फसल की खेती (Crop Cultivation)

चने की लाभकारी खेती

लेखक: डॉ. प्रशांत सिंह कौरव (कृषि विस्तार शिक्षा), डॉ. कल्पना श्रीवास्तव (कृषि विस्तार शिक्षा), डॉ. स्वर्णा कुर्मी (रोग विज्ञान), ज.ने.कृ.वि.वि. , जबलपुर

06 नवंबर 2024, भोपाल: चने की लाभकारी खेती – दलहन के क्षेत्र में भारत को आत्मनिर्भर बनाने में चने की महत्वपूर्ण भूमिका हैै। सरकार द्वारा प्रदत्त विभिन्न योजनाओं, बढ़ती जागरूकता और प्रशिक्षण कार्यक्रमों ने किसानों को चने की तकनीकी खेती के लिए प्रेरित किया है। चना रबी मौसम की मुख्य फसल है तथा इसके पोषक मूल्य एवं कम लागत में उत्पादन के कारण व्यापक रूप से इसका उत्पादन भारत के विभिन्न क्षेत्रों में सफलतापूर्वक किया जाता है।

जलवायु

जब दिन का तापमान 70-80 डिग्री फॉरे. और रात का तापमान 64-70 डिग्री फॉरे. होता है इसकी पैदावार सबसे अच्छी होती है। इसकी जड़ गहरी होने के कारण यह फसल अपेक्षाकृत सूखा प्रतिरोधी है। अत: उन क्षेत्रों में जहां अधिक वर्षा होती है, फसल अच्छी उपज नहीं देती है।

मिट्टी

चना अच्छी जल निकासी वाली रेतीली या गाद दोमट मिट्टी पर सबसे अच्छा प्रदर्शन करता है। यह लवणीय मिट्टी के लिए उपयुक्त नहीं है। यह फसल गीली मिट्टी को सहन नहीं करती है। बाढ़ की आशंका वाले खेतों के निचले इलाकों में चना अच्छा उत्पादन नहीं देता है।

बीज उपचार

रोग नियंत्रण हेतु: उकठा एवं जड़ सडऩ रोग से फसल के बचाव हेतु 2 ग्राम थायरम 1 ग्राम कार्बेन्डाजिम के मिश्रण से प्रति किलो बीज को उपचारित करें या बीटावैक्स 2 ग्राम/किलो से उपचारित करें।

कीट नियंत्रण हेेतु: थायोमेथोक्सम 70 डब्ल्यू. पी. 3 ग्राम/किलो बीज की दर से उपचारित करें।

बुआई

असिंचित अवस्था में चना की बुआई अक्टूबर के द्वितीय सप्ताह तक कर दें। चने की बुआई धान की फसल काटने के बाद भी की जाती है, ऐसी स्थिति में बुआई दिसंबर के मध्य तक अवश्य कर लें। बुआई में अधिक विलम्ब करने पर पैदावार कम हो जाती है, तथा चना फली भेदक का प्रकोप भी अधिक होने की सम्भावना बनी रहती है। अत: अक्टूबर माह चना की बुआई के लिए सर्वोत्तम होता है।

बुआई की विधियां

  • समुचित नमी में सीडड्रिल से बुआई करना उचित माना जाता है एवं खेत में नमी कम होने पर बीज को नमी के सम्पर्क में लाने के लिए गहरी बुआई कर पाटा लगायें। पौध संख्या 25 से 30 प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से रख पंक्तियों (कूंडों) के बीच की दूरी 30 से.मी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 से.मी. रखें।
  • सिंचित अवस्था में काबुली चने में कूंडों के बीच की दूरी 45 से.मी. रखें।
  • देरी से बोनी की अवस्था में पंक्ति से पंक्ति की दूरी घटाकर 25 से.मी. रखें।

सिंचाई

चने की खेती कम पानी में भी की जा सकती है। चने की फसल लगभग तैयार होने तक 2 से 3 बार सिंचाई करनी होती है, क्योंकि चने की फसल की बुआई करने के 45 दिनों बाद पानी की जरूरत पड़ती है या फिर फसल बोने के 75 दिनों बाद सिंचाई करें, लेकिन चने की बिजाई करते समय हमें एक बार पहले अच्छे से जमीन में सिंचाई करने की आवश्यकता होती है फव्वारा सिस्टम से चने की फसल में एक बार में कम से कम 3 घंटे तक पानी देना सही है।

