Crop Cultivation (फसल की खेती)

भारतवर्ष में पीड़कनाशकों का उपयोग : एक पुनरावलोकन

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  • डॉ. संदीप शर्मा,
    कीटशा, (से.नि.), भोपाल,
    sharma.sandeep1410@gmail.com
    Mob.: 9303133157

22 नवंबर  2021, भोपाल । भारतवर्ष में पीड़कनाशकों का उपयोग : एक पुनरावलोकनकृषि का प्रारम्भ दस हजार वर्ष पूर्व का माना जाता है। जबसे कृषि का प्रारम्भ हुआ है तभी से फसलों के विभिन्न पीडक़ों और मानव के मध्य लड़ाई निरंतर जारी है क्योंकि दोनों पक्षों की फसलों में एक समान रूचि है। संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुमान के अनुसार विकासशील देशों में विभिन्न पीडक़ों जैसे कीट, पादप रोग, खरपतवार, सूत्रकृमि आदि के द्वारा लगभग चालीस प्रतिशत की हानि खड़ी फसलों में तथा पाँच से सात प्रतिशत की हानि कटाई उपरांत पहुँचाई जाती है। अफ्रीका और एशियाई देशों में यह हानि लगभग पचास प्रतिशत तक हो सकती है। अनेक वैज्ञानिकों द्वारा पीडक़ों से फसल हानि का अनुमान एक तिहाई से आधी उपज तक लगाया गया है।

प्रतिष्ठित शोध पत्रिका ‘नेचर, ईकॉलॉजी एंड ईवोल्यूशन’ में सेवरी एवं सहयोगियों द्वारा वर्ष 2019 में प्रकाशित शोध पत्र के अनुसार वैश्विक स्तर पर विभिन्न पीडक़ों के द्वारा गेहूं की फसल में 10 से 28 प्रतिशत, धान में 25 से 41प्रतिशत, मक्का में 20 से 41 प्रतिशत, आलू में 8 से 21 प्रतिशत तथा सोयाबीन में 11 से 32 प्रतिशत की हानि की जाती है। एक अन्य वैज्ञानिक ओर्की (2006) कहते हैं कि वर्ष 2001 से 2003 के दौरान सम्पूर्ण विश्व में विभिन्न फसलों में पीड़क़ों के द्वारा 32 प्रतिशत की हानि अनुमानित है, और विगत चार दशकों में पौध संरक्षण उपायों के विकसित होने तथा पीडक़नाशियों के उपयोग में 15-20 गुना वृद्धि के उपरांत भी पीडक़ों द्वारा की जाने वाली हानि में कोई सार्थक गिरावट नहीं हुई है। उक्त हानि के कारणों में मौसम परिवर्तन की महत्वपूर्ण भूमिका है। तापमान वृद्धि के कारण अनेक कीटों जैसे अफ्रीकन फॉल आर्मीवर्म, फल मक्खी आदि पीडक़ कीटों के आक्रमण क्षेत्रों में विस्तार हुआ है। उदाहरणार्थ वर्ष 2018 में फॉल आर्मीवर्म कीट व्यापारिक मार्गों से अमेरिका से अफ्रीका के रास्ते भारत के कर्नाटक राज्य में मक्का की फसल पर प्रथम बार देखा गया और अब यह कीट भारतवर्ष के लगभग 20 राज्यों में फैल चुका है। इसी प्रकार बढ़ते वैश्विक पर्यटन और व्यापार के कारण पादप रोगों का फैलाव हुआ है। बदलते मौसम तथा वैश्विक तापमान वृद्धि के कारण मरूस्थली टिड्डी पर भी प्रभाव पडऩे की आशंका वैज्ञानिकों ने बताई है। तापमान वृद्धि से इस हानिकारक बहुभक्षी पीडक़ कीट के प्रजनन स्थल तथा टिड्डी दल के निर्धारित भौगोलिक मार्ग में भी परिवर्तन का अंदेशा है।

