सोयाबीन की उन्नत खेती और प्रमुख प्रजातियों के नाम
- डॉ. एम. के. श्रीवास्तव , पवन अमृते , ज्ञानेन्द्र सिंह
पादप प्रजनन एवं अनुवांशिकी विभाग
जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय,
जबलपुर
17 जून 2021, भोपाल । सोयाबीन की उन्नत खेती – भूमि का चयन एवं तैयारी-
- सोयाबीन की खेती उन खेतों में ही करें जहां जलभराव की समस्या न हो ।
- ग्रीष्म कालीन गहरी जुताई के बाद 15-30 दिवस खेत खाली छोडऩे पर जमीन के नीचे आश्रय पाने वाले कीटों एवं भूमि जनित बीमारियों के अवशेष नष्ट हो जाते हैं तथा भूमि की जलधारण क्षमता एवं दशा में सुधार होता है।
- गोबर की खाद, कम्पोस्ट या वर्मी कम्पोस्ट तथा सिंगल सुपर फास्फेट को ख्ंोत में समान रूप से छिड़कने के बाद बोनी के लिए जुताई करना श्रेष्यकर है ।
- खेत की मिट्टी भुरभुरी हो जाये एवं खरपतवार नष्ट हो जायें इस प्रकार जुताई करें।
- बुआई के पूर्व ख्ंोत के निचले हिस्से में प्रति 20 मीटर अंतराल पर जल निकास नाली का निर्माण अवश्य करें जिससे अधिक वर्षा की दशा में पानी का निकास आसानी से हो सके एवं अवर्षा की दशा में सिंचाई उपलब्ध करा सकें।
बुवाई का समय
- सोयाबीन की बुवाई 20 जून (4-5 इंच वर्षा होने पर) से जुलाई के प्रथम सप्ताह के बीच उत्तम परिणाम देती है ।
- इसमें परिस्थितिवश कुछ दिन आगे पीछे होना कोई विशेष प्रभाव नहीं डालता ।
- मानसून में देरी होने पर जहां सिंचाई के साधन उपलब्ध हों बुवाई समय से ही करें ।
जातियों का चयन
- सोयाबीन की जातियों का चुनाव उस क्षेत्र में वर्षा का औसत एवं भूमि के प्रकार को ध्यान में रखकर अर्थात् क्षेत्रीय अनुकूलता के आधार पर ही करें ।
- औसत से कम वर्षा एवं हल्की से मध्यम भूमि वाले क्षेत्रों में शीघ्र पकने वाली जातियॉँ एवं औसत से अधिक वर्षा वाले एवं मध्यम से भारी भूमि वाले क्षेत्रों में मध्यम अवधि की जातियॉँ लगाना उचित है।
उत्तम बीज व बीज दर
- सोयाबीन की बीज दर 60-80 कि. ग्रा. प्रति हेक्टेयर निर्धारित हैं।
- उन्नत जातियॉँ अनुवांशिक रुप से शुद्ध एवं कम से कम 70 प्रतिशत अंकुरण क्षमता वाली हो।
- जब बीज छोटे हों या ज्यादा फैलने वाली प्रजाति हो तो 60-70 कि. ग्रा. एवं बड़ा बीज हो तथा कम फैलने वाली प्रजाति हो तो 80-85 कि. ग्रा. प्रति हेक्टेयर बीज का प्रयोग करें।
बीजोपचार
- कार्बोक्सिन 37.5 प्रतिशत+थायरम 37.5 प्रतिशत, 2 ग्राम दवा या थायोफिनेट मेथाइल+पाइराक्लास्ट्रोबिन 50 प्रतिशत दवा 1-1.25 मि.ली दवा
- या ट्राइकोडर्मा हर्जियानम नामक जैविक फफूंदनाशक की 5 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर सकते हैं, इससे बीज एवं मृदा जनित रोगों पर नियंत्रण पाया जा सकता है।
- जहॉंँ पर तना मक्खी, सफेद मक्खी एवं पीला मोजैेक की समस्या ज्यादा हो वहां पर थायामेथोक्जाम 30 एफ.एस. नामक कीटनाशक दवा से 10 मि.ली/किलो बीज की दर से बीज उपचारित कर सकते हैं।
- फफूंदनाशक एवं कीटनाशक दवा के उपचार के पश्चात् 5-10 ग्राम राइजोबियम कल्चर एवं 5-10 ग्राम पी.एस.बी. कल्चर से प्रति किलो बीज उपचारित करने से सोयाबीन में जड़ ग्रन्थियों का उचित विकास होता है।
उर्वरक एवं खाद
- सामान्यतया: सोयाबीन में 20-30 कि. ग्रा. नत्रजन, 60-80 कि. ग्रा. फास्फोरस एवं 20-30 कि.ग्रा. पोटाश तथा 20 कि.ग्रा. गंधक की मात्रा आवश्यक रूप से उपयोग करने की सलाह दी जाती है।
- 5-10 टन गोबर की खाद या कम्पोस्ट या 5 टन फसलों का बारीक किया हुआ कचरा या भूसा और 5 टन कम्पोस्ट प्रति हेक्टेयर का उपयोग अच्छा परिणाम देता है ।
- जहां पर मृदा परीक्षण के उपरान्त जिंक एवं बोरान तत्व की कमी पाई जाये, वहां 7.5 कि. ग्रा. प्रति दो वर्ष के अंतराल पर जिंक एवं 1.0-1.5 कि.ग्रा. बोरान प्रति हेक्टेयर के हिसाब से देना लाभकारी है ।
- फास्फोरस की पूरी मा़त्रा सिंगल सुपर फास्फेट के रूप में देने पर गंधक पूर्ति हो जाती है या जिप्सम 2-2.5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपयोग करने से भी गंधक की कमी पूरी हो जाती है।
बुवाई का तरीका
- सोयाबीन की बुवाई करते समय कतार से कतार की दूरी 45 से.मी. हो। कम उॅँचाई वाली जातियों या कम फैलने वाली जातियों को 30 से.मी. की कतार से कतार की दूरी पर बोयें।
- बुवाई का कार्य मेंढ़ – नाली विधि एवं चौड़ी पट्टी – नाली विधि से करनें से सोयाबीन की पैदावार में वृद्धि पायी गयी है एवं नमी संरक्षण तथा जल निकास में भी यह विधियां अत्यंत प्रभावी पायी गयी है। विपरीत परिस्थितियों में बुवाई दुफन, तिफन या सीड ड्रिल से कर सकते हैं। बुवाई के समय जमीन में उचित नमी आवश्यक है ।
- बीज जमीन में 2.5 से 3 से. मी. गहराई पर पडऩे चाहिए।
अंकुरण के बाद फसल की सुरक्षा
बुवाई के तीसरे दिन से एक सप्ताह तक अंकुरित नवजात् पौधों को पक्षियों से बचाना बहुत आवश्यक है।
पौधों की प्रति हेक्टेयर संख्या
- सोयाबीन में अधिक फैलने वाली जातियों की 3 से 4 लाख के आसपास पौध संख्या एवं कम फैलने वाली जातियों की 4 से 6 लाख पौध संख्या प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होती है।
- वांछित पौध संख्या अधिक होने पर फसल के ढहने की सम्भावना रहती है एवं फूल तथा फल्लियॉँ प्रकाश के आभाव में सड़ जाती हैं तथा कीट नियंत्रण के लिए कीट नाशकों का छिड़काव भी असरकारक नहीं होता है।
जल प्रबंध
- सामान्य तरीके से बुवाई के बाद 20-20 मीटर की दूरी पर ढाल के अनुरूप जल निकास नालियॉँ अवश्य बनायें, जिससे अधिक वर्षा की स्थिति में जलभराव की स्थिति पैदा न हो एवं आवश्यकतानुसार सिंचाई भी दी जा सके।
- मेंढ़ – नाली विधि एवं चौड़ी पट्टी – नाली विधि की बुवाई, जल निकास में भी प्रभावी पायी गयी हैं। (शेष पृष्ठ 6 पर)
- यदि एक सप्ताह से ज्यादा वर्षा का अंतराल हो जाये तो सिंचाई की सुविधा होने पर हल्की सिंचाई इन्हीं नालियों के माध्यम से करें। उचित जल प्रबंध से सोयाबीन की पैदावार में वृद्धि होती है।
उत्पादन को प्रभावित करने वाले कारक
वर्तमान में सोयाबीन उत्पादन को सीमित करने वाली कुछ प्रमुख समस्यायें हैं जिसके कारण उत्पादन एवं उत्पादकता में गिरावट दर्ज की जा रही है एवं किसान भाइयों को आर्थिक छति उठाना पड़ रही है।
इन समस्यायों में:
- चारकोल जड़ सडऩ, पीला मोजैक एवं झुलसन आदि रोगों का प्रकोप।
