Crop Cultivation (फसल की खेती)

प्राकृतिक खेती

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रसायनिक जहरयुक्त खेती का एक समाधान

  • शबनम , रिम्पिका , पूनम ,शिल्पा
  • अरुणा मेहता
  • डॉ. यशवंत सिंह परमार उद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय, सोलन (हि. प्र.)

 

3 अक्टूबर 2022, भोपालप्राकृतिक खेती  –प्राकृतिक खेती, आधुनिक रसायनिक जहरयुक्त खेती के दुष्प्रभावों का एक सम्भव समाधान है। इस तरह की खेती में रसायनों का प्रयोग किये बिना सफल एवं सतत तरीके से किसान जहर मुक्त खेती कर सकता है। इस तरह की खेती में उत्पादन लागत बहुत ही कम या शून्य के बराबर आती है, जिससे किसान अपनी आर्थिकी को बढ़ा सकता है। साथ ही समाज के अन्नदाता के रूप में स्वस्थ भोज्य पदार्थ उपलब्ध करवा कर ‘स्वस्थ भारत- समृद्ध परिवेश’ के सपने को भी साकार करने में अपनी भूमिका अदा कर सकता है।

आधुनिक कृषि उत्पादन के अंतर्गत रसायनिक उर्वरकों, पीडक़नाशियों का अविवेकपूर्ण एवं अंधाधुंध प्रयोग किया जा रहा है। जिसके अनेक दुष्परिणाम देखने को मिल रहे हैं। इस तरह की कृषि से जल, वायु, मृदा और यहाँ तक की विभिन्न खाद्य पदार्थ भी दूषित हो रहे हैं। इससे मृदा की गुणवत्ता में काफी गिरावट आ रही है। रसायनिक खेती से तैयार खाद्य पदार्थों में पीडक़नाशियों एवं अन्य जहरीले रसायनों के अवशेष पाए जा रहे हैं, कई बार इन अवशेषों का स्तर खाद्य पदार्थों में अनुमत सीमा से कई गुना अधिक पाया गया है, इस तरह के खाद्य पदार्थों का लगातार उपभोग करने से मनुष्य कई प्रकार के असाध्य रोगों का शिकार हो रहा है।

प्राकृतिक खेती एक परम्परागत रसायन मुक्त खेती है। यह खेती प्रकृति में प्राकृतिक तरीके से उपलब्ध चीजों का उपयोग करके की जाती है। भारत में प्राकृतिक खेती पद्म श्री सुभाष पालेकर द्वारा आरम्भ की गयी, रसायनिक खेती के दुष्प्रभावों ने उन्हें प्रेरित किया, उन्होंने खेती में रसायनिक खादों का प्रयोग किये बिना शून्य लागत खेती का आरम्भ किया। उन्हे वर्ष 2016 में इसके लिए भारत के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार, पद्मश्री से सम्मानित किया गया। प्राकृतिक खेती को शून्य लागत खेती भी कहा जाता है, क्योंकि इस तरह की खेती में किसान को रसायनिक उर्वरक, कीटनाशक खरीदने की आवश्यकता नहीं रहती है। भारत की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने 2019 के बजट भाषण मे प्राकृतिक खेती को किसानों की आय दोगुना करने के मुख्य सत्रोत के रूप में  विशेष रूप से उल्लेख किया था। भारत में मुख्यत: कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, केरल एवं आंध्रप्रदेश जैसे राज्य प्राकृतिक खेती कर रहे हैं।

प्राकृतिक खेती के मुख्य पांच स्तम्भ इस प्रकार से हैं

  1. बीजामृत: देसी गाय की प्रजातियाँ हमारे देश के छोटे और सीमान्त किसानों की खेती का मुख्य हिस्सा है, बीजामृत प्राकृतिक खेत का एक प्रभावशाली घटक है। यह घटक देसी गाय के गोबर एवं गोमूत्र, पानी, बुझा चूना, उर्वरा मिट्टी के साथ मिला कर तैयार किया जाता है। बिजाई से पहले बीज उपचार के लिए 200 मिली घोल को 1 किग्रा बीज की दर से मिलाया जाता है। बुआई के 24 घंटे पहले शोधन करना चाहिए। बीजामृत फफूंद, बीज जनित एवं मृदा जनित संक्रमण से बचाव करता है।
  2. जीवामृत : इसे गोबर के साथ पानी में अन्य पदार्थ जैसे गोमूत्र, पेड़ के नीचे की उर्वरा मिट्टी, गुड़ और दाल का आटा मिलाकर बनाया जाता है। जीवामृत पौधों की वृद्धि और विकास के साथ मिट्टी की संरचना सुधारने में मदद करता है, यह पौधों की प्रतिरक्षा क्षमता को भी बढ़ाता है।
  3. आच्छादन : आच्छादन की प्रक्रिया में कवर फसलें, कृषि अवशेषों से मिट्टी की ऊपरी सतह को कवर करना शामिल है, मल्चिंग के लिए इस्तेमाल की जाने वाली सामग्री के अपघटन से ह्यूमस बनता है, जो न केवल मिट्टी में पोषण स्थिति में सुधार करता है, बल्कि मिट्टी की ऊपरी सतह का संरक्षण करता है तथा मिट्टी में पानी के अवधारण को बढ़ाता है। इसके साथ ही खरपतवार के विकास को भी रोकता है।
  4. वाप्सा : पौधों की वृद्धि के लिए मिट्टी में पर्याप्त वातन होना चाहिए। जीवामृत एवं आच्छादन करने से मिट्टी में वातन, पौषक तत्व धारण करने की क्षमता और मिट्टी की संरचना को बढ़ावा मिलता है। ये सभी फसल के लिए आवश्यक हैं।
  5. सह फसल: मुख्य फसल की लागत का मूल्य सह फसल के उत्पादन से निकाल लेना और मुख्य फसल से शत-प्रतिशत मुनाफा लेना।
प्राकृतिक खेती के कई लाभ

शून्य लागत: इस तरह की खेती में किसी भी तरह के रसायनिक उर्वरक या कीटनाशक इस्तेमाल नहीं किए जाते हैं, केवल प्राकृतिक तरीके से उपलब्ध चीजों का उपयोग करके ही यह कृषि की जाती है, जिससे की किसान की बाजार पर निर्भरता को कम करता है।

अधिक गुणवत्ता की फसल 

प्राकृतिक तरीके से की गयी खेती भूमि को उपजाऊ बनाती, जिससे उपज की गुणवत्ता एवं किसान को बेहतर रिटर्न्स मिलते हैं।

बेहतर स्वास्थ्य:

चूँकि प्राकृतिक खेती में किसी भी तरह के सिंथेटिक रसायनों का प्रयोग नहीं किया जाता है, इसलिए इस तरह की खेती से रसायनिक खेती के स्वास्थ्य सम्बंधित दुष्परिणाम कम हो जाते हैं, साथ ही खाद्य पदार्थों में उचित मात्रा में पोषक तत्व होने से उनकी गुणवता बढ़ जाती है। जिससे बेहतर स्वास्थ्य सुनिश्चित होता है।

जल सरंक्षण

आच्छादन प्राकृतिक खेती का एक मुख्य स्तम्भ है, आच्छादन जमीन के ऊपर एक सुरक्षा कवच के रूप में काम करता है एवं वाष्पीकरण के माध्यम से अनावश्यक पानी के नुकसान को रोकता है।

मृदा स्वास्थ्य का पुनर्जीवन 

मृदा का स्वास्थ्य उसमे रहने वाले सूक्ष्म एवं अन्य जीवों पर निर्भर करता है, प्राकृतिक खेती का तत्काल प्रभाव सूक्ष्म जीवों की संख्या एवं विविधता पर पड़ता है।

पर्यावरण सरंक्षण 

प्राकृतिक खेती बेहतर मृदा और बहुत कार्बन एवं नाइट्रोजन पदचिन्हों के साथ पानी का न्यायसंगत उपयोग सुनिश्चित करती है।

पशुधन स्थिरता 

कृषि प्रणाली में पशुधन एकीकरण प्राकृतिक खेती में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और पारिस्थिक तंत्र कई पुर्नचक्रण में मदद करता है, क्योंकि प्राकृतिक खेती में इस्तेमाल किये जाने वाले जीवामृत और बीजामृत जैसे इकोफ्रेंडली बायोइनपुट गाय के गोबर एवं गोमूत्र से तैयार किये जाते हैं।

मिट्टी में सांंध्रता :

जैविक कार्बन, नयूनतम जुताई और पौधों में विविधता इत्यादि की मदद से मिट्टी की संरचना परिवर्तन में सहायक होती है। जैविक कार्बन मिट्टी के गठन में मदद करता है, जिससे मिट्टी में सांध्रता बढ़ती है एवं पानी का सरल प्रवेश, वायु संचारण इत्यादि पर सकारात्मक प्रभाव डालती है।

 

बीजामृत (बीज अमृत) बनाने की विधि 

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