उपज में 35 प्रतिशत की कमी

हमारे देश में भी कृषि फसलों में पीडक़ों द्वारा की जाने वाली क्षति का आकलन किया गया है। पंजाब के कृषि वैज्ञानिक डॉ. अटवाल के अनुसार देश में कृषि फसलों में पीडक़ कीटों द्वारा वर्ष 1983 में रू. 6000 करोड़ की हानि नब्बे के दशक के प्रारम्भिक वर्षों में बढक़र रू. 29000 करोड़ तक हो गई। वर्ष 2017 में राष्ट्रीय समाचार पत्र ‘द हिंदू’ में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के तत्कालीन सहायक महानिदेशक (पौध संरक्षण) डॉ. पी.के. चक्रवर्ती के प्रकाशित कथन के अनुसार पीडक़ों के कारण भारतीय कृषि फसलों की उपज में 35 प्रतिशत की हानि होती है, जिसमें 10 से 12 प्रतिशत की हिस्सेदारी सूत्रकृमियों की है। भारत सरकार के कृषि मंत्री कहते हैं कि वर्ष 2019 और 2021 की अवधि में देश के विभिन्न राज्यों विशेषत: राजस्थान, गुजरात, पंजाब, उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र आदि में मरूस्थली टिड्डी दल के आक्रमण से लगभग दो लाख हेक्टर में फसलों को क्षति हुई तथा सन् 1950 के बाद वर्ष 2020 में नवम्बर माह के बाद टिड्डीदल की सक्रियता देखी गई। विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुसार सुपर सायक्लोन ‘अम्फान’ के प्रभाव के कारण उक्त टिड्डीदल का आक्रमण हुआ। इस कीट के नियंत्रण के भारतवर्ष में प्रथम बार ड्रोन का उपयोग किया गया।

खाद्य पदार्थ, पशुचारा, कपास, जैव ईंधन तथा अन्य जैव आधारित पदार्थों की पूर्ति कृषि के द्वारा ही की जाती है। विश्व के विकासशील देशों में निरंतर बढ़ती जनसंख्या और उनमें खान-पान की बदलती आदतों के कारण खाद्य तथा पोषण आपूर्ति एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। हाल ही के वर्षों में जनसामान्य का रूझान मांस और डेयरी जैसे उच्च गुणवत्ता वाले खाद्य पदार्थों के प्रति अधिक हो गया है। एक अनुमान के अनुसार बीसवीं शताब्दी में वैश्विक जनसंख्या एक अरब पैंसठ करोड़ से बढक़र सात अरब सत्तर करोड़ तक हो गई, जो कि सन् 2030 तक साढ़े आठ अरब, सन् 2050 तक नौ अरब सत्तर करोड़ तथा सन् 2100 तक दस अरब नब्बे करोड़ तक होने की सम्भावना है। इस निरंतर बढ़ती जनसंख्या की खाद्य आपूर्ति घटते प्राकृतिक स्त्रोतों और बदलते पर्यावरण के चलते कराना एक चिंतनीय विषय है। इसके समाधान के लिये जहाँ एक ओर फसलों की उत्पादकता बढ़ाना आवश्यक है वहीं दूसरी ओर फसलों में विभिन्न पीडक़ों द्वारा की जाने वाली हानि को कम करना भी अति आवश्यक एवं वर्तमान समय की मांग है। विख्यात कृषि वैज्ञानिक नॉर्मन ई. बोरलॉग ने वर्ष 1972 में कहा था कि यदि हम कृषि में रसायनिक पीडक़नाशियों का उपयोग पूर्णत: प्रतिबंधित करते हैं तो वर्तमान फसल उत्पादन लगभग आधा रह जायेगा और अनाजों के मूल्यों में चार से पाँच गुना वृद्धि सम्भावित है।

कृषि फसलों की उत्पादकता वृद्धि में पीडक़नाशकों की महत्वपूर्ण भूमिका है, परंतु इनके अविवेकपूर्ण और अनुचित उपयोग के अनेक दुष्प्रभाव भी हैं। पर्यावरण प्रदूषण, मानव और पशुओं के स्वास्थ पर विपरीत प्रभाव के साथ ये पीडक़ों के प्राकृतिक शत्रुओं की संख्या और गतिविधियों को व्यापक रूप से प्रभावित करते हैं। गिल एवं गर्ग (2014) के अध्ययन के अनुसार लक्षित पीडक़ों के विरूद्ध उपयोग किये जाने वाले पीडक़नाशकों के केवल 0.1 प्रतिशत भाग का ही सार्थक प्रभाव उपयोगी होता है, जबकि शेष भाग पर्यावरण को प्रदूषित करता है। यदि हम फसलों पर किये जाने वाले पीडक़नाशकों की मात्रा और बारम्बारता पर गम्भीरता से विचार करें तो ज्ञात होता है कि हम पीडक़नाशकों का उपयोग संतुलित और अपेक्षित मात्रा में नहीं कर रहे हैं।

भारत में उपयोग में 35 प्रतिशत बढ़ौत्री

विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन सांख्यिकी (2019) के अनुसार वर्तमान में सम्पूर्ण विश्व में 41,90,985 टन पीडक़नाशकों का उपयोग किया जा रहा है। विगत दो दशकों में पीडक़नाशकों के वैश्विक उपयोग में वर्ष 1999 की तुलना में 34.54 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। भारतवर्ष में भी पीडक़नाशकों का उपयोग वर्ष 1999 (46195 टन) की तुलना में वर्ष 2019 में 33.57 प्रतिशत बढक़र 61702 टन हो गया है। भारतवर्ष कुल वैश्विक पीडक़नाशकों का केवल 1.47 प्रतिशत ही उपयोग करता है। वर्ष 2019-20 में भारतीय पीडक़नाशी उद्योग रू. 42,000 करोड़ का रहा जिसमें रू. 22,000 करोड़ मूल्य के पीडक़नाशियों का निर्यात किया गया, अर्थात् भारतीय पीडक़नाशी उद्योग घरेलू मांग की पूर्ति से अधिक निर्यात पर निर्भर है। कुल पीडक़नाशकों के उपयोग में कीटनाशकों, फफूंदनाशकों, खरपतवारनाशकों और चूहानाशकों की प्रतिशत हिस्सेदारी विश्व और भारतवर्ष के संदर्भ में चित्र क्रमांक 1 एवं 2 में दर्शाई गई है। वैश्विक स्तर पर पीडक़ों के कुल उपयोग में विभिन्न पीडक़नाशकों की हिस्सेदारी घटते क्रम में खरपतवारनाशक > फफूंदनाशक > कीटनाशक > चूहानाशक है जबकि हमारे देश में कीटनाशकों का सर्वाधिक प्रयोग किया जाता है तथा फफूंदनाशकों, खरपतवार नाशकों और चूहानाशकों का क्रमश: दूसरा, तीसरा एवं चौथा स्थान है।

भारतवर्ष में रसायनिक पीडक़नाशकों का विगत दो दशकों (2001 से 2020) में औसतन 45942.4 टन प्रतिवर्ष रहा है तथा यह 5.48 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर से 43720 टन (2001) से बढक़र 62193 टन (2020) हो गया (चित्र क्रमांक 3)। वर्ष 2008 में रसायनिक पीडक़नाशकों का उपयोग निम्नतम (14485 टन) तथा वर्ष 2020 में अधिकतम (62193 टन) रिकॉर्ड किया गया। पीडक़नाशकों के उपयोग में उतार चढ़ाव का कारण मौसम तथा पीडक़ों के आक्रमण एवं संक्रमण की तीव्रता और पीडक़नाशकों की बाजार में सुगम एवं समयोचित उपलब्धता आदि पर निर्भर करता है। सूखे की स्थिति होने पर पीडक़नाशकों का उपयोग सामान्य की अपेक्षा कम हो जाता है। चित्र क्रमांक 4 से स्पष्ट है कि विगत तीन दशकों में भारतवर्ष में बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक (1991 से 2000) तथा इक्कीसवीं शताब्दी के द्वितीय दशक (2011 से 2020) के दौरान पीडक़नाशकों का कुल राष्ट्रीय उपयोग लगभग समान रहा, जबकि प्रथम दशक (2001 से 2010) में पीडक़नाशियों का उपयोग लगभग 40 प्रतिशत कम रहा।

इस दशक में उपयोग घटा

चित्र क्रमांक 4 दर्शाता है कि विगत् तीस वर्षों में पीडक़नाशकों की वार्षिक वृद्धि दर धनात्मक रही और पीडक़नाशियों का उपयोग 1.92 प्रतिशत प्रतिवर्ष बढ़ा है। बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक (1991 से 2000) में वार्षिक वृद्धि दर ऋणात्मक रही क्योंकि इस दशक के दौरान भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अंतर्गत कार्यरत राष्ट्रीय एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन अनुसंधान केन्द्र (एन.आई. सी.आई.पी.एम.) द्वारा एकीकृत पीडक़ प्रबंधन पर देशव्यापी कार्यक्रम प्रारम्भ किया गया जिसमें सम्पूर्ण भारतवर्ष में 28 राज्यों तथा दो केन्द्रशासित प्रदेशोंं में 35 अनुसंधान एवं विस्तार केन्द्रों के माध्यम से किसानों को प्रशिक्षण देकर पीडक़नाशियों के समुचित और अनुशंसित मात्रा में प्रयोग की सलाह अभियान चलाकर दी और साथ ही पीडक़ों के प्राकृतिक शत्रुओं का व्यापक उपयोग भी किया। उक्त केन्द्रों के द्वारा वर्ष 1994-95 से 2020-21 तक 193.92 लाख हेक्टर क्षेत्र में विभिन्न प्राकृतिक शत्रुओं का प्रयोग किया जा चुका है। इक्कीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में पीडक़नाशियों के उपयोग की वार्षिक वृद्धि दर धनात्मक रही परंतु नवीन पीढ़ी के पीडक़नाशियों, जिनकी अनुशंसित मात्रा अपेक्षाकृत कम होती है, के प्रयोग के कारण और दशक के प्रारम्भिक वर्षों में औसत से कम वर्षा के कारण पीडक़नाशियों के उपयोग की कुल मात्रा अन्य दो आलोच्य दशकों की तुलना में लगभग 40 प्रतिशत कम रही। इसी दशक के दौरान वैश्विक आर्थिक मंदी के कारण पीडक़नाशियों के आयात और निर्यात पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। इक्कीसवीं शताब्दी के द्वितीय दशक पीडक़नाशियों के उपयोग की वार्षिक वृद्धि धनात्मक (1.79) रही। इस दशक के दौरान बागवानी फसलों के विकास हेतु भारत सरकार की महत्वाकांक्षी योजना एकीकृत बागवानी विकास अभियान प्रारम्भ की गई तथा वर्ष 2015-16 से किसानों की आय वृद्धि हेतु विशेष प्रयास प्रारम्भ किये गये, अतएव पीडक़नाशकों का उपयोग बढ़ा और वार्षिक वृद्धि दर भी धनात्मक रही। फेडरेशन ऑफ इंडियन चेम्बर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री की रिपोर्ट (फिक्की. इन) के अनुसार वर्ष 2014 से 2018 की अवधि के दौरान देश में पीडक़नाशकों के उत्पादन की वार्षिक वृद्धि दर 4.6 प्रतिशत रही जबकि इसी अवधि में पीडक़नाशकों के निर्यात की वृद्धि दर 12.7 प्रतिशत रही। (क्रमश:)

 

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