संपादकीय (Editorial)

मोदी सरकार के 4 बरस – बताओ, कैसे लिख दूं…

केन्द्र में मोदी सरकार के 4 वर्ष पूरा होने पर क्या खोया क्या पाया की तर्ज पर विभिन्न स्तरों पर कवायद हो रही है और आगे भी होगी। केंद्र सरकार ने अपने 4 वर्ष के कार्यकाल में खेती-किसानी की स्थिति को बेहतर बनाया है या हालात पहले से बदतर हुए हैं।
इन बीते वर्षों में मानसून ने कमोबेश सरकार का साथ दिया और खाद्यान्न उत्पादन के मामले में साल-दर साल रिकॉर्ड बनाया। खाद्यान्न उत्पादन के मामले में देश खरीफ-रबी मिलाकर लगभग 28 करोड़ टन का आंकड़ा छूने लगा। दलहन उत्पादन में भी पिछले साल की तुलना में अच्छी बढ़ौत्री हुई।
पर किसानों की आमदनी दूनी होने की कोई राह नहीं दिखी। फसलों की लागत कम करने का कोई प्रभावी तरीका सरकार नहीं बता पाई। खेती के साथ-साथ पशुपालन, मुर्गीपालन और अन्य सहयोगी धंधे शुरू कर किसानों की आमदनी बढ़ाने का जबानी जमा खर्च तो हुआ, पर कोई ठोस नीति जमीन पर उतर कर ‘गंगाराम’ के खेत तक नहीं पहुंची।

केन्द्रीय कृषि मंत्री राधामोहन सिंह 
पिछले दिनों राज्यसभा में 

52 प्रतिशत किसान परिवार कर्जदार

47 हजार रु. का कर्ज हर किसान परिवार पर

36 हजार किसानों ने आत्महत्या की (2014-16)

स्वयं कृषि मंत्री जब राज्यसभा में देश को किसानों की बदहाल स्थिति बताते हैं तो मोदी सरकार के 4 साल में हम कैसे लिख दें कि खेती किसानी के भी अच्छे दिन आ गए हैं।

प्रधानमंत्री और कृषि मंत्री लाख ताली पीट कर, चुटकी बजाकर किसानों की बेहतरी के काम गिनाते रहें पर हालात ठीक नहीं है। सरकार के ही आंकड़ों के मुताबिक हर आधे घंटे में एक किसान भाई इन परिस्थितियों के चलते निराश होकर अपने प्राण ले रहा है। अनेक राज्यों में किसान आंदोलन उफान पर है। मध्यप्रदेश में शिवराज सरकार को चुनावी वर्ष में इस दरकते, खिसकते वोट बैंक को साधने में पसीना आ रहा है। केंद्र में एक ही व्यक्ति चार वर्षों से कृषि मंत्रालय का जिम्मा अंगद के पांव की तरह संभाले हैं। वहीं किसानों की आत्महत्या जैसे संवेदनशील मसले पर उनकी सफाई दयनीय और थानेदार जैसी होती है। जिसमें वो प्रेम-प्रसंग, संपत्ति का झगड़ा, संतान न होना गिनाते हैं।
फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य हर साल बड़ी दरियादिली से बढ़ाया जाता हैं पर खरीद की सही व्यवस्था नहीं होती है। फसलों के बंपर उत्पादन के कारण सभी फसलों के दाम न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से भी नीचे हैं। किसानों को उनकी उपज की लाभकारी कीमत छोडि़ए तय मूल्य ही नहीं मिल पा रहा है। करीब-करीब सभी फसलों की कीमत एमएसपी से 10-20 प्रतिशत नीचे है।
एक सर्वेक्षण के मुताबिक रोजाना 5 से 6 किसान खेती किसानी छोड़ रहे हैं। 2001 में देश में किसानों की संख्या 10.3 करोड़ थी, जो वर्ष 2011 में घटकर 9.58 करोड़ हो गई और आज की स्थिति में 9 करोड़ तक सिमट कर रह गई है।
इन चार वर्षों में सरकार की मंशा नेक होगी, प्रधानमंत्री ईमानदार होंगे, पर जो नीतियां बनाई गई हैं, उनसे किसान संतुष्ट नहीं है। मोदी सरकार ने इन 4 वर्षों में खेती-किसानी की हालत सुधारने के लिये कई अहम काम शुरू किए होंगे, लेकिन मैदानी हकीकत कुछ अलग तस्वीर दिखाती है, जो सरकार की नाकामी बताती है। बकौल जनाब अदम गोंडवी ने इन्हीं परिस्थितियों को देखते हुए कई वर्षों पूर्व लिखा था जो आज भी मौजू है-
घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है।
बताओ कैसे लिख दूं, धूप फागुन की नशीली है।।

Advertisements

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *