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पंचायतें विकास या शासन

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पंचायती राज की सीमित प्रभावशीलता का एक बड़ा कारण यह रहा है कि हमेशा उन्हें ‘विकास’ की इकाई माना गया न कि ‘शासन’ की – स्थानीय स्वशासन की। संविधान के अनुच्छेद 243 जी (अ) और (ब) में पंचायतों के जितने भी कार्य बताए गए हैं वे सब विकासमूलक हैं। फिर आजादी के इतने वर्षों में हमें याद आना चाहिए कि महात्मा गांधी ने आजादी को ‘स्वराज’ के रूप में परिभाषित किया था। यह ‘स्वराज’ प्रथम पीढ़ी की उन नेहरू युगीन पंचायतों से संभव नहीं हुआ जिन्हें बलवंत राय मेहता कमेटी की रिपोर्ट के बाद ‘विकास के एजेंट’ के रूप में गठित किया गया था। यह ‘स्वराज’ द्वितीय पीढ़ी की उन पंचायतों से भी नहीं आया जो अशोक मेहता समिति की रिपोर्ट के बाद ‘एक राजनीतिक संगठन’ के रूप में पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश और जम्मू कश्मीर आदि राज्यों में पनपीं- सन् 1978 के बाद। अब क्या संविधान – संशोधन के बाद आई तीसरी पीढ़ी की ये पंचायतें स्वराज की इकाई बन सकेंगी? अशोक मेहता समिति ने सबसे पहले अधिकृत रूप से पंचायतों को सांविधानिक दर्जा दिलाने की अनुशंसा की थी, लेकिन यह श्रेय एक युवा प्रधानमंत्री को ही मिलना था कि वह उस वृद्ध महात्मा के इस सबसे प्रिय स्वप्न को कोई इबारत दे पाता। किंतु ‘विकास’ की भूतग्रस्तता का दुष्परिणाम यह हुआ है कि ये पंचायतें स्थानीय सरकार की अपनी हैसियत मूलक सिर्फ ऊपर से आने वाली विकास राशि को ठिकाने लगाने की सोचती रही हैं। यह बात मुकर्जी और बंधोपाध्याय ने पश्चिम बंगाल की नई पंचायतों के बारे में भी महसूस की कि पंचायतों की शक्ति चुक गई है और उनका प्रारंभिक उत्साह भी ठंडा पडऩे लगा है। उनके शब्दों में इसका कारण यह है कि The Panchayats in West Bengal had not been conceived as institutions of self-government and they were utilised as mere agencies to implement schemes hands down from above.
जिस गांधीवादी विचारधारा ने स्वशासन पर जोर दिया था, वह नई पंचायतों में इसलिये नहीं दिख पड़ता क्योंकि विकास की ‘पूंजी’ ने नीचे से सत्ता का अंग बनने की स्वप्नशीलता का गला घोंट दिया है। एक सुविधा का संतुलन मध्यप्रदेश में स्थापित हुआ है जिसके अंतर्गत स्वशासन की बुनियादी भूख को प्रत्यायोजित पैसे के ‘कोरामिनÓ से संतुष्ट किया जा रहा है। सरपंच को यह सुहाता है कि उसे शासन का उत्तरदायित्व निभाने की जद्दोजहद की बजाय एक ‘वक्र्स विभागÓ की तरह बरता जा रहा है। किसी स्तर पर ऊपरी राजनीतिक शक्तियों की याचना की पंचायती मुद्रा एक मनोवैज्ञानिक तुष्टि देती है, इसलिए कोई भी बहुत असंतुष्ट नहीं। दासगुप्ता जैसे विद्वान तब जब पश्चिम बंगाल की वर्तमान पंचायतों की चकाचौंध में समानता और जनता के सिद्धांतों पर आधारित पारंपरिक पंचायतों के वर्णन को ‘नास्टेल्जिक रोमांटिसिज्म’ मानने लगे और एकता सर्वानुमति वाले ग्रामीण समाज