जीएम सोयाबीन: स्थिति और जैव सुरक्षा पहलू ‘ पर वेबिनार आयोजित
1 दिसम्बर 2021, इंदौर । जीएम सोयाबीन: स्थिति और जैव सुरक्षा पहलू ‘ पर वेबिनार आयोजित –‘जीएम सोयाबीन: स्थिति और जैव सुरक्षा पहलू ‘ पर वेबिनार का आयोजन भा.कृ.अ.नु.प.-भारतीय सोयाबीन अनुसंधान संस्थान, इंदौर और बायोटेक कंसोर्टियम इंडिया लिमिटेड,(बीसीआईएल ) नई दिल्ली द्वारा संयुक्त रूप से गत दिनों आयोजित किया गया। जिसकी अध्यक्षता डॉ. नीता खांडेकर, निदेशक, भा.कृ.अनु.प.-भा.सो.अनु.सं., इंदौर ने की। वेबिनार में सोयाबीन अनुसंधान,जी.एम. फसलों, जैव सुरक्षा मुद्दों और पशु चारा आवश्यकताओं में वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों की प्रस्तुतियां और टिप्पणियां शामिल थीं। वेबिनार में विभिन्न हितधारकों ने भाग लिया, जिनमें वरिष्ठ वैज्ञानिक, नियामक समितियों के सदस्य, उद्योग, शोधकर्ता आदि शामिल थे।
निदेशक डॉ नीता खांडेकर, ने अपने उद्घाटन भाषण में मार्कर-असिस्टेड ब्रीडिंग,अन्य तकनीकों और सोयाबीन जीनोम के अनुक्रमण का उपयोग करते हुए भा.सो.अनु.सं., इंदौर में चल रहे अनुसंधान प्रयासों के बारे में बताते हुए सोयाबीन की फसल में सुधार और उत्पादकता बढ़ाने के लिए जेनेटिक इंजीनियरिंग और जीन एडिटिंग सहित उन्नत तकनीकों का उपयोग करने पर जोर दिया ,जबकि सत्र के अंत में डॉ खांडेकर ने किसानों और सोयाबीन प्रसंस्करण उद्योगों की मांगों की पूर्ति के लिए सूखा सहिष्णु, कीट और रोग प्रतिरोध और बेहतर बीज संरचना लक्षण आदि कई गुणों से सुसज्जित एकल जी.एम. फसल विकास के लिए अनुसंधान की आवश्यकता पर जोर दिया।
डॉ सुजीत के दत्ता, संयुक्त आयुक्त, पशुपालन और डेयरी विभाग ने पशुधन क्षेत्र की पोषण संबंधी आवश्यकताओं और आने वाली चुनौतियों के बारे में चर्चा कर कहा कि जी.डी.पी. में पशुधन क्षेत्र का योगदान 4-5% है। हाल के वर्षों में पशु प्रोटीन की मांग में काफी वृद्धि हुई है जो अभी भी डब्ल्यू.एच.ओ. के मानक प्रति व्यक्ति खपत से कम है। पशुधन पालन के लिए संतुलित मिश्रित पशु आहार की आवश्यकता होती है और घरेलू खपत में वृद्धि के साथ-साथ निर्यात विशेष रूप से एक्वा सेक्टर को देखते हुए इसकी मांग लगातार बढ़ रही है। उच्च घरेलू सोयाबीन की कीमतों के कारण भारत में चिकन की उत्पादन लागत बहुत अधिक है, इसलिए बढ़ती कीमतों का मुकाबला करने के लिए भारत में सोयाबीन का उत्पादन बढ़ाया जाना चाहिए। जी.एम. सोयाबीन का उपयोग दुनिया भर में किया जा रहा है और उन्हीं तकनीकों का उपयोग भारत में भी लागत प्रभावी तरीके से सोयाबीन की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए किया जा सकता है, ताकि पशुधन क्षेत्र का विकास हो सके।
