कुंभ मेला धरती पर मेगा इवेंट
लेखक: डॉ. रबीन्द्र पस्तोर, सीईओ, ईफसल, मो.: 9425166766
25 जनवरी 2025, नई दिल्ली: कुंभ मेला धरती पर मेगा इवेंट – मैं उन सौभाग्यशाली लोगों में से एक हूं, जिन्हें 2016 में उज्जैन में कुंभ मेला आयोजित करने की समिति का सदस्य रहने का अवसर मिला। इसलिए, मैं युवा पीढ़ी के साथ अपना अनुभव साझा करना चाहता हूं कि भारत में सनातन सांस्कृतिक परंपरा कब, क्यों और कैसे शुरू हुई। यह धरती पर होने वाले आयोजनों से किस तरह अलग है और भारतीय प्रशासन इस आयोजन का प्रबंधन किस तरह करता है? आज के आधुनिक समाज में इस आयोजन के धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक पहलू क्या हैं और इस तरह के आयोजन हमारे युवाओं को किस तरह से करियर के अवसर प्रदान करते हैं? तो आइए मेरे साथ इस यात्रा पर। सनातन संस्कृति क्या है? जब भारत में सभ्यता की शुरुआत हुई और जब मानव समाज ने भाषा के विकास के साथ-साथ जीवन के संबंध में उठने वाले मौलिक प्रश्नों का समाधान खोजना शुरू किया, तब सनातन संस्कृति का जन्म हुआ। यहां हमें संस्कृति और धर्म के बीच के अंतर को समझना होगा। आज हमारे अध्ययन की भाषा अंग्रेजी है और सनातन संस्कृति का साहित्य ज्यादातर संस्कृत भाषा में उपलब्ध है। अब तक ज्ञात सभ्यताओं में मिस्र, मेसोपोटामिया, सिंधु घाटी, चीनी, सुमेरियन, फोनीशियन और ग्रीक सभ्यताएँ शामिल हैं। इनमें से सिंधु घाटी और उसके आस-पास के क्षेत्रों में विकसित सभ्यता कालांतर में हिंदू सभ्यता के रूप में जानी गई। इस सभ्यता के प्राचीन ग्रंथ इस प्रकार हैं- वेद हिंदू धर्म के सबसे प्राचीन ग्रंथ हैं। वेदों को चार भागों में विभाजित किया गया है – ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद।
उपनिषद: उपनिषद वेदों से जुड़े दार्शनिक ग्रंथ हैं। इस खंड में ग्रंथों की संख्या 123 से 1194 तक मानी जाती है, लेकिन उनमें से केवल 10 को ही मुख्य माना जाता है। आरण्यक वेदों से जुड़े ग्रंथ हैं, जिन्हें ‘वन’ या ‘जंगल’ ग्रंथ कहा जाता है।
ब्राह्मण: ब्राह्मण वेदों से जुड़े अनुष्ठान ग्रंथ हैं। प्रत्येक ब्राह्मण किसी न किसी वेद से संबंधित है।
स्मृति: जिन महर्षियों ने श्रुति के मंत्रों को प्राप्त किया, उनकी स्मृति की सहायता से शास्त्रों की रचना की, उन्हें ‘स्मृति ग्रंथ’ कहा जाता है। इनमें समाज की धार्मिक सीमाओं – वर्ण धर्म, आश्रम धर्म, राजधर्म, साधारण धर्म, दैनिक क्रियाकलाप, स्त्री-पुरुष के कर्तव्य आदि का वर्णन किया गया है।
पुराण: पुराण विभिन्न राजवंशों की कहानियाँ और इतिहास हैं। कुल 18 पुराण हैं। रामायण और महाभारत रामायण एक प्राचीन संस्कृत ग्रंथ है। इसे ऋषि वाल्मीकि ने लिखा था। यह भगवान राम, सीता और लक्ष्मण की कहानी है। श्रीमद्भगवद्गीता महाभारत का एक भाग है, जबकि महाभारत कौरव और पांडवों की कहानी है। श्री तुलसीदास द्वारा लिखित श्री रामचरितमानस रामायण का हिंदी संस्करण है। गर्ग संहिता, कौटिल्य अर्थशास्त्र, योगवासिष्ठ, आयुर्वेद के सभी ग्रंथ, ऐसे ग्रंथों को विशिष्ट विषयों के ग्रंथ मानना उचित होगा।
