Horticulture (उद्यानिकी)

संतरा बागानों में फायटोप्थोरा रोग से बचाव

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संतरा बागानों में नर्सरी अवस्था से लेकर फलों की तुड़ाई तक कई प्रकार के रोगों का प्रकोप समय-समय पर देखा जाता है। इन रोगों में फायटोप्थोरा एक प्रमुख रोग है जिससे फल बागानों में भारी क्षति होती है। फायटोप्थोरा रोग के लक्षण प्रसार एवं प्रभावी नियंत्रण हेतु जानकारी होने से उचित समय पर उचित उपचार कर अधिक तथा गुणवत्ता युक्त फलों का उत्पादन लिया जा सकता है। संतरा की गुणवत्ता एवं भरपूर उत्पादन में प्रारंम्भिक पौध सामग्री का विशेष महत्व होता है। अत: इसकी योजना बनाते समय कुछ विशेष बातों का ध्यान अवश्य रखें। रोपण के लिए पौधे हमें नर्सरी से ही प्राप्त होते हैं, अत: यदि नर्सरी की व्यवस्था वैज्ञानिक ढंग से न हो तो बाग लगाने वाले किसान भाइयों को रोगग्रसित पौधों के मिलने की संभावना अधिक रहती है। इसका भविष्य में फलोत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।

म.प्र. नीबूवर्गीय फलों की बागवानी के लिए सबसे उपयुक्त है, यहां संतरा, नींबू तथा मोसंबी की बागवानी करके अधिक लाभ कमाया जा सकता है। मध्यप्रदेश मेें करीब 71,800 हे. क्षेत्र में नीबूवर्गीय फलों की बागवानी की जाती है जिससे करीब 12,40,800 टन उत्पादन होता है। जबकि उत्पादकता 17.3 टन प्रति हेक्टेयर है। जो महाराष्ट्र की तुलना में काफी अधिक है। देश में इनकी बागवानी 10.77 लाख हे. क्षेत्र में की जाती है। जिससे करीब 111.47 लाख टन उत्पादन होता है, उत्पादकता 10.3 टन प्रति हे. है। 

रोगाणु द्वारा संक्रमण और उसके रोगग्रसन क्षमता से जीवित रहकर नये रोग फैलने की संभावना, उसके कृषि जलवायु, मिट्टी के प्रकार, फसल की किस्म और खेती की गहनता पर निर्भर करता है। भारत में नीबूवर्गीय फलों की बागवानी चार प्रमुख क्षेत्रों जैसे पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात और उत्तर प्रदश जहां किन्नो संतरा, मोसम्बी और नींबू की बागवानी व्यापक रूप में की जाती है, फफूंद जनित रूट रॉट, क्राउन रॉट, गमोसिस, ट्वीग ब्लाईट, सिट्रस स्कैब और ड्राई रॉट बीमारियां होती हैं। मध्य क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले महाराष्ट्र एवं मध्यप्रदेश का अर्धशुष्क क्षेत्रों में जहां नागपुरी संतरा और नीबू की खेती  होती है उपरोक्त रोगों के अलावा बहार उपरान्त फलों का गिरना और सूटी मोल्ड का कुप्रभाव भी देखा जाता है। दक्षिण भारत के राज्यों में आंध्रप्रदेश, तामिलनाडु और कर्नाटक के गर्म और आद्र्र क्षेत्रों में सतगुड़ी मोसम्बी, कुर्ग संतरा और नीबू के बगीचों में उपरोक्त बीमारियों के अलावा फफूंद जनित ‘पाउडरी मिल्ड्यू’ पिंक एवं फेल्ट बीमारियां होती हंै।  फाईटोफ्थोरा जड़ विगलन (रूट रॉट) खुर विगलन (फूट रॉट), भूरा विगलन (ब्राउन रॉट), शिखर विगलन (क्राउन रॉट), स्तंभमूल संधि विगलन (कॉलर रॉट) और गोंद स्राव (गमोसिस) नीबूवर्गीय पौधों में फाइटोप्थोरा फफूंद द्वारा रूट रॉट रोग की प्राथमिक अवस्था में जल एवं पोशक तत्वों को ग्रहण करने वाली जड़ों का सडऩा आरम्भ हो जाता है तत्पश्चात क्राउन रॉट की अवस्था में जड़ समूह के अधिकांश भाग सड़ जाते हैं और पेड़ सूखने लगते हैं। कॉलर रॉट में फाइटोफ्थोरा सतह पर तने के चारों ओर संक्रमण करता है, जिससे कॉलर रॉट कहते हैं, जो बाद में फूट रॉट के रूप में तने के निचले भागों में सडऩ पैदा कर छाल को नष्ट करता है जिससे पेड़ सूख जाता है। वर्षा ऋतु में फाईटोप्थोरा मिट्टी से निकलकर पानी के छीटों के सहारे तने से चिपककर संक्रमण करता है, जिसके कारण गोंद जैसा स्त्राव होता है, जिसे गमोसिस की अवस्था कहते हैं। अत्यधिक संक्रमण से तने की छाल सड़ जाती है और तना सूखने लगता है जिससे पेड़ मर जाता है। पेड़ के पत्तों का पीला पडऩा, शाखाओं के ऊपर से नीचे की ओर सूखना इन रोगों के कारण होता है। नागपुरी संतरे के पेड़ों में निचली शाखाओं पर लगेे हुए फल भूमि सतह के पास होने के कारण, फाईटोप्थोरा बारिश की बूंदों की छीटों के साथ फलों पर आ कर संक्रमण करता है, जिसे भूरा विगलन कहते हैं।