खाद एवं उर्वरक

उर्वरकों का उपयोग मिट्टी परीक्षण के आधार पर ही किया जाये। अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए 20-25 किग्रा नत्रजन, 50-60 किग्रा फास्फोरस, 20 किग्रा पोटाश एवं 20 किलोग्राम गंधक प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करें। वैज्ञानिक शोध से पता चला है कि असिंचित अवस्था में 2 प्रतिशत यूरिया या डी.ए.पी. का फसल पर स्प्रे करने से चना की उपज में वृद्धि होती है, साथ ही यह छिड़काव पाले से भी फसल की रक्षा करता है।

प्रमुख रोग एवं नियंत्रण

उकठा/उगरा रोग

लक्षण -द्य उकठा चना फसल का प्रमुख रोग है।

  • उकठा के लक्षण बुआई के 30 दिन से फली लगने तक दिखाई देते हंै।
  • पौधों का झुककर मुरझाना, विभाजित जड़ में भूरी काली धारियों का दिखाई देना।

नियंत्रण विधियाँ –

  • चना की बुवाई अक्टूबर माह के अंत से नवम्बर माह के प्रथम सप्ताह में करें।
  • उकठा रोगरोधी जातियां लगाएं जैसे देशी चना- जे.जी. 315, जे.जी. 322, जे.जी. 74, जे.जी. 130, काबुली- जे.जी.के.1, जे.जी.के. 3
  • सिंचाई दिन में न करते हुए शाम में करें।
  • फसल को शुष्क एवं गर्मी के वातावरण से बचाने के लिए बुआई समय से करें।
  • 5 किग्रा ट्राईकोडर्मा को 50 किग्रा गोबर की खाद/हे. के साथ मिलाकर खेत में डालें।

प्रमुख कीट एवं नियंत्रण

चना फलीभेदक

चने की फसल पर लगने वाले कीटों में फली भेदक सबसे खतरनाक कीट है। इस कीट क प्रकोप से चने की उत्पादकता को 20-30 प्रतिशत की हानि होती है। भीषण प्रकोप की अवस्था में चने की 70-80 प्रतिशत तक की क्षति होती है।

  • चना फलीभेदक के अंडे लगभग गोल, पीले रंग के मोती की तरह एक-एक करके पत्तियों पर बिखरे रहते हैं।
  • अंडों से 5-6 दिन में नन्हीं-सी सुंडी निकलती है जो कोमल पत्तियों को खुरच-खुरच कर खाती है।
  • सुंडी 5-6 बार अपनी केंचुल उतारती है और धीरे-धीरे बड़ी होती जाती है। जैसे-जैसे सुंडी बड़ी होती जाती है, यह फली में छेद करके अपना मुंह अंदर घुसाकर सारा का सारा दाना चट कर जाती है।
  • ये सुंडी पीले, नारंगी, गुलाबी, भूरे या काले रंग की होती है। इसकी पीठ पर विशेषकर हल्के और गहरे रंग की धारियाँ होती हैं।