षट्दर्शन: षट्दर्शन का अर्थ है छह समीक्षाएँ। इन्हें षट्-शास्त्र भी कहा जाता है। षट्दर्शन उन भारतीय दार्शनिक और धार्मिक विचारों के मंथन का परिपक्व परिणाम है जो हजारों वर्षों के चिंतन से उत्पन्न हुए और हिंदू (वैदिक) दर्शन के रूप में लोकप्रिय हुए। इन्हें ‘आस्तिक दर्शन’ भी कहा जाता है। दर्शन और उनके संस्थापक इस प्रकार हैं। (1) न्याय – महर्षि गौतम (2) वैशेषिक – महर्षि कणाद (3) सांख्य – महर्षि कपिल (4) योग – महर्षि पतंजलि, (5) पूर्व मीमांसा – महर्षि जैमिनी, (6) उत्तर मीमांसा या वेदांत – महर्षि वादरायण चार्वाक दर्शन: नास्तिक दर्शन- यह केवल अप्रत्यक्ष साक्ष्य में विश्वास करता है और अलौकिक सत्ताओं को स्वीकार नहीं करता है। इस दर्शन को वेदबाह्य भी कहा जाता है। छह वेदबाह्य दर्शन हैं- चार्वाक, माध्यमिक, योगाचार, सौत्रान्तिक, वैभाषिक और अर्हत (जैन)। ये सभी गहन सिद्धांत वेदों से सहमत नहीं हैं।
टिप्पणियाँ और लेखन: आदि शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, दयानंद सरस्वती, प्रभुपाद स्वामी जैसे महान आचार्यों की टिप्पणियाँ और विवेकचूड़ामणि जैसे स्वतंत्र लेखन को भी धार्मिक शास्त्रों के रूप में मान्यता प्राप्त है। आदि शंकराचार्य के कई स्तोत्र इतने पंथीय हैं कि वे दैनिक प्रार्थनाओं का अभिन्न अंग बन गए हैं।
आगम या तंत्रशास्त्र: आगम ग्रंथों में सृष्टि, संहार, देवताओं की पूजा तथा साधन विधि, पुरश्चरण, षट्कर्म-साधना, चतुर्विध ध्यान योग आदि विषयों का वर्णन है। तंत्र ग्रंथों में सृष्टि, संहार, मंत्र-निर्णय, देवताओं की संस्था, तीर्थ-दर्शन, आश्रम धर्म, विप्र संस्था, भूत-प्रेतों की संस्था, कल्प का वर्णन, ज्योतिष संस्था, पुराण, कोष, व्रत-उपवास, शौच-प्रसारण, स्त्री-पुरुष के लक्षण, राजधर्म, दान, युगधर्म व्यवहार, अध्यात्म आदि विषयों का वर्णन है। तंत्र शास्त्र सांप्रदायिक है। वैष्णव, शैव, शाक्त आदि के अलग-अलग तंत्र ग्रंथ हैं। ऋग्वेद को जादू और मंत्रों का वेद कहा गया है। यामल ग्रंथ में सृष्टि तत्व, ज्योतिष, नित्यकृत्य, कल्पसूत्र, वर्ण भेद, जाति भेद तथा युगधर्म आदि विषयों का वर्णन है।
परमात्मा और आत्मा: परमात्मा शब्द दो शब्दों ‘परम’ और ‘आत्मा’ के मेल से बना है। परम का अर्थ है सर्वोच्च और आत्मा का अर्थ है चेतना, जिसे प्राणशक्ति भी कहते हैं। आधुनिक हिंदी में इस शब्द का अर्थ है ईश्वर। परमात्मा का अर्थ है सर्वोच्च आत्मा। परम का अर्थ है श्रेष्ठ अर्थात् सर्वश्रेष्ठ आत्मा। आत्मा का अर्थ है प्रत्येक जीव के अंदर विद्यमान चेतना के रूप में एक चेतन स्वरूप। तो इसका अर्थ है कि परमात्मा एक आत्मा है और वह आत्मा सबसे महान तथा सबसे शुद्ध और सबसे पवित्र है। ऋग्वेद मंडल 9 सूक्त 96 मंत्र 16 में ईश्वर के नाम के बारे में विस्तृत जानकारी मांगी गई है। प्रारंभ में अमरता की अवधारणा विकसित हुई। समुद्र मंथन की कथा में अमृत पीकर शरीर को अमर करने का उल्लेख है। लेकिन गीता की रचना होते-होते यह स्पष्ट हो गया कि प्रकृति का सिद्धांत है कि जो पैदा हुआ है उसका अंत भी अवश्य होगा, अत: शरीर अमर नहीं हो सकता। इसलिए गीता में कृष्ण ने अर्जुन से कहा है कि प्रकृति सत, रज और तमो गुणों से बनी है और शरीर इन गुणों सहित पांच तत्वों से बना है, जो भूमि, जल, अग्नि, वायु और आकाश हैं। ‘अपरायामितस्त्वन्यं प्रकृति विद्धि मे परं। जीवभूतं महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।’ (गीता अध्याय-7, श्लोक-5) आत्मा के बिना मन और बुद्धि निष्क्रिय हो जाते हैं। आत्मा द्वारा चेतना प्राप्त होने पर ही मन और बुद्धि सहित शरीर का प्रत्येक अंग सक्रिय हो जाता है और परिणाम स्वरूप मन और बुद्धि सहित संपूर्ण शरीर आत्मा के लिए कार्य करने लगता है। (गीता अध्याय-2, श्लोक-23) इस श्लोक में कहा गया है कि आत्मा को न तो शस्त्र काट सकते हैं, न अग्नि जला सकती है, न जल गीला कर सकता है, न वायु सुखा सकती है। अत: यहाँ भगवान श्री कृष्ण ने आत्मा के अमर और चिरस्थायी होने की बात कही है। चूँकि आत्मा का जन्म नहीं होता, इसलिए वह नश्वर नहीं है। ‘वासांसि जीर्णानि यथा विहाय गृöाति नरोएप्पाराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णन्यानि संयाति नवानि देहि।’ (गीता अध्याय-2, श्लोक-22) अर्थात् जिस प्रकार मनुष्य पुराने (फटे) वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा भी पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नये शरीर धारण करती है।
कर्म का सिद्धांत: कर्म वह अवधारणा है जो एक ऐसी प्रणाली के माध्यम से कार्य-कारण के सिद्धांत की व्याख्या करती है, जहाँ पिछले लाभकारी कार्य लाभकारी परिणाम देते हैं और हानिकारक कार्य हानिकारक प्रभाव उत्पन्न करते हैं, जिससे क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं की एक प्रणाली बनती है जो आत्मा के जीवन में पुनर्जन्म या पुनर्जन्म की ओर ले जाती है, जिससे पुनर्जन्म का चक्र बनता है। ऐसा कहा जाता है कि कारण और प्रभाव का सिद्धांत न केवल भौतिक दुनिया पर लागू होता है, बल्कि हमारे विचारों, शब्दों, कार्यों और हमारे निर्देशों पर दूसरों द्वारा किए जाने वाले कार्यों पर भी लागू होता है।
मोक्ष: मोक्ष एक दार्शनिक सिद्धांत है हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म और सिख धर्म में प्रमुखता से पाया जाता है जिसका अर्थ है आसक्ति का विनाश और ऐसा तब होता है जब पुनर्जन्म का चक्र समाप्त होता है। इसका अर्थ है कि व्यक्ति को संसार से मोक्ष या मुक्ति मिल जाती है। सभी पुनर्जन्म केवल मानव रूप में ही नहीं होते। कहा जाता है कि जन्म और मृत्यु का चक्र धरती पर 84 लाख योनियों में चलता रहता है, लेकिन इस चक्र से बाहर निकलना केवल मानव रूप में ही संभव है। यह भारतीय दर्शन है। शास्त्रकारों ने जीवन के चार उद्देश्य बताए हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। मोक्ष प्राप्त करने का तरीका आत्मतत्व या ब्रह्मतत्व का बोध करना है। न्याय दर्शन के अनुसार दुखों का पूर्ण विनाश ही मोक्ष है। सांख्य के अनुसार तीनों प्रकार के दुखों का पूर्ण विनाश ही मोक्ष है। इसका अर्थ है कि सभी प्रकार के सुख-दुख मोह आदि से छुटकारा पाना ही मोक्ष है। मोक्ष की अवधारणा स्वर्ग-नरक आदि की अवधारणा से भी पुरानी है तथा उनसे भी अधिक परिष्कृत एवं परिष्कृत है। स्वर्ग की अवधारणा में यह आवश्यक है कि मनुष्य अपने अच्छे कर्मों का फल भोगने