भारत में बढ़ती गर्मी, बढ़ते खाद्य संकट का खतरा
शशिकांत त्रिवेदी, वरिष्ठ पत्रकार- मो. 98933 55391
04 जून 2024, भोपाल: भारत में बढ़ती गर्मी, बढ़ते खाद्य संकट का खतरा – अमेरिका की जलवायु विज्ञान का विश्लेषण और सम्बन्धित समाचारों की रिपोर्टिंग करने वाली संस्था क्लाइमेट सेंट्रल द्वारा हाल ही में किए गए विश्लेषण से पता चलता है कि नवंबर 2022 से अक्टूबर 2023 तक वैश्विक तापमान अभूतपूर्व स्तर पर पहुंच गया। इस 12 महीने की अवधि के दौरान, वैश्विक तापमान पूर्व-औद्योगिक स्तरों से 1.3 डिग्री सेल्सियस अधिक हो गया, जिससे यह अब तक का सबसे गर्म साल भर का एक दौर सा बन गया। लगभग 170 देशों में औसत तापमान 30 साल के सभी मानदंडों को पार कर गया, जिससे लगभग सारी दुनिया प्रभावित हुई है। लगभग 570 करोड़ लोगों ने 30 या उससे अधिक दिनों तक असामान्य रूप से गर्म तापमान का सामना किया। संस्था का मानना है कि जलवायु परिवर्तन के कारण ऐसी घटनाएँ कम से कम तीन गुना अधिक होने की संभावना है।
भारी आर्थिक नुक्सान
हाल के दशकों में बदलती जलवायु और मौसम के मिजाज ने नई आपदायें पैदा की जिससे 410,000 से अधिक लोगों को अपनी जान गँवानी पडी और पूरी दुनिया में 170 करोड़ लोगों को मौसम सम्बन्धी किसी न किसी मुश्किल का सामना करना पड़ा है। मौसम संबंधी संकट लाने वाली घटनाओं के कारण होने वाले आर्थिक नुकसान 1970 के दशक में 175 करोड़ डॉलर (145398 करोड़ रूपये) से बढ़कर 2010 के दशक में 138000 करोड़ डॉलर (11464350 करोड़ रूपये) हो गए हैं।
इसमें कोई शक नहीं है कि बदलते-बिगड़े मौसम से खेती किसानी और किसानों के जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है फिर भी हमारे देश में इस तरह का आँकलन करने वाली गैर-लाभ कमाने वाली संस्थाएं गिनी चुनी हैं. फसल पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का आकलन करने के लिए पूरे देश में कुछ अध्ययन किए गए हैं। अनुमानों से पता चलता है कि जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा आधारित चावल, सिंचित चावल, गेहूं और खरीफ मक्का की पैदावार में कमी आएगी।
फसल पैदावार में कमी
जलवायु परिवर्तन प्रभाव आकलन सन 2050 से लेकर सन 2080 की अनुमानित जलवायु को शामिल करके फसल सिमुलेशन मॉडल का उपयोग करके किया गया। यदि भारत के किसानों को फसलों की ऐसी किस्म या खेती के उपाय न मिले तो भारत में वर्षा आधारित चावल की पैदावार 2050 में 20% और 2080 में 47% कम होने का अनुमान है, जबकि सिंचित चावल की पैदावार 2050 में 3.5% और 2080 में 5% कम होने का अनुमान है।
इसी तरह जलवायु परिवर्तन से गेहूं की पैदावार में 2050 में 19.3% और 2080 में 40% की कमी आने का अनुमान है जबकि मक्का की पैदावार में इस समय तक क्रमशः 18 और 23% की कमी आने का अनुमान है। जलवायु परिवर्तन से फसल की पैदावार कम होती है और उपज की पोषण गुणवत्ता कम होती है। सूखे जैसी चरम घटनाएँ भोजन और पोषक तत्वों की खपत को प्रभावित करती हैं, और इसका किसानों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है।
कृषि मंत्रालय की योजनायें
भारत सरकार ने खेती में जलवायु के बदलाव से होने वाले असर को कम करने के लिए योजनाएँ तैयार की हैं। राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन (एनएमएसए) जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (एनएपीसीसी) के अंतर्गत आने वाले मिशनों में से एक है। इस मिशन का उद्देश्य भारतीय खेती को बदलती जलवायु के लिए तैयार करना है l इसी के साथ घरेलू फसल उत्पादन को बनाए रखने की चुनौतियों का सामना करने के लिए, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर), कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार ने 2011 में एक प्रमुख नेटवर्क अनुसंधान परियोजना एनआईसीआरए ( NICRA)शुरू की। इसमें फसल की किस्मों, पशुधन, मछली पालन और मुर्गी पालन पर ध्यान केंद्रित करते हुए को बढ़ावा देने पर ज़ोर दिया गया है. वर्ष 2014 से जलवायु-में बदलाव के लिए तैयार 1888 तरह की किस्में और 68 तरह की स्थान विशेष के लिए अनुकूल तकनीक विकसित की गई हैं। लेकिन मौजूदा नीतियाँ तरह तरह की किस्मों और फसलों के लिए काफी नहीं हैं. जबकि अलग अलग फसल उगाने से किसान जलवायु में बदलाव के विपरीत प्रभावों से काफी हद तक बचे रह सकते हैं, साथ ही खाद्य सुरक्षा, मिट्टी की उर्वरता, कीट नियंत्रण और उपज की स्थिरता भी सुनिश्चित होती है।
सिंचाई को मजबूत करने की ज़रूरत
सरकारों को सिंचाई के बुनियादी ढांचे को और मजबूत करने की ज़रूरत है, खासकर उत्तर-पश्चिमी भारत में बहुत बदलाव चाहिए। उच्च मूल्य वाली बागवानी फसलों से परे ड्रिप सिंचाई का विस्तार करना आवश्यक है। पानी के संरक्षण के लिए यदि किसान भूजल का उपयोग करते हैं तो उन्हें किसी न किसी हद तक बिजली सब्सिडी दी जानी चाहिए।
जैविक खेती को बढ़ावा
ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करना एक और प्राथमिकता है। सिंथेटिक नाइट्रोजन उर्वरक सबसे खतरनाक गैस नाइट्रस ऑक्साइड का उत्सर्जन करने में बहुत योगदान करते हैं। जैविक खेती में नाइट्रोजन का उपयोग न होने से ग्रीनहाउस गैसों को कम किया जा सकता है इसलिए जैविक खेती को बढ़ावा देना चाहिए।
कृषि विज्ञान केंद्र के बुनियादी ढांचे में सुधार और चौबीसों घंटे किसानों को जलवायु संबंधी चुनौतियों की सुचना और उनके समाधान के केंद्र के रुप में तैयार किया जाना एक विकल्प हो सकता है, केवल विश्व पर्यावरण दिवस पर कुछ पौधे लगाने और पानी बचाने जैसी कसमें खाने से कुछ ख़ास नहीं होने वाला है क्योंकि संकट गंभीर है और गहराता जा रहा है.