फसल की खेती (Crop Cultivation)

पर्यावरण हितैषी खेती

प्रत्येक अंचल की अपनी एक खास खुशबू होती है जो वहीं कि आबो-हवा से बनती और संवरती है किसी भी प्रदेश की संस्कृति मनुष्य की तीन मूलभूत आवश्यकताओं के आधार पर ही विकसित होती है। ये तीन मूलभूत आवश्यकता है। रोटी, कपड़ा, मकान रोटी अर्थात भोजन भारतीय कृषि में अधिक पैदावार देने वाली किस्मों, रसायनिक उर्वरकों तथा नाशीजीवनाशकों के वृहद पैमाने पर इस्तेमाल एवं सिंचाई सुविधाओं के विस्तार के फलस्वरूप आई खाद्यान्न उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि को हरित क्रन्ति के नाम से जाना जाता है। देश में हरित क्रान्ति की शुरुआत 1965-66 में हुई । यहि वह वर्ष था जब देश में सूखे की स्थिति थी तथा इसी वर्ष अधिक पैदावार देने वाली फसलों के बीज भी उपलब्ध थे। हरित क्रन्ति के परिणामस्वारुप भारत खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर हो गया। हरित क्रान्ति से पूर्व देश में भुखमरी तथा कुपोषण की स्थिति थी और खाद्यान्न की आपूर्ति को सुनिश्चित करने के लिए खाद्यान्नों का आयात दूसरे देशों से किया जाता था। देश में 1949-50 में खाद्यान्न  उत्पादन लाभ 51 मिलियन टन था जो 1978 में हरित क्रान्ति के परिणामस्वरुप बढ़कर 130 मिलियन टन तक पहुंच गया। हरित क्रान्ति के फलस्वरुप आज देश में खाद्यान्न लाभ 260 मिलियन टन तक पहुंच चुका है। वर्तमान में 2016-17 में भारत सरकार ने खाद्यान्न उत्पादन का लक्ष्य 270 मिलियन टन रखा है। हरित क्रान्ति जहां एक ओर देश से भुखमरी मिटाने में कारगर साबित हुई वहीं दूसरी ओर अपने तमाम प्रभावों के कारण आज यह क्रान्ति हानिकारक साबित हो रही हैं। भारत में हरित क्रान्ति का पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण, कृषि एवं मानव स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ा है। आधुनिक यान्त्रिक औजारों के उपयोग में वनों की कटाई कर उन्हे कृषि भूमि में परिवर्तित कर दिया गया। भारत में प्रति व्यक्ति वन भूमि दुनिया की औसत 1.0 हेक्टेयर की तुलना में मात्र 0.1 हेक्टेयर है। भारत में वन क्ष्ेात्रफल विश्व के कुल वन क्षेत्रफल का मात्र 0.5 प्रतिशत है। भारत में वन ह्रास की दर 1.5 मिलियन हेक्टेयर प्रतिवर्ष है जिसके कारण 6 मिलियन टन मिट्टी का बहाव प्रतिवर्ष होता है। वन की कटाई के परिणामस्वरुप सूखा, बाढ़, जैव-विविधता ह्रास तथा मिट्टी का बहाव एवं वैश्विक तपन जैसी समस्याएं पैदा हुई है।
विकास की अंधी दौड़ में हमने अपनी परम्परागत

