संपादकीय (Editorial)

अध्यादेशों ने अकेला कर दिया किसान को

अध्यादेशों ने अकेला कर दिया किसान को

अध्यादेशों ने अकेला कर दिया किसान को – मई में मोदी सरकार ने आत्मनिर्भर भारत अभियान का जिक्र किया और तीन हफ्ते बाद ही देश के किसानों को अकेला छोड़ दिया। पांच जून 2020 को जारी कृषि सम्बन्धी अध्यादेशों द्वारा भारत सरकार ने खेती में तीन बड़े कानूनी बदलाव कर दिए हैं, अलबता देर-सवेर संसद को इन पर अंतिम फैसला लेना ही होगा। इन तीनों कानूनी बदलावों का प्रभाव यही होगा कि किसान अब बाजार में अकेला खड़ा होगा, उसे सरकार का सहारा नहीं होगा। एक ओर छोटा किसान और दूसरी ओर उसके सामने बड़े-बड़े राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय व्यापारी। किसान को अकेला छोडऩा क्यों ठीक नहीं है? कई बार किसान भी यह सोचते हैं कि सरकार फसलों के मूल्य क्यों तय करती है, क्यों नहीं किसान अपने उत्पादों का मूल्य खुद तय करें? ऊपरी तौर पर ठीक लगती यह बात ठीक नहीं है।

पूरी दुनिया में किसान को पूरी तरह अकेला नहीं छोड़ा जाता और इसके ठोस कारण हैं। ये कारण कृषि की प्रकृति में हैं। एक तो बुनियादी ज़रूरत होने के कारण भोजन की माँग में, कीमत या आय बढऩे पर ज्यादा बदलाव नहीं होता और दूसरा, मौसम पर निर्भरता के कारण कृषि-उत्पाद में बहुत ज्यादा बदलाव होते हैं। आपूर्ति में बहुत ज्यादा बदलाव और माँग के बे-लचीला होने का परिणाम यह होता है कि अगर बाज़ार के भरोसे छोड़ दिया जाए तो कृषि की कीमतों में बहुत ज्यादा बदलाव होंगे। ऐसा न तो किसान के हित में होता है और न ही ग्राहक या उपभोक्ता के हित में। जब फसल नष्ट होने के कारण कीमतें बढ़ती हैं तो किसान को कोई फायदा नहीं होता और जब अच्छी पैदावार के कारण कीमतें घट जाती हैं तो भी किसान को कोई फायदा नहीं होता। वैसे भी सरकार आम तौर पर कृषि-उत्पादों के मूल्य निर्धारित नहीं करती, वह तो केवल न्यूनतम बिक्री मूल्य (न्यूनतम समर्थन मूल्य, ‘एमएसपी’) निर्धारित करती है।

इन तीन कानूनी बदलावों द्वारा सरकार ने कृषि क्षेत्र से नियमन, विशेष तौर पर ‘मंडी कानून’ को बहुत हद तक ख़त्म कर दिया है। अब व्यापारी को मंडी नहीं जाना पड़ेगा। वो कहीं भी, बिना किसी सरकारी नियंत्रण के किसान का माल खरीद सकता है। जब सरकार द्वारा नियंत्रित मंडी में भी हमेशा और हर किसान को सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम मूल्य (एमएसपी) नहीं मिलता, तो मंडी के बाहर क्या रेट मिलेगा, इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। आढ़तियों से परेशान किसान यह सोच कर खुश हो सकते हैं कि चलो, इनसे तो पिंड छूटा, पर ध्यान रहे आढ़तिया भी व्यापारी है, कोई सरकारी कर्मचारी नहीं और नई व्यवस्था में भी खरीदेगा तो व्यापारी ही।

फर्क ये होगा कि अब सरकार/समाज की निगाह से दूर ये सौदा होगा। ‘आवश्यक वस्तु कानून’ की ओट लगभग ख़त्म होने से अब व्यापारी कितना भी माल खरीद और स्टाक कर सकता है। इसका अर्थ है, अब बाज़ार में बड़े-बड़े, विशालकाय खरीददार होंगे जिनके सामने छोटे-से किसान की कितनी और क्या औकात होगी, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।

‘आत्मनिर्भर भारत अभियान’ के चलते कम्पनियों के आत्मनिर्भर होने की राह भी खोल दी गयी है। अब संविदा करार की मार्फत कम्पनियाँ खुद खेती कर सकेंगी। आमतौर पर अनुबंध खेती का मतलब है कि बुआई के समय ही बिक्री का सौदा हो जाता है ताकि किसान को भाव की चिंता न रहे। सरकार द्वारा पारित वर्तमान कानून में अनुबन्ध की परिभाषा को बिक्री तक सीमित न करके, उसमें सभी किस्म के कृषि कार्यों को शामिल किया गया है।

