर रहे हैं। इस संदर्भ में प्रशासन को मामला सुलझाने के लिये आगे आना चाहिये तथा सुनिश्चित करना होगा कि न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम दाम पर खरीदी न की जाये। रही बात गेहूं में नमी और कचरे की तो, किसान इसके लिये अधिक कीमत शायद ही मांग करेंगे। फिर भी प्रशासन निष्पक्ष रूप से जांच कर कोई बीच का रास्ता निकाले जिससे किसान और व्यापारी दोनो संतुष्ट हो जाये।
उधर दिल्ली के रामलीला मैदान में संयुक्त किसान मोर्चा के आह्वान पर किसान महा पंचायत हो रही है जिसमें देश के विभिन्न राज्यों से बड़ी संख्या में किसान भाग लेने की सम्भावना है। किसान उन सभी मांगों को लेकर धरना दे रहे हैं जिनको लेकर सन 2021 में कड़ाके की ठंड में भी उन्होंने दिल्ली की सीमा पर शांतिपूर्ण आंदोलन किया था। सरकार के साथ हुई बेनतीजा बातचीत के साथ ही सरकार ने अप्रत्याशित रूप से कृषि कानून को वापस लेने की घोषणा की थी। उस समय सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य व अन्य मांगों को लेकर एक समिति गठन करने की घोषणा भी की थी लेकिन अभी तक इस पर कोई सकारात्मक पहल नहीं हुई है। इसी के चलते किसान संगठनों ने फिर आंदोलन का रास्ता अख्तियार कर लिया है। किसान संगठनों की प्रमुख मांगे हैं (1) न्यूनतम समर्थन मूल्य – एम.एस.पी. की कानूनी गारंटी (2) खाद और फसल की लागत में कमी (3) कृषि के लिये मुफ्त बिजली (4) किसानों को कर्ज से मुक्ति और (5) ग्रामीण परिवारों को 300 युनिट तक हर माह मुफ्त बिजली।
उपर्युक्त मांगों में प्रमुख रूप से न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी गारंटी के तहत लाने का सवाल है… कुछ व्यवहारिक कठिनाईयां हो सकती हैं। मसलन खाद्यान्न की गुणवत्ता, खुले बाजार में कीमतें कम या अधिक होना और खाद्यान्न की राशि का तुरंत भुगतान। हालाकि यह भी सत्य है कि एम.एस.पी. का लाभ उठाने वाले किसानों की संख्या काफी कम है। एक राष्ट्रीय सर्वेक्षण की रिपोर्ट के मुताबिक करीब 10 प्रतिशत से भी कम किसान अपनी उपज सरकार द्वारा निर्धारित एमएसपी पर बेचते हैं।
इसका एक प्रमुख कारण यह भी है कि देश में लघु और सीमांत किसानों की संख्या करीब 85 प्रतिशत है। जब लघु और सीमांत किसानों के खेतों में फसल पकती है, तब उन्हें रूपयों की तुरंत जरूरत होती है ताकि देनदारी और अगली फसल की तैयारी कर सके। ऐसी स्थिति में उनके सामने खुले बाजार या मंडी में खाद्यान्न बेचने के अलावा और कोई चारा नहीं रहता। बहुत ही कम मौकों पर उन्हें एम.एस.पी. से अधिक दाम मिल पाते हैं अन्यथा कम दाम पर ही संतुष्ट होना पड़ता है। मध्यप्रदेश सरकार नेकुछ साल पहले इस कमी को पूरा करने के लिये ही भावांतर योजना शुरू की थी। इस योजना से उन किसानों को लाभ होता था जिन्हें एम.एस.पी. के तहत चिन्हित फसल के दाम एम.एस.पी. से कम मूल्य पर बेचना पड़ता था।
पिछले वर्ष रूस – उक्रेन युद्ध के बाद गेहूं उत्पादक किसानों को लाभ मिलना शुरू हुआ ही था कि देश में बढ़्ती कीमतों पर अंकुश लगाने के मद्देनजर निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इससे देश में कीमतें तो स्थिर हो गई लेकिन किसानों को फायदा नहीं हुआ। कोरोना के कारण उत्पन्न स्थितियों पर नियंत्रण के लिये सरकार ने 80 करोड़ लोगों को मुफ्त में अनाज देने की योजना भी शुरू की। इस वजह से भी सरकार को गेहूं के दाम पर नियंत्रण के लिये निर्यात पर प्रतिबंध लगाना पड़ा। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि सरकार जानबूझकर गेहूं और अन्य खाद्यान्न जो एम.एस.पी. के तहत आते हैं और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत वितरित किये जा रहे हैं, उनकी कीमतें एम.एस.पी. के आसपास ही रखना चाहेगी ताकि बफर स्टाक के लिये पर्याप्त मात्रा में एम.एस.पी. की दर पर खाद्यान्न की खरीदी की जा सके। यदि मूल्य अधिक हुये तो किसान अपनी उपज खुले बाजार में बेचेंगे जिससे सरकारी गोदामों में अपेक्षित मात्रा में खाद्यान्न उपलब्ध नहीं हो सकेगा। इससे सरकार को अपने किये वादे को पूरा करने में दिक्कतें आ सकती हैं।
लेकिन एक बड़ा सवाल यह भी है कि एम.एस.पी. पूरे देश में एक समान होती है जबकि अलग – अलग राज्यों में लागत और उत्पादन में काफी अंतर होता रहता है जिससे किसानों को एम.एस.पी. की दरों पर भी खाद्यान्न बेचना पड़े तब भी उन्हें नुकसान ही होता है। कुछ राज्यों में किसानों को अपनी उपज को एम.एस.पी. में भी बेचने पर नुकसान नहीं होता तो कहीं नुकसान उठाना पड़ता है। इसलिये उत्पादन लागत में भिन्नता के कारण सभी राज्यों के लिये एम.एस.पी. अलग – अलग होनी चाहिये। केंद्र सरकार द्वारा घोषित मूल्य के अलावा राज्य भी प्रति क्विंटल सहायता राशि घोषित करें तो किसानों को काफी राहत मिल सकती है।
चुनावी साल का फायदा मिलने की उम्मीद
इस वर्ष मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, कर्णाटक सहित नौ राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं। इसके बाद अगले वर्ष अप्रैल – मई 2024 में लोक सभा के चुनाव होंगे। राजनीतिक विश्लेषक आगामी विधानसभा के चुनाव को लोकसभा के चुनाव का सेमीफायनल मान रहे हैं। इन चुनावों में सभी राजनीतिक दलों द्वारा किसानों को लुभाने के लिये कर्ज माफी, सम्मान निधि में वृद्धि, मुफ्त बिजली जैसे वादे किये जाने की पूरी- पूरी उम्मीद है। हालाकि इस तरह की घोषणायें तो पूर्व में हुये चुनावों में भी की जाती रही हैं लेकिन उन पूरी ईमानदारी अमल नहीं हुआ है। चुनाव के दौरान की गई घोषणाओं का ईमानदारी से कार्यांवयन नहीं होने से भी किसानों को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। यदि सरकार किसी तरह वादा पूरा करती भी है तो इसका सीधा असर महंगाई पर पड़ता है और खाद, बीज, दवाई महंगी भी हो जाती है। जिससे लागत बढ़ जाती है। कुल मिलाकर किसानों के लिये कोई ऐसी नीति बनाने की आवश्यकता है जिससे वे विषम परिस्थिति और प्राकृतिक आपदा के समय भी बिना किसी परेशानी के अपना कृषि कार्य करते रहें। कृषि को लाभदायक बनाने के लिये स्वामीनाथन रिपोर्ट को लागू करना भी किसानों की लम्बे समय से चली आ रही समस्या का निदान हो सकता है।
स्वामीनाथन रिपोर्ट लागू करें
खाद्यान्न की आपूर्ति सुनिश्चित करने और किसानों की आर्थिक हालत को बेहतर बनाने के उद्देश्य से सन 2004 में केंद्र सरकार ने डा. एम.एस. स्वामीनाथन की अध्यक्षता में राष्ट्रीय किसान आयोग का गठन किया था। स्वामीनाथन आयोग ने इस सम्बंध में सरकार को 2006 में रिपोर्टें सौंपी, लेकिन रिपोर्ट की सिफारिशें अभी तक लागू नहीं किया जा सकी हैं। इस रिपोर्ट में आयोग ने भूमि सुधार, सिंचाई, कृषि उत्पादकता, क्रेडिट एवं बीमा, खाद्य सुरक्षा, किसानों की आत्महत्या से सुरक्षा, रोजगार जैसे मुद्दों पर सुझाव दिये हैं। आयोग की सिफारिश के तहत न्यूनतम समर्थन मूल्य की औसत लागत से 50 फीसदी ज्यादा रखने की बात की गई है ताकि छोटे किसानों को फसल का उचित मूल्य मिल सके। किसानों की फसल के न्यूनतम सर्मथन मूल्य कुछ ही फसलों तक सीमित न रहें। गुणवत्ता वाले बीज किसानों को कम दामों पर मिलें। आयोग द्वारा की गई सिफारिशों को पूरी तरह लागू कर किसानों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति में गुणात्मक सुधार होने की सम्भावना है।
देश में पिछले कुछ सालों से किसानों की आत्महत्या की संख्या में काफी वृद्धि हुई है। इस स्थिति से निपटने के लिये आयोग ने किसानों को कम कीमत पर बीमा एवं स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध कराने की आवश्यकता जतायी है। इसके साथ ही राज्य स्तर पर किसान आयोगों का गठन किया जाना चाहिये, ताकि किसानों की किसी भी प्रकार की समस्या का शीघ्र निपटान किया जा सके। हर साल फरवरी – मार्च में जब गेहूं की फसल पकने की कगार पर आती है, मौसम के बदलाव और ओलावृष्टि के कारण बड़ी मात्रा में फसलों को नुकसान भी होता होता है। हालाकि सरकार सर्वेक्षण करवाकर मुआवजा की व्यवस्था करती है,. बावजूद इसके किसानों की हालत में कोई खास परिवर्तन नहीं हो रहा है। इस दिशा में प्रभावी कदम उठाने की आवश्यकता है।
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