- कीटों का प्रकोप जिसमें तने की मक्खी व चक्रभृंग (तना छेदक कीट), अर्ध कुन्डलक इल्ली, कम्बल कीट, तम्बाखू की इल्ली, अलसी की इल्ली, चने की फली छेदक (पत्ती भक्षक कीट), एवं सफेद मक्खी।
- भूमि में आवश्यक मुख्य तथा सूक्ष्म पोषक तत्वों का असंतुलन।
- भूमि में कार्बनिक पदार्थ की कमी ।
- जल प्रबंध का अभाव एवं अवर्षा की स्थिति में सिंचाई साधनों की कमी।
- खरपतवारों की समस्या।
- मौसम की प्रतिकूलता जिसमें क्रांतिक अवस्थाओं में लम्बा सूखा,अत्यधिक वर्षा एवं पकने की अवस्था में वर्षा का होना आदि।
म.प्र. के विभिन्न कृषि जलवायु क्षेत्रों हेतु सोयाबीन की उपयुक्त प्रजातियाँ | ||
कृषि जलवायु क्षेत्र | जिले | उपयुक्त प्रजातियां |
छत्तीसगढ़ का मैदान | बालाघाट तथा वारासिवनी | जे.एस. 335, जे.एस.93-05, जे.एस. 95-60, जे.एस.97-52,जे.एस.20-34, जे. एस.20-29,जे.एस.20-98 |
कैमोर का पठार तथा सतपुडा की पहाडिय़ां | जबलपुर, कटनी, पन्ना, सतना,रीवां, सीधी, शहडोल, उमरिया, डिंडोरी, मंडला, सिवनी | जे.एस.335,जे.एस.93-05, जे.एस. 95-60, जे.एस. 20-34, जे. एस. 20-29, |
जे.एस. 20-69, जे.एस.20-98, जे.एस.20-116, जे.एस.20-94 | ||
विन्ध्या पठार | भोपाल, सीहोर, विदिशा, सागर, | जे.एस. 335, जे .एस. 93-05, जे .एस. 95-60, जे. एस.20-34, जे. एस. 20- |
दमोह, रायसेन | 29, जे.एस.2?-69,, जे.एस.20-98, जे.एस.20-116 जे.एस.20-94 | |
मध्य नर्मदा घाटी | नरसिंहपुर, होशंगाबाद, हरदा | जे.एस. 335, जे. एस. 93-05, एन.आर.सी. 37, जे. एस. 97-52, जे .एस. 20- 29, जे.एस.2?-69, जे.एस.20-98, जे.एस.20-116 जे.एस.20-94 |
गिर्द क्षेत्र | ग्वालियर, भिन्ड, मुरैना, शिवपुरी, गुना | जे.एस.335, जे. एस. 93-05,जे. एस. 95-60, जे. एस. 20-34, जे. एस. 20-29, जे. एस. .2?-69,, जे. एस. .20-98, एन.आर.सी.-86, आर.वी.एस. 2001-4, आर.वी.एस. 24 |
बुंदेलखंड क्षेत्र | छतरपुर, टीकमगढ़, दतिया | जे.एस. 335, जे.एस. 93-05, एन.आर.सी. 37, जे. एस. 95-60, 20-34, जे.एस. 20-29, जे.एस. 20-69, जे.एस. .20-98 |
सतपुड़ा का पठार | ंिछंदवाडा, बैतूल | जे.एस. 335, जे.एस. 93-05,जे .एस. 95-60, एन.आर.सी.37, एन.आर.सी. 86, 97-52, जे.एस 20-34, जे.एस. 20-29,जे.एस.20-69,जे.एस.20-98, जे.एस.20-116 जे.एस.20-94 |
मालवा का पठार | मंदसौर,,रतलाम,राजगढ़,शाजापुर, उज्जैन, इंदौर, देवास तथा धार का कुछ क्षेत्र | जे.एस. 335, जे. एस. 93-05, जे .एस.95-60, जे. एस. 97-52, जे .एस 20- |
34, जे. एस.20-29, एन.आर.सी.37, एन.आर.सी. 7, एन.आर.सी. 86, | ||
आर.वी.एस. 2001-4, आर.वी.एस. 24, आर.वी.एस. 18, जे.एस.20-116 जे.एस.20-94 | ||
निमाड़ घाटी | खंडवा, खरगोन, बड़वानी, | जे.एस.335, जे. एस. 93-05, जे. एस. 95-60, जे.एस.20-34, जे. एस. 20- 29, एन.आर.सी. 37, एन.आर.सी. 86, आर.वी.एस. 2001-4, आर.वी.एस. 24, आर.वी.एस. 18,, जे.एस.20-116 जे.एस.20-94 |
झाबुआ की पहाडिय़ाँ | झाबुआ तथा धार का कुछ क्षेत्र | जे.एस. 335, जे. एस. 93-05, एन.आर.सी. 7, एन.आर.सी. 86, जे. एस. 95- 60, आर.वी.एस. 18, जे.एस.20-34, जे.एस. 335, जे.एस.93-05, जे.एस. 95- 60 आदि प्रजातियाँ 15 वर्ष पुरानी हैं इनकी खेती को बढावा न दें। |