फसल की खेती (Crop Cultivation)उद्यानिकी (Horticulture)

मेंथा की आधुनिक खेती

25 दिसंबर 2024, भोपाल: मेंथा की आधुनिक खेती – मेंथा की खेती पश्चिमी उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्रों जैसे की बरेली, रामपुर, फिरोजाबाद, पीलीभीत, बदायूं, मुरादाबाद, सहारनपुर, मेरठ आदि में किसानों द्वारा अत्यधिक पैमाने में की जाती है। हिंदुस्तान में मेंथा का 90 प्रतिशत उत्पादन उत्तरप्रदेश में किया जाता है जबकि शेष 10 प्रतिशत के साथ पंजाब, राजस्थान आदि के छोटे क्षेत्रों में होता है। मेंथा तेल का उपयोग दवाओं, टूथपेस्ट, माउथ-याँश, च्युइंगगम और सौंदर्य प्रसाधन, इत्र उत्पादों के निर्माण में एक औद्योगिक इनपुट के रूप में किया जाता है। पुदीने की पत्तियों का उपयोग पेय पदार्थ, जेली और सिरप में किया जाता है। मेंथा पाचन में सहायता और सिर दर्द से राहत जैसे स्वास्थ्य उपचार के लिए उपयोगी है। मेंथा की खेती आर्थिक दृष्टि से बहुत लाभदायक है। निर्यात बाजार में बढ़ती मांग और लाभकारी कीमतों ने राज्य में मेंथा की खेती को बढ़ावा दिया है। मेंथा की खेती बहुत कम लागत में की जाती है और इसके साथ साथ ही इसमें कम समय में अधिक आय उत्पत्र कर सकते हैं।

भूमि

पुदीने की खेती कई प्रकार की मिट्टी में की जा सकती है हालांकि, दोमट या मटियार दोगट या कार्बनिक पदार्थों से भरपूर गहरी मिट्टी इसकी खेती के लिए सबसे अच्छी होती है एवं इसकी खेती के लिए अच्छी जल निकासी बाली मिट्टी जरूरी। एक जुताई मि‌ट्टी पलटने वाले हल से और 2-3 जुताइयाँ कल्टीवेटर से मिट्टी को भुरभुरी बनाने के लिए आवश्यक होता है तथा इसके उपरान्त पाटा लगा दें।

उन्नतशील किस्में

सिम उन्नत्ति कालका (HY-77), शिवालिक, हिमालय, एनएसएस-1 किरण पंजाब स्पेअरमिंट कोशी।

बुवाई का समय

मध्य जनवरी से मध्य फरवरी मेंथा की बुवाई के लिए सर्वोत्तम समय माना जाता है। बुवाई में देरी के कारण मेंथा की उपज कम हो जाती है तथा तेल की मात्रा भी कम हो जाती है। अगर बुवाई में देर हो जाये तो पौधों को नर्सरी में तैयार करके मार्च से अप्रैल के प्रथम सताह तक खेत में पौधों की रोपाई अवश्य कर दें। विलम्ब से मैथा की खेती के लिए कोसी प्रजाति का चुनाव करें।

बुवाई की विधि

देशी पोदीना की रोपाई के लिए लाइन कौदूरी 45-60 सेमी तथा पौधों से पौधों की दूरी 15 सेमी. रखें। चुवाई/रोपाई के लिए जड़ों की मात्रा 4-5 क्विंटल होती है जड़ों को 8-10 सेमी के टुकड़े में उपयुक्त किया जाता है। जड़ों की रोपाई 3 से 5 सेमी की गहराई पर कुंड़ों में करें। रोपाई के तुरन्त बाद हल्की सिंचाई कर दें।

उर्वरक की मात्रा

नाइट्रोजन उर्वरकों के भारी उपयोग के लिए पुदीना बहुत अच्छी तरह से प्रतिक्रिया करता है। सामान्य परिस्थितियों में मेंथा की अच्छी उपज के लिए 8-10 क्विंटल गोबर की खाद तथा 120-150 किलोग्राम नाइट्रोजन 50-60 किलोग्राम फॉस्फोरस, 40 किलोग्राम पोटाश तथा 20 किलोग्राम जिंक सलफेट का प्रयोग करें। जड़ों में रोपाई से पहले 35-40 किग्रा नाइट्रोजन की बेसल खुराक डाली जाती है तथा फास्फोरस, पोटेशियम और जिंक को पूरी खुराक डालें। शेष नाइट्रोजन को रोपाई के 40-45 दिनों के बाद दिया जाये लेकिन अगर नाइट्रोजन की टॉपड़ेसिंग 70-75 दिन तथा पहली कटाई के 2.0 दिन के बाद करने से तथा इसके साथ ही सिंगल सुपरफॉस्फेट का भी प्रयोग करने से अधिक उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं।

