गेहूं की एसडब्ल्यूआई तकनीक से खेती
- डॉ. विशाल मेश्राम ,डॉ. आर. पी. अहिरवार
डॉ. प्रणय भारती, कृषि विज्ञान केंद्र, मंडला
25 अक्टूबर 2021, गेहूं की एसडब्ल्यूआई तकनीक से खेती – यह विधि एक न्यूनतम विधि है जो धान की ‘श्री‘ (एसआरआई) या मेडागास्कर पद्धति के समान ही है इस विधि में कम सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है, प्रति पौधा कल्लों की संख्या अधिक होती है, फसल गिरने की संभावना बहुत कम रहती है प्रति पौधा दाने वाली बालियों की संख्या अधिक होती है दानों का आकार मोटा व बड़ा होता है अनाज व भूसे का उत्पादन अधिक होता है। देश में रबी फसलों में प्रमुख अनाज वाली फसलों में गेहंू का प्रथम स्थान है, गेहूं के उत्पादन बढ़ाने हेतु कई किस्मों जैसे जे.डब्ल्यू. 3288, 3211, 3173, 273, एचआई 8759 (पूसा तेजस), एमपी 4010, राज-3765 आदि का विकास हो चुका है साथ ही नए खरपतवारनाशी व कीटनाशियों का विकास हो चुका है परन्तु फिर भी गेहूं उत्पादकता एक निश्चित सीमा तक ही बढ़ी है अत: आवश्यकता है ऐसी तकनीक की जिसके द्वारा न्यूनतम लागत में अधिकतम उत्पादन प्राप्त किया जा सके।
एसडब्ल्यूआई की विशेषताएं
कम बीज की आवश्यकता- पंक्ति से पंक्ति व बीज से बीज की दूरी अधिक होने तथा एक स्थान पर होने तक या दो बीज बोने पर बीज की खपत कम होती है।
कम पानी की आवश्यकता- खेत को समतल करने एवं जैविक खादों का प्रयोग करने पर खेत में सभी जगह नमी एक समान व अधिक समय तक बनी रहने से प्रति सिंचाई हेतु पानी की कम मात्रा लगती है।
अधिक दूरी पर बीज बुवाई (या पौध रोपण)- बीज से बीज (पौध से पौध) पंक्ति से पंक्ति की दूरी कम से कम 8 इंच (20 से.मी.) होने से सूर्य का प्रकाश प्रत्येक पौधे तक आसानी से पहुंचता है जिससे पौधे में पानी, स्थान एवं पोषक तत्वों के लिये प्रतिस्पर्धा नहीं होती पौधे की जड़ें ठीक ढंग से फैलती है और पौधे को ज्यादा पोषक तत्व प्राप्त होते हैं जिससे पौधों में जड़ें व नए कल्ले अधिक संख्या व कम समय में निकलते हैं।
खरपतवार को मिट्टी में मिलाना- इस विधि में वीडर की मदद से निराई-गुुड़ाई की जाती है जिससे खरपतवार मिट्टी में मिला दिये जाते हैं जो बाद में खाद में बदलकर पौधे के लिये पोषण का काम करते हैं इससे पौधे एवं जड़ों का विकास अच्छा होता है।
जैविक खाद का प्रयोग- जैविक खाद के प्रयोग से भूमि में सूक्ष्म जीवाणुओं की संख्या में वृद्धि होती है जो कार्बनिक पदार्थो को पोषक तत्वों में बदलने में मदद करते है इससे मिट्टी की भौतिक संरचना एवं गुणवत्ता सुधरती है।
एसडब्ल्यूआई विधि के चरण
भूमि का चयन- गेहूं की खेती के लिये समुचित जल निकास वाली दोमट मिट्टी तथा मटियार दोमट भूमि अनुकूल होती है गेहूं के अच्छे उत्पादन के लिये 6-7.5 पी.एच. मान की भूमि सर्वोत्तम मानी जाती है गेहूं की खेती जिस भूमि में की जाय वह समुचित उर्वर हो।
भूमि का समतलीकरण
गेहूं की खेती के लिये खेत एक समान समतल होना आवश्यक है। इससे खेत में एक समान रूप से पानी व खाद सभी पौधों को मिल जाते हैं तथा पौधों का विकास भी अवरूद्ध नहीं होता है। अगर खेत अधिक ढलान, विशेषकर पहाड़ी क्षेत्रों में, वाली है तो उनको छोटे-छोटे हिस्सों में विभाजित कर समतल कर ले।
भूमि की गुणवत्ता में वृद्धि – एस.डब्ल्यू.आई. विधि में जैविक तरीके से खेती करने का मुख्य उद्देश्य भूमि की उत्पादकता, गुणवत्ता व भौतिक संरचना सुधारने के साथ-साथ फसल का उत्पादन बढ़ाना है। इसके लिये सर्वप्रथम मृदा की जांच करान अति आवश्यक है।
जैविक खाद- जैविक खाद के उपयोग से भूमि में जीवाणुओं की संख्या एवं सक्रियता में वृद्धि होती है। इसके लिये कम्पोस्ट खाद 8-10 टन प्रति हेक्टर, वर्मी कम्पोस्ट खाद, हरी खाद, अन्य जैविक खादों का उपयोग किया जाता है। इनके अलावा कुछ तरल खाद जैसे पंचगब्य, अमृत जल, अमृत पानी और मटका खाद जो बुवाई पूर्व तथा फसल में गुड़ाई के साथ क्रमश: डालें और पौधों का विकास भी अच्छी प्रकार से होता है।
बुवाई का समय- गेहूं सघनीकरण विधि में अच्छी पैदावार लेने के लिये सही समय से बुवाई करनी आवश्यक है। देर से बुवाई करने पर उत्पादन में कमी आती है, इसलिये एसडब्ल्यूआई विधि में किसानों को सलाह दी जाती है कि वे अपनी गेहूं की फसल को सही समय से बोने का प्रयास करें।
बीज का चुनाव- बुवाई हेतु बीज का चुनाव तात्कालिक परिस्थितियों के अनुरूप सिंचित-असिंचित किया जाना चाहिये। बीज स्वस्थ हो तथा उसमें अक्रिय पदार्थ, खरपतवार के बीज एवं अन्य फसलों के बीज नहीं हो। इसके लिये सर्वप्रथम सूप या छन्नी से अनावश्यक पदार्थों, वस्तुओं को अलग कर लें, इसके बाद चौड़ेे मुंह के बर्तन में बीज को पानी में डुबोयें जो बीज ऊपर तैरने लगे उनको बाहर निकाल दें। यह प्रक्रिया तब तक दोहरायें जब तक बीज ऊपर तैरने बंद न हों और केवल उन्हीं बीजों का चयन करें जो पानी में नीचे बैठ जायें।
बीज उपचार- बीज को रोग रहित करने हेतु बीज को उपचार करें क्योंकि रोगग्रस्त बीज बोने पर होने वाली बीमारियों का उपचार बाद में संभव नहीं है। जवाहर जैव उर्वरक जैसे – एजोटोबैक्टर, पी.एस.बी. एवं जैव कारकों जैसे स्यूडोमोनास ट्राइकोडर्मा से बीज अवश्य उपचारित करें प्रत्येक की 20-20 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज से उपचारित करें। यह प्रक्रिया बुवाई के पूर्व कर लें।
बुवाई के समय खेत की तैयारी – मिट्टी को अच्छी भुरभुरी बनाने हेतु खेत की दो से तीन जुताई करके पाटा लगायें, जिससे खेत में ढेले न रहें और खरपतवार कट कर मिट्टी में मिल जाएं। जहां पर पानी की सुविधा है वहां पर बीज बुआई से 10 से 15 दिन पूर्व खेत में एक सिंचाई कर दें, जिसको आम भाषा में किसान पलेवा करना कहते हैं। इसके करने से खेत में खरपतवार शीघ्र उग आते हैं, जिनको बुवाई से पूर्व जुताई के माध्यम से मिट्टी में मिला दें।