डॉ. अमरीश कुमार त्यागी, सहायक महानिदेशक (पशु पोषण और शरीर क्रिया विज्ञान), भा.कृ.अनु.प. ने पशु आहार में पोषण की कमी, विशेष रूप से डेयरी क्षेत्र में और इसका बाद में दूध उत्पादन पर प्रभाव पर चर्चा की। उन्होंने जोर देकर कहा कि पशु क्षेत्र की उत्पादकता में वृद्धि किसान की आय को दोगुना करने में योगदान कर सकती है। दूध का विटामिन के साथ बायोफोर्टिफिकेशन आहार में बदलाव के माध्यम से किया जा सकता है। जैव प्रौद्योगिकीय हस्तक्षेपों के उपयोग के माध्यम से फसलों में अमीनो एसिड और फैटी एसिड की मात्रा को बढ़ाया जा सकता है जो फसलों की समग्र उत्पादकता को प्रभावित करता है। इसके लिए सोयाबीन का आनुवंशिक संशोधन एक उचित समाधान हो
सकता है। उन्होंने जी.एम. फसल उत्पादों को भोजन और चारे के रूप में अपनाने से पहले उनके उचित आहार अध्ययन पर जोर दिया।
डॉ. बी. दिनेश कुमार, पूर्व निदेशक आई.सी.एम.आर.-राष्ट्रीय पोषण संस्थान (एन.आई.एन.) ने जी.एम.फसलों की सुरक्षा मूल्यांकन पद्धतियों पर चर्चा कर बताया कि जी.एम. फसलों के सुरक्षा मूल्यांकन के लिए फसलों के संरचना विश्लेषण, विषाक्तता और एलर्जी संबंधी अध्ययन किए जाते हैं। उन्होंने भारत में विकसित जी.एम. फसलों जैसे बैंगन, सरसों, भिंडी, कपास आदि के लिए एन.आई.एन. द्वारा किए गए विभिन्न अध्ययनों के उदाहरण साझा किए।
बी.सी.आई.एल. की मुख्य महाप्रबंधक डॉ विभा आहूजा ने बताया कि वेबिनार का उद्देश्य सोयाबीन अनुसंधान, उत्पादन, प्रसंस्करण, खाद्य और पशुचारा उद्देश्य के लिए सोयाबीन उत्पादों के उपयोग में लगे वैज्ञानिकों और अन्य हितधारकों के बीच जागरूकता पैदा करना है। डॉ आहूजा ने जी.एम. फसलों की वैश्विक स्थिति पर चर्चा करते हुए बताया कि जी.एम. फसलों के उत्पादों का व्यापार 70 से अधिक देशों में किया जा रहा है। उन्होंने भारत में बी.टी. कपास की सफलता का जिक्र कर कहा कि 90% से अधिक क्षेत्र में इसे अपनाया गया है जिसके परिणामस्वरूप इसके उत्पादन में तीन गुना वृद्धि हुई है। उन्होंने कहा कि जी.एम. फसलों के संबंध में विभिन्न हितधारकों द्वारा जैव सुरक्षा चिंताओं को व्यापक रूप से वैज्ञानिक और गैर-वैज्ञानिक के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। जबकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत कार्यप्रणाली और अच्छी तरह से संरचित नियामक ढांचा ,देश में वैज्ञानिक चिंताओं को दूर करने के लिए उपलब्ध है, जबकि गैर-वैज्ञानिक चिंताएं आशंकाओं पर आधारित हैं। जिसके परिणामस्वरूप देश में ध्रुवीकृत बहस चल रही है, जिससे निर्णय लेने में देरी हो रही है और जी.एम. फसलों के अनुसंधान और प्रक्षेत्र परीक्षणों में बाधा उत्पन्न हो रही है। उन्होंने विभिन्न कृषि फसलों की बढ़ती मांग से निपटने के लिए नई प्रौद्योगिकियों के अनुप्रयोगों और जी.एम. फसलों को तत्काल अपनाने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया । इंदौर संस्थान के प्रधान वैज्ञानिक डॉ. मिलिंद बी. रत्नापारखे ने आरम्भ में वक्ताओं का स्वागत कर कार्यक्रम का संचालन और अंत में धन्यवाद ज्ञापित किया।