सिंचाई

पुदीने की पानी की आवश्यकता बहुत अधिक होती है। मिट्टी के प्रकार और जलवायु के आधार पर मेंथा की सिंचाई निर्भर करती है। पहली सिंचाई बुवाई के तुरन्त बाद करें तथा इसके बाद 20-25 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करें। प्रत्येक कटाई के बाद सिंचाई करते रहें। अच्छी मिट्टी की निकासी प्रदान करके बरसात के मौसम में पानी के ठहराव से बचें।

खरपतवार प्रबंधन

पुदीना की फसल में खरपतवार नियंत्रण के लिए महत्वपूर्ण दिन बुवाई के 75-90 दिनों तक होते हैं, फसल की वृद्धि के शुरुआती चरणों में नियमित अंतराल पर निराई और गुड़ाई की आवश्यकता होती है। रोपण के पहले छह हफ्तों के भीतर हाथ या यांत्रिक कुवाल से निराई-गुड़ाई करने से खरपतवारों पर नियंत्रण होता है। पेंडीमिथालिन 0.75 मिली प्रति है. 700-800 लीटर पानी में घोलकर बुवाई / रोपाई के पश्चात ओट आने पर यथा शीघ्र छिड़काव कर दें। निर्वाध खरपतवार वृद्धि से तेल का उत्पादन लगभग 60 प्रतिशत तक काम हो जाता है।

कटाई

पुदीने की कटाई साल में 2-3 बार की जाती है यानी जून और अक्टूबर महीनों में काटा जाता है। पहली कटाई 100- 120 दिनों की वृद्धि के बाद जय पौध में कलिया आने लगे और दूसरी कटाई पहली कटाई के लगभग 80-90 दिनों में काटी जाती है। कटाई के चरण में ताजा जड़ों में 0.5 से 0.68 प्रतिशत तेल होता है और 5-7 घंटे तक सूखने के बाद आसवन के लिए तैयार होता है। कटाई करने के पश्चात पौधों को 4-6 घंटों तक खुली धूप में छोड़ वें उसके बाद कटी फसल को छाया में हल्का सुखाकर जल्दी आसवन विधि द्वारा यंत्र से तेल निकाल लें।

उपज

20-30 टन प्रति हेक्टेयर होती है जो यो कटाइयों में प्राप्त होती है। जिसे एक वर्ष में 125-150 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तेल की पैदावार होती है।

कीट प्रबंधन

दीमक- दीमक फसल की जड़ों को नुकसान पहुँचता है जिसके फलस्वरूप पौधे सूख जाते है। दीमक से फसल को बचाने के लिए क्लोरोपाइरीफास 2.5 लीटर प्रति हे. की दर से सिंचाई के पानी के साथ प्रयोग करें।

लीफ फोल्डर कीट- इस कीट की सूडियां अगस्त-सितंबर के दौरान पत्तीको रोल के रूप में मोहती है और पती ऊतक के अंदर से चखाती है। इसकी रोकथाम के लिए फेनवेलरेट 750 मिली. प्रति हेक्टेयर की दर से 600 से 700 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।

बालदार सूंडी– यह पत्तियों की निचली सतह पर रहती है और पत्तियों को खाती है। इसकी रोकथाम के लिए पौधसंरक्षण डाइक्लोरोवास 500 मिली. या फेनवेलरेट 750 मिली. प्रति है. की वर से 600-700 लीटर पानी में घोलकर छिड़‌काव करें।

रोग प्रबंधन

जड़ सड़न रोग- इस रोग में जड़ों में नुकसानदेह फफूंदी के प्रकोप से जड़ें काली पड़कर सड़ने लग जाती हैं। गुलाबी रंग के धब्बे जड़ों पर उमर आते हैं। 2 ग्राम कार्बेन्डाजिम प्रति लीटर पानी में घोलकर बुवाई से पहले जड़ों का शोधन करें।

पत्ती धब्बा रोग- इस बीमारी के प्रकोप से पत्तियों पर धूलदार नारंगी रंग के धब्बे दिखाई देते हैं जो गंभीर स्थिति में भूरे या काले रंग के हो जाते हैं जिससे पौधे का विकास रुक जाता है। पुरानी पतियां पीली होकर गिरने लगती है। इसके रोग को फैलने से रोकने के लिए संक्रमित पौधों और प्रकंदों को हटा दें। जड़ों का ताप उपचार रोग को नियंत्रित करने में मदद कर सकता है तथा मेंकोजेब 75 डब्लूपी नामक फफूंदीनाशक की 2 किलोग्राम मात्रा 700-800 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हेक्टर की दर से छिड़काव करें I

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