फायटोप्थोरा बीमारी के लक्षण – फायटोप्थोरा रोग से नर्सरी में पौधे पीले पड़ जाते है, बढ़वार रूक जाती है तथा जड़ों की सडऩ होती है। इस फफूंद के कारण जमीन के ऊपर तने पर दो फीट काले धब्बे पड़ जाते है जिसके कारण छाल सूख जाती है। इन धब्बे से गोंद नुमा पदार्थ निकलता है। पेड़ों के जड़ों पर भी इस फफूंद से क्षति होती है प्रभावित पौधे धीरे-धीरे सूख जाते हैं। इस फफूंद द्वारा उत्पन्न रूट राट रोग की प्राथमिक अवस्था में तन्तुमय जड़ों का सडऩा प्रारंभ हो जाता है उसके पश्चात् क्राउन रॉट की अवस्था में जड़ समूह के अधिकांश भाग सड़ जाते हैं व सूखने लगते है। कॉलर रॉट में यह फफूंद सतह पर तने के चारों ओर फैल जाती है। जिससे बाद में तने के निचले भाग में फूट रॉट के रूप में जड़ों को सड़ाकर छाल पर भी सडऩ पैदा कर देती है जिससे पेड़ सूख जाता है। वर्षा ऋतु में यह फफूंद पानी के छीटों के साथ उचट कर तने पर चिपक जाती है जहां तने को संक्रमित कर देने से गोंद जैसा स्त्राव होने लगता है। यह गमोसिस की अवस्था है अधिक संक्रमण में पेड़ सूख जाता है। वर्षा की मोटी बूंदों से मिट्टी उचटकर पेड़ के निचली वाली शाखाओं पर लगे हुये फलों को संक्रमित कर देती है जिसे ब्राउन रॉट कहते हैं। 

फायटोप्थोरा रोग का प्रबंधन(अ) पौधशाला में फायटोप्थोरा रोग का प्रबंधनमूलवृृन्त के बीजों की बोनी के पूर्व फफूंनाशक से बीजोपचार करें।  जमीन से 9 इंच के ऊपर कलम बांधें।  पौधशाला में प्लास्टिक ट्रे एवं निर्जन्तुकृत (सूक्ष्मजीव रहित) मिट्टी का उपयोग करें। पौधशाला हेतु पुराने बगीचों से 500 मीटर दूर अच्छी जल निकासी वाली जमीन का चयन करें। (ब) बागानों मेें फायटोप्थोरा रोग का प्रबंधनअच्छी जल निकासी वाली जमीन का चुनाव करें। अच्छी प्रतिरोधक वाली मूलवृन्त पर बनाये गये पौधों का चयन करें। प्रतिरोधी मूलवृन्त जैसे रंगभूर लाईम पर फायटोप्थोरा का आक्रमण कम होता है।खुली नर्सरी से लाये गये पौधों की जड़ों को अच्छी तरह धोकर मेटालेक्जिन एम.जेड 2.75 ग्राम प्रति लीटर के साथ कार्बेन्डाजिम 1ग्राम/ली. घोल से 10 मिनट तक उपचारित करने के पश्चात् ही बागानों पर लगायें।जड़ों को टूटने से बचायें। पौधे रोपण के समय कलम जमीन की सतह से लगभग 6 से 9 इंच ऊंचाई पर हो।  तने को नली से बचाने के लिए डबल रिंग सिंचाई पद्धति का उपयोग करें। वर्षा के पहले और बाद में बोर्डोपेस्ट करें।रोगग्रस्त भाग को चाकू से छीलकर मेटालेक्जिल एम जेड 72 का पेस्ट लगाएं। छिले हुए भाग की छाल को जलाकर नष्ट करें। मेटालेक्जिल एम जेड 72 डब्ल्यू.पी. 2.75 ग्राम प्रति लीटर या फोसेटिल ए.एल. 2.5 ग्राम प्रति लीटर की दर से रोगग्रस्त पौधों पर अच्छी तरह छिड़कें।

गमोसिस से प्रभावित पौधे

रोग उद्गम – फायटोप्थोरा फफूंद के रोगाणु गीली जमीन से बहुत जल्दी बढ़ जाते है। इसके बीजाणु वर्षा पूर्व 25 से 30 डिग्री सेल्सियम तापमान पर बढ़कर थैलीनुमा आकार के हो जाते हैं जो पानी के साथ तैरकर जड़ों की जख्म के संपर्क में आकार बीमारी का प्रसार करते है। इन बीजाणुओं से धागेनुमा फफूंद का विकास होता है। जो बाद में कोशिकाओं में प्रवेश का फफूंद का पुन: निर्माण करते हैं। फायटोप्थोरा फफूंद पूरे वर्ष भर नर्सरी तथा बगीचों में नमी के कारण सक्रिय रहती है। 

रोग के फैलाव के प्रमुख कारण 

  • फायटोप्थोरा के लिए अप्रतिरोधक मातृवृक्ष उपयोग।
  • बगीचों में पट पानी देना तथा क्यारियों में अधिक समय तक पानी का रूकना।
  • गलत पद्धति से सिंचाई द्वारा प्रसार। 
  • जमीन से 9 इंच से कम ऊंचाई पर कलम बांधना। 
  • एक ही जगह पर बार-बार नर्सरी उगाना तथा रोग प्रभावित बगीचों के पास नर्सरी तैयार करना।
  • भूपेन्द्र ठाकरे (विषय वस्तु विषेषज्ञ-पादप रोग विज्ञान)
  • डॉ. व्ही. के. पराड़कर (प्रमुख वैज्ञानिक, सहसंचालक अनुसंधान), आंचलिक कृषि अनुसंधान केन्द्र, छिन्दवाड़ा
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