के पश्चात पुन: इस संसार में जन्म ले, इससे उसे पुन: अनेक प्रकार के कष्ट भोगने पड़ेंगे। बौद्ध दर्शन में निर्वाण की अवधारणा मोक्ष के समानान्तर है। ‘निर्वाण’ शब्द का अर्थ है बुझ जाना। जैन दर्शन में कर्म के माध्यम से सजीव एवं निर्जीव का सम्बन्ध स्थापित किया जाता है। कर्म के माध्यम से सजीव का निर्जीव या जड़ से बंधना ही बंधन है। इस प्रक्रिया को आस्रव शब्द से व्यक्त किया जाता है। आस्रव के निरोध होने पर ही जीव अजीव से मुक्त हो सकता है। सनातन क्या है? उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि आत्मा नित्य है। क्योंकि वह न तो जन्म लेती है और न ही मरती है। अत: ‘आत्मा’ सनातन है। सनातन धर्म क्या है? आत्मा का धर्म ही सनातन धर्म है। सनातन धर्म के अनुयायी कौन हैं? जो लोग आत्मा को मोक्ष की ओर ले जाने के लिए विभिन्न उपाय करते हैं।
मोक्ष प्राप्ति की विधि: सनातन धर्म में मोक्ष प्राप्ति के लिए सांख्य योग, भक्ति योग और कर्म योग की विधियाँ बताई गई हैं। जिन्हें व्यक्ति अपने स्वभाव सत, रज और तम की प्रधानता के अनुसार अपना सकता है। इसे ही श्री कृष्ण ने गीता में स्वधर्म कहा है ‘स्वधर्मे निधनं श्रेय:, पर धर्मो भयवा:।’ गीता। 3.35. कुम्भ मेले एवं मोक्ष की अवधारणा ऐसा कहा जाता है कि महर्षि दुर्वासा के श्राप के कारण जब इंद्र और देवता कमजोर पड़ गए, तब राक्षसों ने देवताओं पर आक्रमण करके उन्हें परास्त कर दिया था। ऐसे में सब देवता मिलकर विष्णु भगवान के पास गए और सारा वृतांत सुनाया। तब भगवान ने देवताओं को दैत्यों के साथ मिलकर समुद्र यानी क्षीर सागर में मंथन करके अमृत निकालने को कहा। सारे देवता भगवान विष्णु जी के कहने पर दैत्यों से संधि करके अमृत निकालने के प्रयास में लग गए। जैसे ही समुद्र मंथन से अमृत निकला देवताओं के इशारे पर इंद्र का पुत्र जयंत अमृत कलश लेकर उड़ गया। इस पर गुरु शुक्रराचार्य के कहने पर दैत्यों ने जयंत का पीछा किया और काफी परिश्रम करने के बाद दैत्यों ने जयंत को पकड़ लिया और अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव और दैत्यों में 12 दिन तक भयानक युद्ध चला रहा। ऐसा कहा जाता है कि इस युद्ध के दौरान पृथ्वी के चार स्थानों पर अमृत कलश की कुछ बूंदे गिरी थी। जिनमें से पहली बूंद प्रयाग में, दूसरी हरिद्वार में, तीसरी बूंद उज्जैन और चौथी नासिक में गिरी थी। इसीलिए इन्हीं चार जगहों पर कुम्भ मेले का आयोजन किया जाता है। देवताओं के 12 दिन, पृथ्वी पर 12 साल के बराबर होते हैं। इसलिए हर 12 साल में महाकुम्भ का आयोजन किया जाता है। यह आयोजन ज्योतिष की गणना से होते है। जब बृहस्पति कुंभ राशि में तथा सूर्य मकर राशि में आने पर प्रयागराज में, बृहस्पति कुंभ राशि में तथा सूर्य मेष राशि में आने पर हरिद्वार में, बृहस्पति तथा सूर्य सिंह राशि में आने पर नासिक तथा बृहस्पति सिंह राशि में तथा सूर्य मेष राशि में आने पर उज्जैन में कुंभ मेले का आयोजन किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि कुंभ मेले में पवित्र नदी में स्नान करने पर मोक्ष प्राप्त होता है।
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