अध्यादेश के अनुसार कम्पनी किसान को, किसान द्वारा की गयी सेवाओं के लिए भुगतान करेगी यानी किसान अपनी उपज की बिक्री न करके अपनी ज़मीन (या अपने श्रम) का भुगतान पायेगा। हालाँकि अध्यादेश की ‘धारा-8-ए’ में कहा गया है कि इस कानून के तहत ज़मीन को पट्टे पर नहीं लिया जा सकेगा, लेकिन दूसरी ओर ‘धारा-8-बी’ में भूमि पर कम्पनी द्वारा किये गए स्थाई चिनाई, भवन-निर्माण या ज़मीन में बदलाव इत्यादि का जि़क्र है। इसका स्पष्ट अर्थ है कि अनुबंध की अवधि के दौरान ज़मीन अनुबंध करने वाले के नियंत्रण में है, यानि खेती किसान नहीं, अनुबंध करने वाला कर रहा है।

भारत जैसे विशाल आबादी और बड़ी बेरोजगारी वाले देश में कम्पनियों द्वारा खेती हमें कहीं का नहीं छोड़ेगी। कोरोना-काल ने इसे फिर से रेखांकित कर दिया है। जब कम्पनियों ने मजदूरों को निकाल बाहर किया था तो खेती और छोटे-मोटे ग्रामीण रोजग़ार ही थे, जिनके भरोसे लोग सैंकड़ों मील पैदल चलने का खतरा मोल लेकर भी निकल पड़े थे। ‘अनुबंध पर खेती कानून’ ग्रामीण इलाकों के इस अंतिम सहारे को भी छीनने का क़ानून है। यह कानून बिना नए रोजगार की व्यवस्था के, पुराने रोजगार को छीनने का कानून है।
आजादी की लड़ाई के समय से ही यह माँग रही है कि खेती पर किसान का नियंत्रण रहे, न कि व्यापारियों का। इसलिए आजादी के बाद कृषि भूमि की अधिकतम सीमा तय कर दी गयी थी।

आजादी से पहले भी पंजाब में यह कानून बनाया गया था कि गैर-कृषक या साहूकार खेत और खेती के औजारों पर कब्जा नहीं कर सकता। इन कानूनों का उद्देश्य यही था कि खेती चंद लोगों के अधिकार की बजाए आम लोगों की आजीविका का साधन रहे। सरकार इन मौजूदा कानूनों को दरकिनार कर, अनुबंध पर खेती के कानून के माध्यम से कम्पनियों के लिए खेती की राह खोल रही है। अगर सरकार समझती है कि ऐसा करना देश और किसानों के हित में है तो उसे चाहिए कि वो इस कानून को ‘कम्पनी द्वारा खेती का कानून’ के नाम से संसद में पेश करे न कि ‘किसान सशक्तिकरण कानून’ के नाम से।

इसमें दो राय नहीं हैं कि कृषि मंडी की वर्तमान व्यवस्था में सुधार की ज़रूरत है, पर इसका इलाज़ कृषि मंडी नियमन को ख़त्म करने में नहीं है। इसका उपाय है, मंडी कमेटी को किसानों के प्रति जवाबदेह बनाया जाए; उसमें सभी हितधारकों के चुने हुए प्रतिनिधि हों। आज भी कानूनी प्रावधानों के बावजूद बरसों मंडियों के चुनाव नहीं कराये जाते और नतीजे में चुने हुए प्रतिनिधियों को कोई अधिकार नहीं दिए जाते। अगर नियमन के बावज़ूद सरकार छोटे-मोटे व्यापारियों और आढ़तियों से किसानों को नहीं बचा सकती, सरकारी खरीद का पैसा भी योजना बनाने के बावजूद सीधे किसानों के खातों में नहीं पहुंचा सकती, तो अब जब बड़ी-बड़ी दैत्याकार विशाल देशी-विदेशी कम्पनियाँ बिना किसी सरकारी नियंत्रण या नियमन के किसान का माल खरीदने लगेंगी तो फिर किसान को कौन बचाएगा?

कृषि क्षेत्र में सरकार द्वारा किये गए बदलावों के बाद अनाज मंडी का भी वही हाल होगा जो सरकारी स्कूलों का हुआ है। बड़ी कम्पनियाँ, बड़े किसानों की पैदावार ले लेंगी और बड़े किसान इन कम्पनियों से अनुबंध भी कुछ हद तक निभा लेंगे। जब सम्पन्न किसान अनाज मंडी से बाहर चला जाएगा, तो सरकारी स्कूलों की तरह अनाज मंडियाँ भी बन्द होने लगेंगी और फिर छोटे, आम किसानों के लिए कोई राह नहीं बचेगी। (सप्रेस)

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