सोयाबीन उन्नत उत्पादन तकनीक
सोयाबीन -गेहूं फसल चक्र अपनाने से गेहूं की पैदावार में काफी बढ़ोतरी पाई गई है। सोयाबीन के बाद गेहूं लगाने पर गेहूं फसल को सोयाबीन फसल द्वारा छोड़ी गई नत्रजन एवं अन्य तत्व फायदा पहुँचाते हैं जिससे फसल उत्पादन बढ़ जाता है।
उत्पादकता को प्रभावित करने वाले कारक:
तथ्यों से स्पष्ट है कि सोयाबीन मध्यप्रदेश में खरीफ मौसम में बहुत अधिक क्षेत्र में उगाई जाती है। खरीफ फसल के रूप में इसकी उपयुक्तता एवं आर्थिक लाभ ने किसानों को आकर्षित किया है। जिससे खरीफ में जो भी पड़ती जमीन रहती थी उसको आच्छादित किया एवं कई परम्परागत खरीफ फसलों को भी विस्थापित कर गौण कर दिया। किसानों ने आर्थिक लाभ से प्रभावित होकर धान के खेतों की मेढें़ तोड़कर सोयाबीन खेत में बदला एवं सीमांत जमीन में भी खेती करने लगे। इस प्रकार सोयाबीन मध्यप्रदेश के वृहद क्षेत्र में उगाई जाने लगी है।
वर्तमान में सोयाबीन उत्पादन को सीमित करने वाली प्रमुख समस्यायें निम्न हैं:
- जड़ सडऩ, पीला मोजेक जैसी बीमारियों का व्यापक प्रकोप
- नये नये कीटों का प्रकोप
- भूमि में आवश्यक मुख्य तथा सूक्ष्म पोषक तत्वों का असंतुलन
- भूमि में कार्बनिक पदार्थ की कमी
- समुचित जल प्रबंध का अभाव
- खरपतवार की समस्या
- मौसम की प्रतिकूलता
वर्तमान में इन समस्याओं को चलते किसान सोयाबीन की खेती में अत्याधिक कठिनाई महसूस कर रहा है। ऐसी स्थिति में वैज्ञानिक खेती एवं अनुसंधान की उन्नत तकनीकों का महत्व और बढ़ जाता है, जिसे अपनाकर अधिक उत्पादन कर लाभ कमाया जा सकता हेै।
भूमि का चयन एवं तैयारी:
सोयाबीन अम्लीय क्षारीय तथा रेतीली भूमि को छोड़कर हर प्रकार की मिट्टी में पैदा होती है। सोयाबीन की खेती उन खेतों में ही करें जहां जलभराव की समस्या न हो । रबी फसल की कटाई के तुरंत बाद गर्मी में गहरी जुताई करें। ग्रीष्मकालीन जुताई से जमीन के नीचे आश्रय पाने वाले कीटों एवं बीमारियों के अवशेष नष्ट हो जाते हैं तथा भूमि की जलधारण क्षमता एवं दशा में सुधार होता है। गोबर की खाद, कम्पोस्ट या वर्मी कम्पोस्ट तथा सिंगल सुपर फास्फेट को खेत में समान रूप से छिड़कने के बाद बोनी के लिए जुताई करना श्रेयस्कर है। खेत की मिट्टी भुरभुरी हो जाये एवं खरपतवार नष्ट हो जायें इस प्रकार जुताई करना चाहिए ।
बुवाई समय:
सोयाबीन बुवाई 22 जून से 7 जुलाई के बीच उत्तम परिणाम देती है । इसमें परिस्थितिवश कुछ दिन आगे पीछे होना कोई विशेष प्रभाव नहीं डालता।
जातियों का चयन:
सोयाबीन की जातियों का चुनाव उस क्षेत्र में वर्षा का औसत एवं भूमि के प्रकार को ध्यान में रखकर ही करें । औसत से कम वर्षा एवं हल्की से मध्यम भूमि वाले क्षेत्रों में शीध्र पकने वाली जातियॉँ एवं औसत से अधिक वर्षा वाले एवं मध्यम से भारी भूमि वाले क्षेत्रों में मध्यम अवधि की जातियॉँ लगाना उचित है। सोयाबीन की उन्नत जातियॉँ अनुवांशिक रुप से शुद्ध एवं कम से कम 70 प्रतिशत अंकुरण क्षमता वाली होनी चाहिये।
