Editorial (संपादकीय)

टिकाऊ खेती के लिए मिट्टी परीक्षण

Share

4 मई 2021, भोपाल । टिकाऊ खेती के लिए मिट्टी परीक्षण – देश की एक अरब 30 करोड़ की आबादी के लिए भरपेट भोजन हमेशा की तरह चुनौती बनकर सामने है. शहरीकरण भी सुरसा के मुंह की तरह बढ़ता जा रहा है। अब खेती की जमीन का रकबा तो बढऩे से रहा बस हाथ में है तो जनसंख्या की दर पर रोक और उपलब्ध संसाधनों से जरूरतों की पूर्ति। आज टिकाऊ खेती की बात सबसे उपयोगी लगने लगी है और टिकाऊ खेती एक सपना तब तक बनी रहेगी जब तक भूमि के स्वास्थ्य पर ध्यान और उसके रखरखाव के लिये चौतरफा प्रयास ना किया जाये। यह बात केवल समझने की नहीं है। बल्कि अंगीकृत करने की है कि जिस प्रकार भोजन में केवल दाल-रोटी से पनप तो सकते हैं परंतु फल-फूल नहीं सकते ठीक उसी प्रकार यदि भूमि को संतुलित खाद/उर्वरक नहीं दिया गया तो हमारी फसलों के दोहन के लिये क्या उपलब्ध हो सकेगा।

आज खेती का नया दौर चल रहा है जिसके कारण फसल सघनता 200 से लेकर आंशिक क्षेत्रों में 300 प्रतिशत तक बढ़ गई है तीन-तीन फसलों के दवाब से भूमि में जमा तत्वों का खनन शीघ्रता से फसलों के द्वारा हो रहा है. बैंक ‘डिपाजिट’ शनै:-शनै: कम होता जा रहा है क्योंकि जिस तादात से निकासी हो रही है उसकी तुलना में जमा नहीं हो पा रहा है। अब ‘चैक’ वापस लौटने की स्थिति आती जा रही है जिससे बचने के लिये भूमि में पोषक तत्वों का संतुलन बनाये रखना नितांत आवश्यक होता जा रहा है। रसायनिक उर्वरकों का अंधाधुंध उपयोग विशेष कर ‘यूरिया’ के प्रति लोगों का लगाव भूमि में तत्वों के असंतुलन के लिये जिम्मेदार है अब भूमि में कितना क्या मात्रा में उपलब्ध जानने के लिये मिट्टी का परीक्षण जरूरी है. कभी-कभी जानकारी के अभाव में किसी विशेष उर्वरक का उपयोग ज्यादा कर लेते हैं। जिसका दूरगामी प्रभाव भूमि के स्वास्थ्य पर होता रहता है। देश भर में किये गये सर्वेक्षण से पता चला है कि सामान्य सिफारिशों की तुलना में मृदा परीक्षण आधारित उर्वरक सिफारिशों के अनुकरण से वांछित लाभ मिलते हैं। भूमि से पोषक तत्वों के असंतुलन की बात कमांड क्षेत्रों में जहां पानी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है, अधिक देखी जा रही है क्योंकि वहां की स्थिति ‘करेला’ वो भी नीम चढ़ा जैसी ही है वहां केवल पानी को ही लक्षित उत्पादन प्राप्त करने का सबसे सशक्त माध्यम मान लिया जाता है। सिफारिश का उर्वरक, साथ में सूक्ष्म तत्वों का उपयोग केवल सीमित कृषक ही करते हैं। धान-गेहूं फसल चक्र में जस्ते की कमी, सोयाबीन-गेहूं फसल चक्र में सल्फर की कमी आम बात है। पर उर्वरक/सूक्ष्म तत्व की औसत खपत आज भी दूसरे प्रदेशों की तुलना में आधी से भी कम है यही कारण है कि उत्पादन के आंकड़े भी सिकुड़े-सिमटे हैं जबकि उसके बढ़ाने की अपार संभावनायें एवं संसाधन भी हैं।

यह सब तब संभव है जब मृदा परीक्षण का विस्तार ज्यादा से ज्यादा क्षेत्रों में हो। शासन द्वारा इस विषय की गंभीरता को समझते हुए आज प्रत्येक जिला स्तर पर मिट्टी परीक्षण प्रयोगशाला उपलब्ध है। चलित मिट्टïी परीक्षण प्रयोगशाला द्वारा भी घूम-घूम कर प्रमुख तत्वों का परीक्षण किया जा रहा है। कृषकों को सलाह दी जाती है कि अधिक से अधिक नमूने भेज कर अपनी मिट्टïी में उपलब्ध पोषक तत्वों के खजाने की पड़ताल करा लें ताकि कितना जमा करने पर संतुलन हो पायेगा यह बात निर्धारित हो सके। ध्यान रहे मिट्टïी के स्वास्थ्य पर गंभीरता नहीं होगी तो उत्पादन स्तर नहीं बढ़ेगा और टिकाऊ खेती का सपना साकार नहीं हो पायेगा।

Share
Advertisements

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *