संपादकीय (Editorial)

किस हाल में है गांवों का शासन ?

पंचायती राज 30 साल में कितना मजबूत हुआ लोकतंत्र ? – 2

  • सी.आर. बिजॉय
    (अनुवाद: विशाल कुमार जैन )

7 जुलाई 2022,  किस हाल में है गांवों का शासन ? – भारत में लोकतंत्र की जड़ों को और मजबूत करने के लिहाज से साल 1992 को मील का पत्थर माना जाता है। तीन दशक पहले इसी साल संविधान में 73वां (पंचायती राज के लिए) और 74वां (नगरपालिका और शहरी स्थानीय निकायों के लिए) संशोधन किया गया था। आजादी के बाद राजनीतिक लोकतंत्र को निचले पायदान तक ले जाने की दिशा में यह पहला ऐतिहासिक कदम था। इन संशोधनों का मकसद संविधान के अनुच्छेद 40 को हकीकत में बदलना था। संविधान का अनुच्छेद 40 नीति निदेशक सिद्धांतों में से एक सिद्धांत को समेटे हुए है और इसमें राज्य को ग्राम पंचायतों के गठन और पावर देने का सुझाव दिया गया है। इसमें कहा गया है कि राज्य न केवल ग्राम पंचायत को संगठित करे बल्कि इतनी शक्ति और अधिकार दे कि वे स्वशासन की एक इकाई के रूप में कार्य कर सकें।

भारत की लगभग 66 से 69 प्रतिशत आबादी गांवों में रहती है और देश के कुल क्षेत्र का लगभग 90 प्रतिशत भूभाग ग्रामीण शासन के दायरे में आता है। 755 जिलों में कुल 2,55,278 ग्राम पंचायतें, 6,683 मध्यवर्ती पंचायतें और 662 जिला पंचायतों के दायरे में लगभग 650,000 गांव आते हैं। चूंकि ‘स्थानीय सरकार’ का विषय संविधान की सातवीं अनुसूची में राज्य सूची के तहत है, इसलिए राज्यों को पंचायतों के संचालन के लिए उपयुक्त कानून बनाने थे। अधिकांश राज्यों ने 1994 तक पंचायत कानूनों को कानूनी जामा पहना दिया या मौजूदा कानूनों में संशोधन किया। पंचायती राज संस्थाओं को पूरी तरह से सरकारी विभागों के साथ मिलकर योजना बनाने और उन्हें लागू करने का काम करना था। हालांकि, 73वां संशोधन का अक्षरश: पालन नहीं हुआ। शासन के औपनिवेशिक रवैये ने स्थानीय व्यवस्था पर अपनी पकड़ बनाए रखी।

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वहीं 2004 में पंचायती राज मंत्रालय (रूशक्कक्र) अस्तित्व में आया। 2006-07 में पंचायती राज मंत्रालय ने पंचायत अधिकारिता के तहत ढांचे, कार्यों, वित्त और कार्यकर्ताओं से युक्त एक डिवोल्यूशन इंडेक्स (हस्तांतरण सूचकांक यानी (ष्ठढ्ढ) के माध्यम से पंचायती राज संस्थाओं को दिए गए 29 विषयों की समीक्षा शुरू की। ये समीक्षा जवाबदेही प्रोत्साहन योजना के तहत शुरू हुई। इसमें 2013 में ‘जवाबदेही’ और ‘क्षमता निर्माण’ जोड़ा गया। इसके तहत पंचायती राज संस्थाओं को सशक्त बनाने में राज्य के प्रदर्शन का आकलन होना था। इस हिसाब से राज्यों की रैंकिंग होनी थी। राष्ट्रीय औसत पंचायत राज डीआई 2010-11 में 42.38, 2011-12 में 41.9, 2012-13 में 38.5 और 2013-14 में 39.92 पाया गया था। यह आकलन नेशनल काउंसिल फॉर अप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च द्वारा 2006-07 से 2008-09 के दौरान और भारतीय लोक प्रशासन संस्थान द्वारा 2009-10 से 2012-13 के दौरान किया गया था। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज द्वारा 2014-15 और 2015-16 में शक्तियों और संसाधनों के हस्तांतरण की स्थिति का त्वरित मूल्यांकन किया गया था। राज्यों के व्यवहार के खिलाफ समायोजित नीति का समायोजित सूचकांक 2014-15 में 1 के पैमाने पर 0.20 से 0.77 के बीच और औसत 0.39 था। 2015-16 में 1 के स्केल पर नोशनल इम्प्रूव्ड इंडेक्स ऑफ पॉलिसी एडजस्टेड प्रैक्टिस 0.01 से 0.65 के बीच और औसत 0.16 था। ऐसा लगता है कि इस खराब रिकॉर्ड के चलते रूशक्कक्र ने तब से आकलन करना ही बंद कर दिया है। इस दौरान 2010 में हर साल 24 अप्रैल को राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस मनाने की घोषणा भी हुई।

