उद्यानिकी (Horticulture)

स्वादिष्ट, पौष्टिक ककोड़ा-परोड़ा की उन्नत खेती

  • डॉ. रमेश अमूले  द्य आर. एल. राऊत
  • डॉ. एस. आर. धुवारे
    कृषि विज्ञान केन्द्र, बडग़ांव, बालाघाट
    जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय, जबलपुर

31 मई 2023,  स्वादिष्ट, पौष्टिक ककोड़ा-परोड़ा की उन्नत खेती – ककोड़ा (खेख्सा) एक बहुवर्षीय कद्दूवर्गीय भारत के कुछ क्षेत्रों में उगाया जाता है। ककोड़ा को काटवल व परोड़ा, खेख्सी के नाम से भी जाना जाता हैं। विशेषकर जंगली क्षेत्रों में स्वयं उगते हुए देखे जा सकते हैं, इसलिए इन क्षेत्रों के आस-पास के लोग इसकी सब्जी के रूप में बहुतायत से उपयोग करते हैं। ककोड़ा के बीज को एक बार लगाने के बाद इसके मादा पौधे से लगभग 8-10 वर्षों तक फल प्राप्त होते रहते हैं। यह स्वाद में अधिक स्वादिष्ट और पोषक तत्व से भरपूर सब्जी है, जिस वजह से इसका बाजार भाव काफी अच्छा होता है। कृषकों के लिए यह एक अच्छी कमाई का साधन भी है, जिस वजह से ककोड़ा की खेती मुनाफे की खेती भी कही जाती है। फलों का उपयोग अचार बनाने के लिए भी किया जाता है। यह कफ, खांसी, अरूचि, वात, पित्तनाशक और हृदय में होने वाले दर्द से राहत दिलाता है। इसकी जड़ों का उपयोग बवासीर में रक्त बहाव रोकने के लिए, पेशाब की शिकायत व बुखार होने पर बहुत लाभकारी होता है। ककोड़ा के फलों का सेवन करने से मधुमेह रोगी के शर्करा नियंत्रण में भी बहुत उपयोगी है।

जलवायु

ककोड़ा गर्म और कम सर्द मौसम की फसल है। इस सब्जी की खेती उष्णकटिबंधीय और उपोष्ण कटिबंधीय दोनों क्षेत्रों में की जा सकती है। इस फसल को बेहतर विकास और उपज के लिए अच्छी धूप की आवश्यकता होती है। इसकी खेती के लिए 27 से 32 डिग्री सेल्सियस का तापमान उपयुक्त है।

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खेख्सा के लिए भूमि

ककोड़ा की खेती विभिन्न प्रकार की मिट्टी में उगाई जा सकती है। परन्तु इसकी खेती रेतीली भूमि जिसमें पर्याप्त मात्रा में जैविक पदार्थ हो तथा जल निकास की उचित व्यवस्था हो, अच्छी रहती है। इसके साथ ही मृदा का पी.एच. मान 6-7 के बीच होना चाहिए। ककोड़ा अम्लीय भूमि के प्रति संवेदनशील होती है।

बुवाई समय

ककोड़ा के बीजों की बुवाई का समय जून-जुलाई है। बीज के साथ-साथ ककोड़ा का प्रवर्धन उसके वानस्पतिक अंगों से भी किया जाता है। बीजों के द्वारा प्रवर्धन से 1:1 के अनुपात में नर व मादा पौधे मिलते हैैं। इसलिए ककोड़ा की फसल के लिए बीजों का प्रयोग नहीं करें। ककोड़ा की खेती से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए प्रवर्धन वानस्पतिक भाग अर्थात् जड़ के कन्द द्वारा करना चाहिए।

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किस्में

इंदिरा ककोड़ा 1 (आरएमएफ- 37) – एक नई व्यावसायिक किस्म है, जिसे इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित किया गया है। इस किस्म की खेती उत्तर प्रदेश, ओड़ीसा, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, झारखंड और महाराष्ट्र में की जा सकती है। यह बेहतर किस्म सभी प्रमुख कीटों और कीड़ों के लिए प्रतिरोधी है। यह तुड़ाई के लिए 35 से 40 दिन में तैयार हो जाती है। यदि इसके बीजों को ट्यूबर्स में उगाते हैं तो यह 70 से 80 दिन में तैयार हो जाती है। इस किस्म की औसतन उपज पहले साल 4 क्विंटल/एकड़ है, दूसरे साल 6 क्विंटल/एकड़ और तीसरे साल 8 क्विंटल/एकड़ होती है।

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बीज मात्रा

सही बीज जिसमें कम से कम 70-80 प्रतिशत तक अंकुरण की क्षमता हो। ऐसे बीज की 8-10 किग्रा. प्रति हेक्टेयर बीज की आवश्यकता होती है। कंद से रोपण के लिये 10000 कंद प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती हैं।

बिजाई और अंतरण

तैयार बेड में 2 सेंटीमीटर की गहराई में 2 से 3 बीज बोएं, मेड़ से मेड़ का फासला लगभग 1 मीटर या पौधे से पौधे का फासला लगभग 1 मीटर होना चाहिए।

बुवाई विधि

ककोड़ा की फसल से अच्छा उत्पादन प्राप्त करने के लिए खेत में पौधों की संख्या पर्याप्त होना आवश्यक है। इस फसल की बुवाई अच्छी प्रकार तैयार खेत में क्यारी बनाकर अथवा गड्ढों में किया जाता है। गड्ढे की आपस में दूरी 1ङ्ग1 मीटर रखनी चाहिए तथा प्रत्येक गड्ढे में 2-3 बीज की बुवाई करते हैं जिसमें बीच वाले गड्ढे में नर पौधा रखते हैं तथा बाकी गड्ढों में मादा पौधों को रखते हैं। यह भी ध्यान रखें कि एक गड्ढे में एक ही पौधा रखा जाता है।

खाद व उर्वरक

ककोड़ा की खेती से अधिक लाभ लेने के लिए संतुलित पोषण दें। सामान्यतया 200 से 250 क्विंटल प्रति हेक्टेयर अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद खेत की अंतिम जुताई के समय खेत में डालकर मिट्टी में मिला दें। इसके अलावा 65 कि. ग्रा. यूरिया, 375 कि.ग्रा. एसएसपी तथा 67 कि.ग्रा. एम.ओ.पी. प्रति हे. दें।

सिंचाई, निंदाई-गुड़ाई व खरपतवार नियंत्रण

फसल की बुवाई के तुरन्त बाद खेत में हल्की सिंचाई करें। बरसात में सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती, परन्तु दो वर्षा के समय में अधिक अन्तर होने पर सिंचाई करें। खेत में आवश्यकता से अधिक पानी को बाहर निकालने के लिए जल निकास की भी व्यवस्था हो क्योंकि अधिक पानी से बीज या कन्द सड़ सकता है। ककोड़ा की फसल में खरपतवार नियंत्रण की अधिक जरूरत नहीं होती हैं। परन्तु खेत खरपतवार रहित रहेंं, इसकी फसल में केवल दो से तीन गुड़ाई की जरूरत होती हैं। बेल को सहारा देने के लिये उचित व्यवस्था करना अत्यंत आवश्यक हैं।

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फसल प्रबंधन

इस पर बहुत कम कीट व व्याधियों का प्रकोप होता है। परन्तु फल मक्खी ककोड़ा के फलों को अधिक नुकसान पहुंचाते हैं। रोकथाम के लिए इमिडाक्लोप्रिड या इन्डोक्साकार्ब 14.5 एस.सी. की 1.5-2.0 मि.ली. मात्रा प्रति लीटर पानी की दर से छिडक़ाव कर फसल की सुरक्षा की जा सकती है।

ककोड़ा के फसल की कटाई

ककोड़ा के फसल की कटाई व्यापारिक उद्देश्य और गुणवत्ता के अनुसार की जाती हैं। सब्जी के रूप में ककोड़ा की पहली कटाई दो से तीन माह पश्चात् की जा सकती हैं। इस दौरान आपको ताजे स्वस्थ और छोटे आकार के ककोड़ा की फसल मिल जाती हैं। इसके आलावा फसल की कटाई एक वर्ष बाद भी की जा सकती है, इस दौरान फसल की गुणवत्ता काफी अच्छी पायी जाती हैं। अच्छी गुणवत्ता वाले ककोड़ा की मांग बाजारों में काफी अधिक रहती हैं। ककोड़ा का बाजारी भाव गुणवत्ता के हिसाब से 150 रूपये या उससे भी अधिक हो सकता हैं। इस हिसाब से किसान भाई ककोड़ा की एक बार की फसल से अच्छी कमाई करते हैं। यह सब्जी बिजाई के 70 से 80 दिन में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। यह दूसरे वर्ष में 35 से 40 दिनों में तैयार हो जाती हैं।

पौधों को सहारा (स्टेकिंग) देना

ककोड़ा से अधिक उपज प्राप्त करने के लिए पौधों को सहारा देना आवश्यक है। स्टेकिंग करने से पौधों की बढ़वार अच्छी होती है तथा गुणवत्ता युक्त फल प्राप्त करने के लिए बांस या सूखी लकडिय़ों की टहनी आदि से सहारा देना आवश्यक होता है। ककोड़ा एक बहुवर्षीय फसल है इसलिए पौधों को सहारा देने के लिए लोहे के एंगल पर जालीनुमा तार 5-6 फीट ऊंची, 4 फीट गोलाकार संरचना का उपयोग कर सकते हैं जिससे अधिक फल प्राप्त कर सकते हैं।

 

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