बीज की मात्रा – एस.डब्ल्यू.आई. विधि में बीज की मात्रा अपनायी गई बीज से बीज व लाईन से लाईन की दूरी पर निर्भर करती है। किसानों के यहां किये गये विभिन्न प्रयोगों के आधार पर पाया गया कि
इस विधि में बीज से बीज एवं लाईन से लाईन एवं एक स्थान पर बोये गये दानों की संख्या के अनुसार बीज की मात्रा निम्न प्रकार है-
- 8×8 इंच की दूरी एक स्थान पर दो बीज: 15-20 किलोग्राम प्रति हेक्टर
- 8×8 इंच की दूरी एक स्थान पर दो बीज: 8-12 किलोग्राम प्रति हेक्टर
- 10×10 इंच की दूरी एक स्थान पर दो बीज: 10-12 किलोग्राम प्रति हेक्टर
- 10×10 इंच की दूरी एक स्थान पर दो बीज: 6-8 किलोग्राम प्रति हेक्टर
जिन क्षेत्रों में किसान छिटकवां विधि से खेती करते हैं वहां पर एस.डब्ल्यू.आई. विधि के अंतर्गत सर्वप्रथम लाईनों में कम बीज की मात्रा के साथ बुवाई करने की सलाह दी जाती है व लाईन से लाईन की दूरी 8-10 इंच रखते हैं। इसमें किसानों को 30 से 40 प्रतिशत कम बीज की आवश्यकता होती है।
बीज बोने की विधि- किसान प्राय: छिटकवां विधि से बीज बोते हैं। इससे बीज अधिक लगता है तथा निराई गुड़ाई में कठिनाई आती है तथा पैदावार भी कम होती है। इसलिये इस विधि में दो प्रकार से गेहूं की खेती करने की सलाह दी जाती है।
सीधे बीज बुवाई द्वारा गेहूं की खेती – इस विधि में बीज की बुवाई दो प्रकार से की जाती है। प्रथम सीधे लाईनों में, विशेषकर जहां किसान छिटकवां विधि से बुवाई करते हैं, कम बीज डालकर बुवाई की जाती है। इसके लिये किसान हल या सीड ड्रिल का उपयोग कर सकते हैं। दूसरे तरीके में बीज से बीज एवं लाईन से लाईन की निश्चित दूरी पर एक या दो बीज की बुवाई की जाती है, इसके लिये किसान एस.डब्ल्यू.आई. विधि के अुनरूप निर्मित सीड ड्रील या अन्य मार्किग यंत्रों का उपयोग कर सकते हैं।
पौध रोपण द्वारा गेहूं की खेती – इस विधि में गेहूं की पौध तैयार करने के लिये नर्सरी बनाने में बहुत सावधानी बरतेें। नर्सरी की क्यारी बनाते समय इस बात का ध्यान रखें कि क्यारी खेत के कोने में बनाई जायें, जहां पौध रोपण करना है। क्यारी की चौड़ाई 50 इंच लगभग 4 फीट से ज्यादा नहीं हो। नर्सरी में मिट्टी व कम्पोस्ट खाद का अनुपात 3:1 रखते हैं। नर्सरी में बीज बुवाई के उपरांत मल्चिंग की जाती है जिसको 6 से 8 दिन के उपरांत हटा दिया जाता है। तैयार खेत, निशान 8-10 इंच पर मार्कर द्वारा लगाायें, में नर्सरी से निकाले गये दो से तीन पत्ती 15-18 दिन वाले पौधों एक या दो पौधे का रोपण जड़ों को बिना नुकसान पहुंचायें उपरोक्त दूरी पर करते हैं। पौध रोपण के उपरांत पौधों को मिट्टी से हल्के से दबा दें। रोपण के समय वर्मी कम्पोस्ट खाद का उपयोग बहुत लाभदायक रहता है। पौध रोपण के बाद हल्की सिंचाई आवश्यक है।
पौध रोपण करते समय सावधानियां- रोपाई से पहले पौधों को अलग-अलग कर लें। नर्सरी से निकाले गए पौधों की जड़ों को नुकसान पहुंचाए बिना एवं जड़ों को सीधे रूप में ही रोपें।
