ग्रामीणो के झोलाछाप डाक्टर देवदूत नही यमदूत है
आलेख: विनोद के. शाह, लेखक स्वतंत्र पत्रकार एंव ग्राहक पंचायत से जुडे है, अंबिका, हास्पीटल रोड, विदिशा 464001, मोवा 9425640778, Shahvinod69@gmail.com
08 नवंबर 2024, नई दिल्ली: ग्रामीणो के झोलाछाप डाक्टर देवदूत नही यमदूत है – यह देश का र्दुभाग्य है कि ग्रामीण अंचलो की सत्तर फीसदी आबादी प्राथमिक चिकित्सा के लिए गॉव में मौजूद झोलाछाप डाक्टरो पर निर्भर है। जो सिर्फ ग्रामीणो का आर्थिक शोषण ही नही,उनमें लाइलाज रोग को रोपण भी कर रहे है। उत्तरभारत के राज्यो में जहॉ बगैर चिकित्सक पर्चे के दवाए उपलब्ध है तो झोलाछाप चिकित्ससक ग्रामीण आबादी के इलाज में रोगी के मात्र बाह्य लक्षण देखकर मनमाफिक एंटीबायोटीक दवाओ से ही करते है। जो कि मरीज को तनिक आराम देकर मर्ज को लाइलाज बनाती हैै। इन राज्यो में एंटीबायोटीक दवाओ के अंधाधुध प्रयोग से बचने के लिए आम जनमानस में तनिक भी जागरुकता नही आ पाई हे।
वीसवी सदी में सर एलेक्जेंडर फ्लेमिंग की पहली एंटीबायोटिक के रुप में पेनिसिलिन की खोज दुनियॉ के लिए वरदान लेकर आई थी। इस खोज ने मौत के मुंह में जा रहे लाखो संक्रमित मरीजो को जीवनदान दिया था। इसके बाद पूरी दुनियॉ में एंटीबायोटिक का चलन ऐसा चला कि चिकित्सक सहित आम जनमानस प्रत्येक मर्ज का इलाज एंटीबायोटिक दवाओं में खोजने लग गया है। लेकिन अधिक उपयोगिता से अब परिणाम विपरीत है। बेवजह एंटीबायोटिक के सेवन ने शरीर में मौजूद बैक्टेरिया को प्रतिरोधी जीवाणु(बैक्टीरिया) का रुप देकर इतना अधिक शक्तिशाली बना दिया है कि इन बैक्टीरियॉ पर संक्रमण रोकने की सारी दवाऐ बेअसर साबित होने लगी है। विश्वभर दस लाख संक्रमित मरीजो की मौते सिर्फ इसलिए हो रही है कि उपलब्ध एंटीबायेटिक इन मरीजो पर बेअसर है। विश्व स्वास्थ्य संगठन कर रिर्पोट कहती है संक्रमण एंटीबायोटिक दवाओ के बेअसर होने के कारण सन् 2050 तक विश्व में मौतो की दर एक करोड प्रतिवर्ष तक पहुच जायेगी। इस परिपेक्ष्य में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने विश्व के देशो को चेतावनी जारी की है कि बगैर स्वास्थ्य परिक्षण के मरीज को एंटीबायेटिक दवा देने पर पूर्णता रोक लगाई जाना चहिए। सन् 2030 तक सिर्फ आपातकालीन स्थिति में छोड,बगैर स्वास्थ्य परिक्षण के पूर्व एंटीवायोटिक दवाओ पर विश्व के सभी देशो को रोक लगानी होगी। अन्यथा हालात बेकाबू होकर महामारी के रुप में उभर सकते है। इंडियन काउंसिल आफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) की रिर्पोट चिंता बढाने वाली है। मौजूदा हालात में चालीस फीसदी मरीजो पर एंटीबायोटिक दवाओ ने असर दिखाना बंद कर दिया है। निमोनिया,टाइफाइड एंव पेशाब संक्रमण में अधिकांश एंटीबायेटिक दवाऐ अब निष्क्रिय साबित हो रही है। देश में बगैर डाक्टरी पर्चे के आसानी से एंटीबायोटिक दवाओ की उपलब्धता, बची हुई दवा का मरीज द्धारा भविष्य में स्वयं या परिवार के लिए उपयोग में लाना या एंटीबायेटिक को उचित रुप से नष्ट करने के बजाए कचरे के ढेर में फेकना, जहॉ जानवरो के माध्यम से या सीधे ग्रहण कर जीवाणु (बैक्टेरिया) अधिक प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर रहे है। स्वयं की जीनोमिक संरचना में परिवर्तन कर बैक्टीरिया मौजूदा दवाओ के प्रति अपनी प्रतिरोधक क्षमता लगातार विकसित कर रहे है। यह कार्य इतने गोपनीय ढंग से हो रहा कि इंसानी गलतियॉ स्वयं मानवजाति के लिए आत्मघाती साबित हो रही है। देश में झोलाछाप डाक्टरो की भरमार, मात्र रोग के सामान्य लक्षण देखकर गैर पेशेवर द्धारा इंसानी बीमारी का इलाज, लोभी चिकित्सक द्धारा दवाओ का खर्च बडाने के लिया अनावश्यक एंटीबायोटिक दवाओ को मरीज के पर्चे में जोडा जाना, मर्ज को लाइलाज बनाकर,भविष्य में मरीज को मौत के मॅुह में धकलने से कम नही है। बैक्टीरिया,वायरस एंव अन्य रोगाणु का धरती पर इतिहास प्रारंभ रहा है। मानव जीवन की उत्पत्ति इसके बहुत बाद की है। प्रथ्वी के हर कालखंड में सभी प्रतिकूल परिस्थियों में बैक्टीरिया जीवित रहे है। क्योकि इनके अंदर प्रतिरोधी क्षमता विकसित कर प्रकृति परिवर्तन में जीवित रहने की दक्षता है। मानव शरीर में लाखो की संख्या में सुसप्त अवस्था में बैक्टीरिया मौजूद है, जिसमें कुछ अच्छे तो कुछ बुरे है। मानव शरीर की बीमार अबस्था में बुरे बैक्टीरिया मानव शरीर को नुकशान पहॅुचाने सक्रिय होते है। बैक्टीरिया एकल कोशिका के रुप में शरीर के अंदर—बाहर स्वतंत्र रुप से जीवित रह सकता है। इसके विपरीत वायरस परजीवी है, जो स्वतंत्र रुप में जीवित नही रह सकता है। बीमारी की स्थिति में दोनो लक्षण एक जैसे ही है। इसलिए मात्र बाह्य परिक्षण के यह कह पाना असंभव है कि संक्रमण का कारण क्या है। संक्रमण में बगैर खून एंव अन्य कत्चर परिक्षण के बिना एंटीबायोटीक का प्रयोग मरीज के शरीर के साथ खिलबाड है। शल्य चिकित्सा, कैंसर,किडनी,अंग प्रत्यारोपण में बैक्टीरियॉ नियंत्रण के लिए एंटीबायोटिक दवाओ से इलाज में अतिआवश्यकता हुआ करती है। लेकिन शरीर में मौजूद बैक्टीरियॉ पूर्व में प्रतिरोधक क्षमता हासिल कर शक्तिशाली हो चुके हो तो इन परिस्थियों में मोजूदा एंटीबायोटिक से संक्रमण पर काबू कर पाना अति मुश्किल होता है। जबकि संक्रमण की रफ्तार कई गुना अधिक हुआ करती है। इन परिस्थियों में इलाज लम्बा,खर्चीला एंव लाइलाज वन सकता है। लैंसेट पत्रिका के अध्ध्यन में देश में संक्रमण से मौतो की संख्या सन् 2019 में 29.9 लाख थी। जिसमें 60 फीसदी संख्या बैक्टीरियॉ संक्रमण एंव 44.6 फीसदी मौते एटीबायोटिक दवाओ का मरीज पर बेअसर रहने के कारण हुई थी। जो कि जलवायु परिवर्तन से प्रतिवर्ष तेजी से बढ रही है। दुनिया में रोगाणुरोधी प्रतिरोध( एएमआर) के कारण सत्तर बर्ष से अधिक आयु के बुर्जगो की मृत्यु दर बिगत तीन दशक में 80 फीसदी बडी है। जबकि मौजूदा परिस्थियॉ बर्ष 2050 तक इसके 146 फीसदी तक पहॅुचने की भविष्यवाणी कर रही है। देश के अस्पतालो में नवजात शिशुओ को चिकित्सको द्धारा धडल्ले से एंटीबायेटीक देने का चलन है। इसके पीछे की बजह यह है कि एंटीबायोटिक दवा नवजात को देने से पूर्व उसके खून की कल्चर जॉच आवश्यक है। लेकिन देश के अंधिकांश शासकीय एंव निजी बसपतालो में माइक्रोबायोलॉजिस्ट के पद ही खाली है। ब्लड कत्चर रिर्पोट की जॉच बिना यह कह पाना मुश्किल है कि संक्रमित नवजात पर कौनसी एंटीबायोटीक कारगर है। जॉच रिर्पोट के अभाव में चिकित्सक नवजात शरीर को प्रयोगशाला की तरह एंटीबायोटिक का प्रयोग तब तक करते है जब तक शिशु बेहतर महसूस नही करता है। देश में नवजातो की मौतो की संख्या प्रति हजार पर 26.619 है।