मध्यप्रदेश के विभिन्न जलवायु क्षेत्रों के लिए सोयाबीन की अनुकूल जातियों को तथा उन्नतशील प्रजातियॉँ एवं उनकी विशेषताओं को दिया गया है।
उत्तम बीज व बीज दर :
सोयाबीन की बीज दर 60-80 कि. ग्रा. प्रति हेक्टेयर निर्धारित हैं। जब बीज छोटे हों या ज्यादा फैलने वाली प्रजाति हो तो 60-70 कि. ग्रा. एवं बड़ा बीज हो तथा कम फैलने वाली प्रजाति हो तो 80-100 कि. ग्रा. प्रति हेक्टेयर बीज का प्रयोग करना चाहिए। सोयाबीन बीज की अंकुरण क्षमता 70 प्रतिशत से अधिक हो एवं अनुवांशिक रूप से पूर्णतया शु़द्ध हो वही बीज प्रयोग करना चाहिए ।
बीजोपचार :
बीज को फफूंदनाशक दवा थायरम 75 डब्ल्य.ू.पी. एवं कार्बेन्डाजिम 50 डब्ल्यू.पी. दवा को 2:1 के अनुपात में मिलाकर 3 ग्राम दवा प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करना चाहिए या थायरम 37 प्रतिशत $ कार्बोक्सिन 37 प्रतिशत, 2 ग्राम दवा प्रति किलो बीज की दर से या ट्राइकोडर्मा नामक जैविक फफूंदनाशक की 3 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर सकते हैं । जहां पर तना मक्खी, सफेद मक्खी एवं पीला मोजेक की समस्या ज्यादा हो, वहां पर थायामेथोक्जाम 70 डब्ल्य.ू.एस. नामक कीटनाशक से 3 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से बीज उपचारित कर सकते हैं। फफूंदनाशक एवं कीटनाशक दवा के उपचार के पश्चात् 5 ग्राम राइजोबियम कल्चर एवं 5 ग्राम पी.एस.बी. कल्चर से प्रति किलो बीज उपचारित करने से सोयाबीन में जड़ ग्रन्थियों का उचित विकास होता है ।
बुवाई का तरीका:
सोयाबीन की बुवाई करते समय कतार से कतार की दूरी 45 से.मी. होना चाहिए। कम ऊॅँचाई वाली जातियों या कम फैलने वाली जातियों को 30 से.मी. की कतार से कतार की दूरी पर बोयें । बुवाई का कार्य दुफन, तिफन या सीड ड्रिल से ही करना चांिहए। बुवाई के समय जमीन में उचित नमी आवश्यक है। बीज जमीन में 2.5 से 3 से. मी. गहराई पर पडऩे चाहिए। मेढ़ – नाली विधि एवं चौड़ी पट्टी – नाली विधि से बुवाई करनें से सोयाबीन की पैदावार में वृद्धि पायी गयी है एवं नमी संरक्षण तथा जल निकास में भी प्रभावी पायी गयी है।
जल प्रबंधन:
सोयाबीन की फसल में यदि उचित जल प्रबंध नही है, तो जो भी आदान दिया जाता है उसका समुचित उपयोग पौधों द्वारा नहीं हो पाता है। इसके साथ ही जड़ सडऩ जैसी बीमारियों का प्रकोप बढ़ जाता है एवं नींदा नियंत्रण कठिन हो जाता है जिसके फलस्वरूप, पौधों का विकास सीमित हो जाता है, एवं उत्पादन में भारी गिरावट आ जाती है। अत: सामान्य तरीके से बुवाई के बाद 20-20 मीटर की दूरी पर ढाल के अनुरूप जल निकास नालियॉँ अवश्य बनायें, जिससे अधिक वर्षा की स्थिति में जलभराव की स्थिति पैदा न हो। मेंढ़ – नाली विधि एवं चौड़ी पट्टी – नाली विधि की बुवाई, जल निकास में भी प्रभावी पायी गयी हैं।
बोनी के बाद:
सोयाबीन की बोनी के 15-20 दिन के बीच खड़ी फसल में इमेजाथाइपर नामक दवा का 75 ग्राम क्रियाशील अवयव प्रति हे. छिड़कने से सभी प्रकार के खरपतवार का नियंत्रण सफलतापूर्वक किया जा सकता है। जहां पर केवल सॅँकरी पत्ती के नींदा हों वहांँ क्वीजालोफाप इथराइल 50 ग्राम क्रियाशील अवयव या फेनोक्साप्राप 10 ई.सी. 75 ग्राम क्रियाशील अवयव प्रति हेक्टेयर का छिड़काव करें। इन दवाओं को 500-700 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव स्प्रेयर में फ्लड जेट नॉजल या फ्लेट फेन नॉजल लगाकर करना चाहिये। भूमि में नमी रहने से अच्छे परिणाम मिलते हैं।
लाभकारी अंतरवर्तीय फसलें:
सोयाबीन -मक्का ( चार कतार: दो कतार)
सोयाबीन – अरहर ( चार कतार: दो कतार)
सोयाबीन – ज्वार ( चार कतार: दो कतार)
सोयाबीन $-कपास ( चार कतार: एक कतार)
लाभकारी फसल चक्र :
सोयाबीन-गेहूं, सोयाबीन-अलसी, सोयाबीन-चना, सोयाबीन-अर्किल मटर
कटाई, गहाई एवं भंडारण:
सोयाबीन की कटाई हँसिया या मशीन से की जाती है। फसल की कटाई तब करें जब 95 प्रतिशत फलियां भूरी पड़ जायें और पत्तियॉँ झड़ जायें। अधिक देरी से कटाई करने पर चटकने की संभावना रहती है। बीज वाली फसल की कटाई कम्बाईन से न करें। गहाई थ्रेसर मशीन से करने के लिये सूखी हुई फसल की गड्डियां बना लें। थ्रेसर की की गति 300-500 आर.पी.एम. एवं पंखे की गति 1400-1500 आर.पी.एम. रखनी चाहिए। ट्रैक्टर से गहाई के लिए खलिहान में फसल की मोटी परत बिछा दें और सूखने के लिए छोड़ दें। जब फल्लियां चटकने लगें तब नये टायर वाले ट्रैक्टर से धीमी गति गहाई करें। गहाई हो जाने पर तेज हवा में या पंखों से उड़ावनी कर बीजों को डंठल एवं भूसा से अलग करें। बीज को पुन: धूप में 2 से 3 दिनों तक सुखाकर एवं छानकर भंडारण सूखे एवं ठंडे स्थानों में कोठियों एवं बोरों में करें।
आज सोयाबीन की खेती का मध्यप्रदेश में जो अद्वितीय विस्तार हुआ है, उसका श्रेय वर्ष 1965 से आज तक अनवरत् किये गये विभिन्न अनुसंधान कार्यों को जाता है। जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय में वर्ष 1967 से अखिल भारतीय समन्वयक परियोजना द्वारा उन्नत तथा विभिन्न जलवायु क्षेत्रों के अनुकूल अधिक उपज व उच्च गुणवत्ता वाली जातियों तथा उन्नत शस्य एवं पौध संरक्षण तकनीकों के विकास ने सोयाबीन की खेती के नये आयाम खोल दिये। इसके साथ ही कृषकों का सोयाबीन खेती के प्रति झुकाव, तेल उद्योग की स्थापना एवं सरकार द्वारा तैयार वातावरण ने सोयाबीन खेती के विस्तार में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। देश के कुल सोयाबीन क्षेत्रफल (106 लाख हे.), उत्पादन (126 लाख मी.टन) एवं उत्पादकता (11.85 क्वि/हे.) में मध्यप्रदेश की भागीदारी सबसे महत्वपूर्ण है, जिसके कारण मध्यप्रदेश को सोया प्रदेश की संज्ञा दी गई है। वर्तमान में सोयाबीन ने भारत में तिलहनी फसलों में प्रथम स्थान प्राप्त कर लिया है। इसमें प्रचुर मात्रा में उच्चकोटि का प्रोटीन 40 प्रतिशत एवं तेल 20 प्रतिशत पाया जाता है। इसके अलावा इसमें विटामिन्स एवं खनिज लवण की मात्रा भी अन्य फसलों की अपेक्षा अधिक पायी जाती है। |