समेकित कीट प्रबंधन

  • आकर्षण जाल (फेरोमोन ट्रैप): इसका प्रयोग कीट का प्रकोप बढऩे से पहले चेतावनी के रूप में करते हैं। जब नर कीटों की संख्या प्रति रात्रि प्रति टै्रप 4-5 तक पहुँचने लगे तो समझें कि अब कीट नियंत्रण जरूरी। इसमें उपलब्ध रसायन (सेप्टा) की ओर कीट आकर्षित होते हैं। और विशेष रूप से बनी कीप (फनल) में फिसलकर नीचे लगी पॉलीथिन में एकत्र हो जाते हैं।
  • सस्य क्रियाओं द्वारा नियंत्रण: गर्मी में खेतों की गहरी जुताई करने से इन कीटों की सुंडी के कोशित मर जाते हैं। फसल की समय से बुआई करें।
  • अंतरवर्तीय फसल – चना फसल के साथ धनिया/सरसों एवं अलसी को हर 10 कतार चने के बाद 1-2 कतार लगाने से चने की इल्ली का प्रकोप कम होता है तथा ये फसलें मित्र कीड़ों को आकर्षित करती हैं।
  • जैविक नियंत्रण: न्युक्लियर पॉलीहाइड्रोसिस विषाणु- आर्थिक हानि स्तर की अवस्था में पहुंचने पर सबसे पहले जैविक कीट नाशी को मिली प्रति हे. के हिसाब से लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें। जैविक कीटनाशी में विषाणु के कण होते हैं जो सुंडियों द्वारा खाने पर उनमें विषाणु की बीमारी फैला देते हैं जिससे वे पीली पड़ जाती है तथा मर जाती हैं।
  • कीटभक्षी चिडिय़ाँ: कीटभक्षी चिडिय़ों को संरक्षण फलीभेदक एवं कटुआ कीट के नियंत्रण में कीटभक्षी चिडिय़ों का महत्वपूर्ण योगदान है। साधारणतय: यह पाया गया है कि कीटभक्षी चिडिय़ाँ प्रतिवर्ष चना फलीभेदक की सुंडी को नियंत्रित कर लेती है।

रसायनिक नियंत्रण –

विभिन्न कीटनाशी रसायनों को कटुआ इल्ली, फलीभेदक इल्ली को नियंत्रित करने के लिए संस्तुत किया गया है। जिनमें से क्लोरोपायीरफास (2 मिली प्रति लीटर) या इन्डोक्साकार्ब 14.5 एस.सी. 300 ग्राम प्रति हेक्टेयर या इमामेक्टिन बेन्जोएट की 200 ग्राम दवा प्रति हेक्टेयर 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।

अधिक उपज प्राप्त करने हेतु प्रमुख बिन्दु

  • नवीनतम किस्मों जे.जी. 16, जे.जी. 14, जे.जी. 11 के गुणवत्तायुक्त तथा प्रमाणित बीज बोनी के लिए इस्तेमाल करें।
  • बुवाई पूर्व बीज को फफंूदनाशी दवा थायरम व कार्बेन्डाजिम 2:1 या कार्बोक्सिन 2 ग्राम/किलो बीज की दर से उपचारित करने क बाद राइजोबियम कल्चर 5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से तथा मोलिब्डेनम 1 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करें।
  • बोनी कतारों में सीडड्रिल से कर कीट व्याधियों की रोकथाम के लिए खेत में ञ्ज आकार की खूटियां लगायें चना धना (10:2) की अन्तरवर्तीय फसल लगायें।
  • आवश्यक होने पर रासायनिक दवा इमामेक्टिन बेन्जोएट 200 ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करें।
  • पाले से बचाव – हल्की सिंचाई करना, 2 प्रतिशत यूरिया का फसल पर स्प्रे करने एवं उत्तर-पश्चिम दिशा में रात को धुआँ करके पाले से बचाया जा सकता है।
अनुशंसित बीज दर एवं बीज किस्में
चना के बीज की मात्रा बुआई का समय, दानों के आकार (भार), विधि एवं भूमि की 75 उर्वराशक्ति पर निर्भर करती है-
क्र. आकार बीजदर (किग्रा/हे.) किस्में
1. छोटा आकार 65-75 कि.ग्रा. जे.जी. 315, जे.जी.74, जे.जी.322, जे.जी.12, जे.जी. 63, जे.जी. 16
2. मध्यम आकार 75-80 कि.ग्रा. जे.जी. 130, जे.जी. 11, जे.जी. 14, जे.जी. 6
3. काबुली चना100 कि.ग्रा. जे.जी.के. 1. जे.जी.के. 2, जे.जी. के. 3
पिछेती बोनी की अवस्था में कम वृद्धि के कारण उपज में होने वाली क्षति की पूर्ति के लिए सामान्य बीज दर में 20-25 प्रतिशत तक बढ़ाकर बोनी करें।

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