गर्मी में मक्का की खेती
विश्व के खाद्यान्न उत्पादन में इसका 25 प्रतिशत योगदान है। धान्य फसलों के क्षेत्रफल एवं उत्पादन की दृष्टि से मक्का का स्थान तीसरा है। भारत में मक्का का रकबा 7.27 मिलियन हेक्टेयर है।
मक्का की असिंचित खेती खरीफ के मौसम में की जाती है। इन दोनों जलवायु क्षेत्रों में मक्का की खेती घर के आसपास के खेतों, जिन्हें बाड़ी कहते हैं में की जाती है। सिंचाई साधनों के साथ मक्के की खेती वर्ष भर की जा सकती है। देर से पकने वाली धान फसल पद्धति में जायद धान फसल के स्थान पर जनवरी – फरवरी में जायद मौसम में मक्का की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है।
जलवायु –
मक्का एक ग्रीष्मकालीन फसल है। सभी अवस्थाओं में तापमान लगभग 250 डिग्री सेन्टीग्रेट के आसपास होने चाहिए। पकते समय गर्म तथा शुष्क वातावरण उपर्युक्त होता है। पाला फसल की किसी भी अवस्था के लिये हानिकारक हो सकता है। असिंचित मक्के की खेती के लिए वार्षिक वर्षा 25 से.मी. से लेकर 500 से.मी. तक पर्याप्त होता है।
भूमि का चुनाव –
अधिकतम बढ़वार और पैदावार के लिए अधिक उपजाऊ दोमट मिट्टी जिसमें वायु संचार अधिक हो, पानी का निकास उत्तम हो तथा जीवांश पदार्थ काफी मात्रा में पाया जाता हो, उत्तम होती है। मक्के की खेती ऐसी भूमि में की जानी चाहिए जिसका पी.एच.मान 6.0 से 7.0 तक हो। जल भराव मक्के की फसल के लिये बहुत हानि कारक होता है। मक्का की अधिकतम पैदावार के लिये उच्चहन भूमि उत्तम है। सामान्यत: मक्का की खेती सभी प्रकार की मृदाओं, बालुई मिट्टी से भारी चिकनी मिट्टी तक में सफलतापूर्वक की जा सकती है।
विश्व एवं भारत में मक्का एक महत्वपूर्ण खाद्यान्न फसल है। इसका उपयोग पशु चारे के रूप में किया जाता है। इसके उत्पादन का 26 प्रतिशत मनुष्य आहार, 11 प्रतिशत जानवरों के आहार, 48 प्रतिशत मुर्गी के आहार, 12 प्रतिशत औद्योगिक उत्पादन एवं शेष स्टार्च एवं बीज के रूप में प्रयोग में लाया जाता है। इसके अलावा मक्का का प्रयोग कार्न फ्लेक्स, तेल निकालने में स्टार्च के लिये, पाप कॉर्न, शराब बनाने आदि के रूप में भी किया जाता है। |
बुवाई –
खरीफ की फसल के लिए बुवाई जून के द्वितीय पखवाड़ा से लेकर जुलाई के प्रथम पखवाड़ा तक व वर्षा आधारित द्विफसली खेती के लिये बुवाई जून में खरीफ व नवम्बर माह में रबी फसल की बुवाई करनी चाहिए। जायद फसल लेने के लिये बुआई का समय जनवरी से मार्च तक का है। जल्दी बोनी की स्थिति में देर से पकने वाली किस्में लगाई जा सकती है। जबकि देर से बुवाई होने पर जल्दी पकने वाली किस्मों का चयन करना चाहिए।
उर्वरक व खाद प्रबंधन – मक्के की अनुमानित उपज पाने के लिए 2 वर्ष में एक बार 8-10 टन प्रति हेक्टेयर गोबर की सड़ी खाद या कम्पोस्ट का प्रयोग करना चाहिए। मिट्टी का परीक्षण कराकर उसमें उपलब्ध पोषक तत्वों की स्थिति तथा बोई जाने वाली किस्में एवं अवधि के अनुसार ही उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए। अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिये निम्नानुसार उर्वरकों का प्रबंधन करें। दाने वाली किस्म उर्वरक किलोग्राम प्रति हेक्टेयर नाईट्रोजन फास्फोरस पोटाश शीघ्र पकने वाली 80 50 30 मध्यम