नवजात सहित बच्चो में बगैर बीमारी परिक्षण के अंधाधुन्ध तरीके से एंटीबायोटीक देने का प्रयोग देश में हो रहा है, उससे बच्चो के शरीर में मोजूद बैक्टीरियॉ प्रतिरोधक क्षमता हासिल कर इतने शक्तिशाली हो सकते है कि आगामी पॉच दस बाद इस मानव शरीर पर मौजूदा एंटीबायोटीक बेअसर साबित हो सकती है। यह भविष्य में घटित होने वाली बडी खतरे की आहट है। देश की सरकार एंव जिम्मेदार स्वास्थ्य विभाग को सर्तकता भरी कार्यवाही करना है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एएमआर को शीर्ष दस वैश्विक खतरो में रेखांकित किया है। वर्ष 2017 में भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय ने एंटी बायोटिक के इस्तेमाल को लेकर एक गाइड लाइन जारी की थी, जिसमें बगैर चिकित्सक पर्चे के एंटीबायोटिक के विक्रय पर सख्ती के साथ रोक, नवजात सहित बच्चो के रक्त परिक्षण रिर्पोट के बगैर चिकित्सको द्धारा स्वत: ज्ञान के आधर पर एंटीबायोटिक के इस्तेमाल पर रोक एंव आम जनता को भी एंटीबायोटीक के प्रयोग में अधिक जागरुकता के लिए उन्हे शिक्षित करने के अधिकाधिक कार्यक्रम चलाने कर जिम्मेदारी राज्य सरकारो को दी थी, लेकिन सरकार के इस आदेश पर केरल के अतिरिक्त दक्षिण के कुछ राज्यो ने गंभीरता दिखाई दी हैै। जबकि उत्तर भारत के राज्यो में जहॉ बगैर चिकित्सक पर्चे के दवाए उपलब्ध है तो झोलाछाप चिकित्ससक ग्रामीण आबादी के इलाज में रोगी के मात्र बाह्य लक्षण देखकर मनमाफिक एंटीबायोटीक दवाओ से ही करते है। जो कि मरीज को तनिक आराम देकर मर्ज को लाइलाज बनाती हैै। इन राज्यो में एंटीबायोटीक दवाओ के अंधाधुध प्रयोग से बचने के लिए आम जनमानस में तनिक भी जागरुकता नही आ पाई हे। वैसे भी एंटीबायोटीक दवाओ की पहचान करना एक आम आदमी के लिए इसलिए मुश्किल क्योकि इसे सूत्र एंव रासायनिक समूह को पहचान कर ही जाना जा सकता है। इसलिए होना यह चहिए कि केन्द्र सरकार का स्वस्थ्य विभाग बाजार में विक्रय होने वाली दवाओ पर एंटी बैक्टीरिया एंव एंटी बायरल दवाओ पर उनकी पहचान जारी करे जो रंग के अंतर या पहचान चिन्हित कर भी उपभेक्ताओ को ज्ञान कराया जा सकता है कि एंटीबायोटीक दवाओ के इस्तेमाल में उन्हे अतिरिक्त सुरक्षा बरतनी है। चिकित्सक द्धारा लिखी एंटीबायोटीक का पूरी अबधि का प्रयोग होना चहिए। कम या अतिरिक्त मात्रा मनमर्जी से मरीज को नही करना चहिए। बगैर चिकित्सक सलाह के एंटीबायोटरक दवाओ का प्रयोग मरीज को नही करना चहिए। बची हुई दवा को मात्रा को यहॉ—वहॉ कही भी नही फेकना है। यह जागरुकता उन स्कूली एंव महाविधालीयन छात्रो को दिया जाना जरुरी ताकि वह बच्चे अपने—अपने परिवारो में जागरुकता का संचार कर सके।
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