खरपतवार नियंत्रण- गेहूं का अच्छा उत्पादन प्राप्त करने के लिये आवश्यक है कि खेत में खरपतवार व अन्य फसलों के पौधे न हों। खरपतवार के पौधे न केवल मुख्य फसल को दिये गए खाद एवं पानी का उपयोग करते हैं बल्कि प्रकाश, वायु व स्थान हेतु फसल के साथ प्रतियोगिता करके उत्पादन को घटा देते हैं। उत्पादन की यह कमी विभिन्न अवस्थाओं में 15-30 प्रतिशत तक हो जाती है। अगर गेहूं के खेत में 2 से 3 गुराई विशेषकर वीडर से कर दी जाए तो गेहूं की जड़ों को प्रकाश, हवा उचित मात्रा में पोषक तत्व मिला जाते हैं एवं उत्पादन में अधिक बढ़ोत्तरी होती है। अत: अच्छा उत्पादन लेने के लिये कम से कम 3 बार वीडर से गुड़ाई करना जरूरी है और प्रत्येक निराई-गुड़ाई के बाद क्रमश: पंचगव्य, अमृत घोल तथा मटका खाद का प्रयोग करना बहुत लाभप्रद होता है।
सिंचाई एवं जल प्रबंध- वीडर चलाते समय हल्का पानी अवश्य हो ताकि वीडर आसानी से चलाया जा सके व खरपतवार मिट्टी में दब कर सड़-गल कर खाद का काम कर सकें। प्रयोगों के आधार पर पाया गया है कि गेहूं सघनीकरण विधि द्वारा की गई खेती में 3 सें 4 सिंचाई ही पर्याप्त है।
कल्लों का निकलना- 25 से 50 दिन के बीच गेहूं के पौधों में सबसे ज्यादा कल्ले निकलते हैं, क्योंकि इस समय पौधों को धूप, हवा व पानी पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं। अनुभवों के आधार पर यह पाया गया है कि जहां एक बार वीडर द्वारा गुड़ाई की गई वहां औसतन कल्लों की संख्या 8-12 तक निकले, जहां दो बार वीडर द्वारा गुड़ाई की वहां अधिकतम 15-20 तक व तीसरी बार गुड़ाई करने में 20-25 से अधिक कल्ले निकले हैं।
रोग एवं कीटों का जैविक नियंत्रण- इस विधि में पौधों के बीच अधिक फासला होने के कारण सूर्य का प्रकाश व हवा उचित मात्रा में पौधों को मिलते हैं जिससे पौधे अधिक स्वस्थ होते हैं तथा उन पर कीट व रोगों का प्रभाव कम होता है उसके बाद भी अगर रोग व कीट लगते हैं तो उनका निदान जैविक पद्धति द्वारा ही किया जाता है।
कटाई- इस विधि द्वारा खेत में समय से बीज की बुवाई करने पर फसल भी समय से पकती है। गेहूं की फसल को पकने के शीघ्र बाद ही कटाई कर लें। जबकि जड़ों का विकास अच्छे से होने के कारण पौधा पकते समय भी हल्का हरा सा दिखाई देता है। कटाई का सर्वोत्तम समय वह है जब दानों में 20-25 प्रतिशत नमी विद्यमान हो।
उपज- परम्परागत विधि की अपेक्षा गेहूं की सघनीकरण विधि में अनाज का उत्पादन लगभग डेढ़ से दो गुना तक अधिक होता है। प्रयोगों के आधार पर पाया गया कि परम्परागत विधि से अनाज 25-30 क्विंटल व भूसा 40-50 क्विंटल प्राप्त हुआ जबकि सघनीकरण विधि से बुवाई करने पर अनाज 55-60 क्विंटल व 75-80 क्विंटल भूसा एवं लाईन से लाईन बुवाई करने पर 50-55 क्विंटल अनाज व 80-85 क्विंटल भूसा प्राप्त हुआ जबकि पौधरोपण से 70-75 क्विंटल अनाज व भूसा 100-105 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त हुआ।