शक्ति का हस्तांतरण का सही से न होना, नौकरशाही का बहुत अधिक नियंत्रण, फंड मिलने में लालफीताशाही और अन्य कानूनों के साथ सामंजस्य नहीं होने की वजह से पंचायती राज से जुड़ी संस्थाएं ठीक से काम नहीं कर सकीं। ग्राम सभाओं का काम करना इसलिए भी अव्यवहारिक हो गया क्योंकि इनका गठन ग्राम पंचायत स्तर पर किया गया जिसमें जनसंख्या काफी अधिक होती था। इस तरह यह एक अच्छे विचार को लागू करने की खानापूर्ति भर होकर रह गयी। ग्राम सभा के स्तर से ऊपर निर्वाचित निकायों के पास ही शक्तियां सीमित रहीं और इसे लागू करने की जिम्मेदारी भी तमाम विभागों के पास रही। संविधान में जिस लोकप्रिय लोकतंत्र की परिकल्पना की गयी थी उसके बजाय राज्य के कानूनों ने ‘कलेक्टर राज’ को बढ़ावा दिया।

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ग्राम सभाओं के अधिकार में भूमि से अलगाव को रोकना, अवैध रूप से छीनी गई जमीन को बहाल करना, लघु वनोपज का स्वामित्व, अपने क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र के भीतर आने वाले लघु जल निकायों और लघु खनिजों को नियंत्रित करना, ग्राम हाट का संचालन, संस्थानों और पदाधिकारियों का प्रबंधन, शराब की बिक्री/खपत को सीमित करना इत्यादि शामिल है।

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केंद्र और राज्य के राजनीतिक कार्यपालिका में सामंजस्य की कमी के कारण और औपनिवेशिक सोच के प्रशासन की वजह से एक गैर कानूनी बाजार खड़ा हो गया। संदिग्ध लेन-देन और कानूनों की धज्जियां उड़ाते हुए, यह वह जगह बन गई जहां लूट की कल्पना की जाती है और फिर उसकी बंदरबांट होती है। चुनावी लोकतंत्र ने शासन करने के बजाय इस नापाक बाजार पर कब्जा करने के लिए खुद को एक बेलगाम सवारी में बदल दिया। इस तरह कई अन्य कानूनों के माध्यम से औपनिवेशिक शासन प्रणाली को ताकतवर बनाना जारी रहा।

एक तरफ लोकतंत्र सुदृढ़ नहीं हो पाया और औपनिवेशिक शासन प्रणाली भी खत्म नहीं हुई दूसरी तरफ वैश्वीकरण के दौर में ‘विकास’ का उन्माद भी बढ़ा। इससे संसाधन के लिए झगड़े बढ़े और पारिस्थितिक को तबाह करने की प्रक्रिया तेज हुई। आम जनता को हमेशा राज्य के एक या दूसरे अंग के खिलाफ किया जाता रहा है। प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर लोगों को विस्थापन के लिए मजबूर किया जाता है।