पकने वाली 100 60 40 देरी से पकने वाली 120 60 40 फास्फोरस एवं पोटाश की संपूर्ण मात्रा बुवाई के समय खेत में मिला देना चाहिए। नत्रजन की मात्रा को तीन भागों में बांटकर प्रयोग करने से उर्वरक की पूरी मात्रा पौधों को प्राप्त होती है। नत्रजन की एक तिहाई मात्रा बुवाई के समय दूसरी तिहाई मात्रा मक्के की घुटने तक ऊंचाई होने पर व अंतिम मात्रा नरमजरी अवस्था में देना चाहिए। जिंक की कमी वाले क्षेत्रों में 20 से 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से जिंक सल्फेट का प्रयोग हर तीसरे वर्ष बुवाई के समय आधार उर्वरक के रूप में करना चाहिए। |
भूमि की तैयारी –
खेत को एक बार मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई करने के बाद दो से तीन बार कल्टीवेटर से आड़ी -खड़ी जुताई करके जमीन को भुरभुरी एवं महीन बना लेते है। पाटा चलाकर खेत को समतल बना लेना चाहिए। इससे अच्छा अंकुरण होता है। बुआई के 20 दिन पूर्व 20-25 गाड़ी गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर के हिसाब से मिला दिया जाता है। दीमक के नियंत्रण के लिए अंतिम जुताई के समय 25 किलोग्राम क्लोरोपायरीफास चूर्ण डालना आवश्यक होता है।
उन्नतशील किस्मों का चयन –
भारतीय समन्वित मक्का सुधार परियोजना के अंतर्गत किये गये अनुसंधान के आधार पर ग्रीष्मकालीन मक्का की खेती के लिये निम्न किस्मों को अनुशंसित किया गया है।
विवेक मक्का हाईब्रिड – 27, गंगा -4, गंगा-11, डेक्कन-103, वी.एल.-42।
सामान्यत: ग्रीष्मकालीन मक्का सफल के लिए संकर किस्म का मक्के का चयन एवं उपयोग करते समय प्रत्येक बार नये बीज को 2-3 सात तक उपयोग कर सकते हैं. संकुल किस्मों का बीज के पुन: चयन करने के लिये यह आवश्यक है कि बीज खेत के बीच वाले भाग से अच्छे भराव वाले भुट्टे द्वारा एकत्रित किये गये हो। खेत के किनारे के हिस्से वाले पौधों के दानों को बीज के रूप में उपयोग नहीं किया जाना चाहिए।
बीज की मात्रा एवं बीजोपचार –
साधारणतया संकर जातियों का 15-20 किलोग्राम बीज एक हेक्टेयर एवं चारे की फसल के लिये 40-50 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर के लिए पर्याप्त होता है। जायद में भुट्टे के लिए खेती करने पर 20 से 25 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है। बीज बोने से पहले थायरम या बाविस्टीन नामक फफूंद नाशकर दवा की 2 ग्राम मात्रा प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करना चाहिए। बीज की बुआई 3-5 सेन्टीमीटर गहराई पर की जानी चाहिए। बोआई कतार विधि से करने पर अधिक लाभ प्राप्त होता है।
पौध अंतरण –
मौसम के आधार पर अंतराल रखने से उत्पादन अच्छा प्राप्त होता है। जायद मौसम की फसल में कतार से कतार के बीच की दूरी 45-60 सेन्टीमीटर एवं पौधे से पौधे की दूरी 25 सेंटीमीटर होना चाहिए। सामान्यत: खेत में 25-30 हजार पौधे प्रति एकड़ होने पर वांछित उत्पादन प्राप्त होता है।
खरपतवार प्रबंधन –
समय पर निंदाई-गुड़ाई नहीं होने पर उत्पादन अत्यधिक प्रभावित होता है। निंदाई – गुड़ाई से भूमि पोली बनी रहती है। भूमि में वायु के अच्छे संचार से जड़ों को खाद्य पदार्थ व जल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है। एघजीन या मेजीन खरपतवारनाशक 500 ग्राम सक्रिय तत्व 1-1.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से 700 से 800 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करने से खरपतवार नियंत्रित होते हैं।
निंदाई दवाई का प्रयोग बुवाई के बाद अंकुरण से पूर्व करना चाहिए। अर्थात् बुवाई के 1-2 दिन के अंदर कर लेना चाहिए। इसके पश्चात 20-30 दिन फसल अवस्था पर हैण्डल हो। इसे कतारबद्ध कतार में निंदाई करना चाहिए। हाथों से उखाड़ कर निंदाई करना चाहिए। इसके पश्चात् पौधों पर मिट्टी चढ़ाना चाहिए। जिससे पौधे गिरते नहीं है।
जल प्रबंधन –
फसल के लिये पानी की अधिकता एवं कमी दोनों ही हानिकारक है। खरीफ में सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है। ग्रीष्मकालीन फसल में 10-15 दिन के अंतराल में सिंचाई करते रहना आवश्यक होता है। पूरी फसल अवधि में 8-10 सिंचाई की आवश्यकता होती है। जिसमें तीन सिंचाई फूल आने के पहले व तीन फूल आने के बाद की जाती है।
अंतरवर्तीय फसलों से अतिरिक्त लाभ –
अंतरवर्तीय खेती में अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिये ऐसी फसल का चुनाव करना चाहिए जिससे कुल उत्पादन में वृद्धि हो। ग्रीष्मकालीन मक्का के साथ मूंगे या उड़द की अंतरवर्तीय खेती की जा सकती है।
कटाई – मड़ाई –
दाने के लिए लगाई गई फसलों में भुट्टे की ऊपरी परत के सूखने पर दाना नाखून से न दबे, पौधे की निजली पत्तियां सूख जाये एवं तना सूखकर मुडऩे लगे, उस समय खेत से भुट्टे अलग कर लें और उसे सूखे फर्श पर तेज धूप में सुखायें। भुट्टों से दाने अलग करने के लिये भुट्टा छीलक यंत्र का उपयोग किया जा सकता है। चारे के लिये लगाई गई फसल की कटाई नर मंजरी अवस्था में करनी चाहिए। क्योंकि इस अवस्था में फूड प्रोटीन की मात्रा ज्यादा होती है। भुट्टे के लिये लगाई गई फसल की कटाई दूध भरने वाली अवस्था में करें।
कीट – तना बेधक – कीट की सूंडियां तने में छेद करके अंदर ही खाती जाती है। जिससे पौधे की मध्य कालिका सूखने लगती है और मतकेन्द्र बन जाता है। रोकथाम हेतु बुवाई के 20-25 दिन बाद कार्बोफ्यूरान 3 प्रतिशत दाने 20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करें। बालदार सुंडियां :- इल्लियां प्रारंभिक अवस्था में पत्तियों को खाकर क्षतिग्रस्त करती है। अधिक कीट प्रकोप की स्थिति में कीटनाशक दवा क्विनालफॉस 2.5 मिली प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोल बनाकर छिड़काव करें। रोग – अंगमारी – निचली पत्तियों पर लंबे दीर्घ वृत्ताकार अथवा नाव के आकार के धब्बे बनते हैं। रोग निचली पत्तियों से प्रारंभ होकर ऊपर बढ़ता है। जिससे संपूर्ण पत्तियां सूख जाती है। रोग सहनशील किस्म गंगा-2, संकर मक्का-4 का चयन करें। खड़ी फसल के ऊपर जाइनेब, मेंकोजेब तथा केप्टान को 0.2 प्रतिशत की दर से 10 से 12 दिन के अंतराल पर छिड़काव करें। तना सडऩ – तने पर जलीय धब्बे बनते हैं, तने शीघ्र सडऩे लगते हैं। रोकथाम हेतु 15 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लीन अथवा 60 ग्राम एग्रीमाइसिन प्रति हेक्टेयर की दर से आवश्यक पानी की मात्रा में घोल बनाकर छिड़काव करें। फसलें ज्यादा प्राप्त होती है। |