को यूरोपियन, तो समझा जा सकता है कि द्वंदात्मक भौतिकवादी विश्लेषण की सीमाएं कहां और क्या हैं। लेकिन स्वशासकन हिंदुस्तान में घटा एक व्यतीत है, वह सिर्फ यूटोपिया नहीं है और पंचायतों की सार्थकता ‘लोकल सेल्फ गवर्नमेंट’ के रूप में ही अंतिमत: तय होनी है, न कि पंचायत भवन -रोड-नाली बनाने के लिये अधिकृत एक संस्था के रूप में। सर्वानुमति और समानता यूटोपियन आदर्श नहीं हो सकते यदि पंचायतें सूचना के अधिकार को हर ग्रामीण का मौलिक अधिकार बनाती हैं। एक विकीर्णित (staggered) प्रजातांत्रिक प्रणाली जो कुछ ऐसे व्यक्तियों को नेता चुनता है जो व्यवस्था के संचालन में ब्रोकर या दलाल है, पंचायतों को इस हेतु सक्षम नहीं बना सकती कि वे लोगों को आत्मनिर्णय के लिये शिक्षित बनाएंगी। बैरिंगनट मूर को भारत का पंचायती ‘पुनरुत्थान (रिवाइवल) इसलिए प्रमुख रूप से ‘रोमांटिक रहैटारिक’ लगता है। इस विकीर्णित प्रजातांत्रिक प्रणाली के चलते ग्राम पंचायतों में वे लोग चुनकर ही नहीं आ पाते जिन्हें ‘आर्गेनिक इंटेलेक्चुअल कहा जाता है- कबीर जैसे लोग, दादू, रैदास, पीपा, धन्ना जैसे जो समाज के दरिद्रतम वर्गों में से आते हैं।
ब्रोकर शैली के लोगों से वह समाजोन्मुक्ति संभव ही नहीं है जो गांधी जी का मूल मन्तव्य था। क्योंकि इस शैली में तो बहुत कुछ संगोपन, बहुत कुछ छुपाना है। इसके चलते पंचायतों में कमजोरों का प्रतिनिधित्व तो हो जाता है, कमजोरों का नियंत्रण नहीं और ये कमजोर वहां अपने ही वर्गों के शोषण के समर्थन पर अनपढ़ अंगूठे भी लगा देते हैं। तब यह हो सकता है कि जिला पंचायत अध्यक्ष के गांव में ही एक आधा करोड़ रु. के काम स्वीकृत हो जाएं। तब यह हो सकता है कि गांव में सड़क सरपंच के घर को मुख्य सड़क से जोडऩे के लिये बने।
ये उदाहरण ब्रोकर किस्म के चलते पुर्जे लोगों के हैं। इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि मध्यप्रदेश की पंचायती राज प्रणाली में बस ये ही लोग हैं। लेकिन जो अच्छे उदाहरण भी हैं उनमें तक जे.आर. वाय. फिक्सेशन (व्यामोह) देखकर दुख होता है। बिहार ने इस व्यामोह को कम करने के लिये किस्तों का बुखार उतारा है। वहां 1997-98 से जवाहर रोजगार योजना की समूची राशि वर्ष में एक ही बार भेजने का निर्णय लिया गया है। वैसा म.प्र. में तो हुआ नहीं, जो हुआ उससे कई जगह पंचायतें ‘स्थानीय सरकार की जगह छोटी सरकार नजर आती हैं।
यदि म.प्र. के 1998 के बजट सत्र में राज्यपाल के अभिभाषण में पंचायतों को दिए जा चुके समस्त स्त्रोतों को संकलित कर प्रति पंचायत औसत निकालें तो करीबन एक लाख छब्बीस हजार रु. का परिव्यय आता है। यह अनुदान भी एक बहुत पंच-पक्षधर सरकार के कारण है। लेकिन मात्र सवा लाख रुपये में क्या पिद्दी क्या पिद्दी का शोरबा? रास्को मार्टिन ने 1957 में ऐसी छोटी सरकारों को नौसीखिया (अमेच्योर), चलताऊ (कैजुअल), अत्यंत व्यक्तिगत यहां तक कि मिल्कियती (प्रोप्रायटरी) सरकारें कहा था। (ग्रासरूट्स 1957)

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