कुछ राज्यों को मिली छूट

नागालैंड, मिजोरम, मेघालय, मणिपुर के पहाड़ी इलाकों, पश्चिम बंगाल में दार्जिलिंग जिले के पहाड़ी इलाकों और संविधान के अनुच्छेद 244 (1) और (2) में शामिल अनुसूचित क्षेत्रों और जनजातीय क्षेत्रों को 73वें संविधान संशोधन से छूट दी गई थी।

नागालैंड के लिए अनुच्छेद 371ए और मिजोरम के लिए 371जी जैसे विशेष संवैधानिक प्रावधान के तहत कई मामलों में विशेष शक्ति दी गयी। इसमें धार्मिक या सामाजिक परम्पराएं, स्थानीय समुदाय के प्रथागत कानून और प्रचलन, नागरिक और आपराधिक न्याय के प्रशासन से संबंधित मामलों और भूमि व उसके संसाधनों का स्वामित्व तय करने का अधिकार दिया गया। यदि वे चाहें तो उनकी विधान सभाएं राज्य के कानूनों के माध्यम से 73वें संशोधन के प्रावधानों को लागू कर सकती थीं; लेकिन उन्होंने नहीं किया। उन्होंने बदलावों के साथ अपनी स्थानीय पारंपरिक शासन प्रणाली को प्राथमिकता दी।

नागालैंड में प्रत्येक जनजाति, क्षेत्र परिषद, रेंज परिषद और ग्राम परिषद के लिए आदिवासी परिषद है। नागालैंड में 16 जनजातियां अपने विविध पारंपरिक स्व-शासन प्रणालियों के माध्यम से शासित एक अलग क्षेत्र में रहती हैं। स्कूली शिक्षा, प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल और बिजली सेवाओं के रूप में कई सार्वजनिक सेवाएं ग्राम अधिकारियों के नियंत्रण में हैं। मिजोरम ने भी वंशानुगत सरदारों की पुरानी परंपराओं की जगह ग्राम परिषदों का चुनाव किया है।

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छठी अनुसूची के क्षेत्रों में भी इसी तरह की व्यवस्था मौजूद है, जहां आदिवासी आबादी बड़ी तादाद में रहती है। अक्सर इन्हें एक राज्य के भीतर एक राज्य की उपमा दी जाती है। छठी अनुसूची जिला या क्षेत्रीय परिषदों को कई विषयों पर विधायी, कार्यकारी और न्यायिक शक्तियां प्रदान करती है। इसमें भूमि पर नियंत्रण शामिल है, लेकिन आरक्षित वनों को शामिल नहीं किया गया है और किसी भी गांव या शहर के निवासियों के हितों को बढ़ावा देने वाले किसी भी उद्देश्य के लिए भूमि आवंटन, उस पर कब्जा या उपयोग, या उसे अलग करना शामिल है। छठी अनुसूची का क्षेत्र देश में 0.6 प्रतिशत आबादी और 4.2 प्रतिशत अनुसूचित जनजातियों के साथ देश के 1.7 प्रतिशत क्षेत्रफल को कवर करता है। ऐसे क्षेत्र में असम (21 जिलों में से छह), मेघालय (शिलांग की नगर पालिका और छावनी को छोडक़र), त्रिपुरा (राज्य का लगभग 68 प्रतिशत) और मिजोरम के तीन जिले शामिल हैं। जंगल से वनोपज इक_ा कर हाट में बेचने ले जाती छत्तीसगढ़ की आदिवासी महिलाएं। वन संपदा पर आदिवासियों के अधिकार सुरक्षित रखने में पेसा कानून के तहत ग्राम सभा को शक्तियां प्रदान की गई हैं।

नतीजतन, 16,096 पारंपरिक निकायों को आधिकारिक तौर पर अंडमान और निकोबार द्वीप समूह (201), असम (469), मणिपुर (3,657), मेघालय (9,017), मिजोरम (834), नागालैंड (1,289), त्रिपुरा (628) और पश्चिम बंगाल (1) में शासन करने वाले प्राधिकरण का दर्जा हासिल है।

(क्रमश:)
(मोंगाबे से साभार)

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