म.प्र. में उद्यानिकी स्वर्ण क्रांति अभियान प्रारंभ

खेती को छोड़कर आधुनिक कही जाने वाली खेती को अपनाया। हमारे बीज- हमारी खाद- हमारे जानवर सबको छोड़ हमने अपनाये उन्नत कहे जाने वाले बीज, रसायनिक खाद और तथाकथित उन्नत नस्ल के जानवर। नतीजा, स्वावलम्बी और आत्मनिर्भर किसान खाद, बीज, दवाई बेचने वालों से लेकर पानी बेचने वालों और कर्जा बांटने वालों तक के चँगुल में फंस गये। यहां तक की उन्नत खेती और कर्ज के चंगुल में फंसे कई किसान आत्महत्या करने तक मजबूर हो गये । खेती में लगने वाले लागत और होने वाला लाभ भी बड़ा सवाल है किन्तु खेती केवल और केवल लागत और लाभ ही नहीं है हमारे समाज और बच्चों का पोषण, मिट्टी की गुणवत्ता, पर्यावरण, जैव विविधता, मिट्टी और पानी कर संरक्षण, जानवरों का अस्तित्व तथा किसानों और देश की सम्प्रभुता भी खेती से जुड़े हुए व्यापक मसले है। हम तो परम्परागत तौर पर मिश्रित और चक्रीय खेती करते आये हैं। जिसमें जलवायु, मिट्टी की स्थिति और पानी की उपलब्धता के आधार पर बीजों का चयन होता रहा है। हमारे खेतों में हरी खाद एवं गोबर की खाद का उपयोग होता था। हमारे पूर्वज पूर्ण जानकार थे पानी वाली जगहों पर पानी वाली और कम पानी वाली जगहों पर कम पानी वाली फसल करते थे। हमारे खेतों में खेती के अलावा, फल वाले पौधे, इमारती और जलाऊ लकड़ी के पेड़, जानवरों के लिये चारा सब कुछ तो होता था । किन्तु एक फसली उन्नत और आधुनिक कही जाने वाली खेती के चक्रव्यूह में हमने अपनी परम्परागत और उन्नतशील खेती को छोड़ दिया ।
”पर्यावरण हितैषी खेती को लाभदायक बनाने के लिए दो ही उपाय हैं। उत्पादन को बढ़ाएँ व लागत खर्च को कम करें। कृषि में लगने वाले मुख्य आदान हैं जैविक खाद एवं जैविक उर्वरक किसी भी खेत को पारंपरिक खेती से जैविक खेती की ओर उन्मुख करने के लिए सबसे पहला कदम है उस मिटटी की खोई उर्वरता की पुर्नस्थापना। इसके लिए आवश्यक है रसायनिक उपादानों के प्रयोग पर पुर्ण प्रतिबंध तथा जैविक व जीवाणु मित्र तथा जैविक प्रक्रियाओं का अधिकाधिक प्रयोग।
जैविक खाद क्या है।
जैविक खाद वे सूक्ष्म जीव हैं जो मृदा में पोषक तत्वों को बढ़ा कर उसे उर्वर बनाते हैं। प्रकृति में अनेक जीवाणु और नील हरित शैवाल पाए जाते हैं जो या तो स्वयं या कुछ अन्य जीवों के साथ मिलकर वायुमण्डलीय नाइट्रोजन का यौगिकीकरण करते हैं( वातावरण में मौजूद गैसीय नाइट्रोजन को अमोनिया में परिवर्तित करते हैं)। इसी प्रकार, प्रकृति में अनेक कवक और जीवाणु पाए जाते हैं जिनमें मृदा में बंद्ध फॉस्फेट को मुक्त करने की क्षमता होती है। कुछ ऐसे कवक भी होते हैं जो कार्बनिक पदार्थों को तेजी से विघटित करते हैं जिसके फलस्वरूप मृदा को पोषक तत्व प्राप्त होते हैं। अत: जैविक खादें नाइट्रोजन के यौगिकीकरण, फॉस्फेट की घुलनशीलता और शीघ्र पोषक तत्व मुक्त करके मृदा को उपजाऊ बनाती हैं।
जैंविक खादों का उपयोग आज समय की आवश्यकता क्यों है?
मृदा की उर्वरा शक्ति को बढ़ाने वाले रसायनिक उर्वरक काफी महंगे होते हैं और इनका उत्पादन अनवीकरणीय पेट्रोलियम फीडस्टॉक से किया जाता है जो धीरे-धीरे कम हो रहा है। रसायनिक खादों का निरंतर उपयोग मृदा के लिए हानिकारक होता है। उदाहरण के लिए, नाइट्रोजनी खाद यूरिया का अत्यधिक उपयोग मृदा की संरचना को नष्ट कर देता है। इस प्रकार मृदा, वायु और जल जैसे अपरदनकारी कारकों से क्षरण के प्रति संवेदनशील हो जाती है। रसायनिक खादें सतह और भूमिगत जल प्रदूषण के लिए भी उत्तरदायी होती हैं। इसके अतिरिक्त, नाइट्रोजनी खादों के प्रयोग से फसलोंं पर रोग और नाशीजीवों के प्रकोप की भी संभावना रहती है। रसायनिक खादों के निरंतर प्रयोग से मृदा में ह्यूमस और पोषक तत्वों की कमी हो जाती हैं जिसके परिणामस्वरूप उसमें सूक्ष्म जीव कम पनपते हैं। रसायनिक खादों के अत्यधिक उपयोग के कारण भारतीय मृदाओं में कार्बनिक पदार्थों और नाइट्रोजन की आमतौर पर कमी पाई जाती है। सुपरफॉस्फेट के अत्यधिक उपयोग से पौधों में तांबे और जस्ते की कमी हो जाती है। उक्त के अतिरिक्त, रासायनिक खादें खाद्य फसलों के पोषक तत्वों की मात्रा को भी बदल देती हैं। नाइट्रोजनी खाद यूरिया के अत्यधिक प्रयोग से खाद्यान्नों में पोटैशियम तत्व की कमी हो जाती है। इसी प्रकार, पोटाश का अत्यधिक प्रयोग करने से पौधों में विटामिन सी और कैरोटीन अंश की कमी हो जाती है। नाइट्रेट खाद फसल की पैदावार को तो बढ़ाती है लेकिन ऐसा प्रोटीन की कीमत पर होता है। इसके अतिरिक्त, इससे प्रोटीन के अणुओं में एमिनों अम्लों का संतुलन बिगड़ जाता है जिसके कारण प्रोटीन की गुणवत्ता कम हो जाती है।
रसायनिक खादों के उपयोग से बड़े आकार के फल और सब्जियां उत्पन्न होती हैं जिन पर कीटों और अन्य नाशीजीवों का प्रकोप अधिक होता है।
निष्कर्ष
रसायनिक खादों का प्रयोग पर्यावरण की गुणवत्ता और मृदा की उर्वरा शक्ति को कम करता है। इसके अतिरिक्त, रसायनिक खादें खाद्यान्नों की पोषणीय गुणवत्ता को भी कम कर देती हैं अत: मृदा की उर्वरता, पर्यावरण की गुणवत्ता और पोषकों से भरपूर खाद्यान्नों के उत्पादन के लिए जैविक खादों तथा जैविक उर्वरकों का उपयोग आज समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है। जिसे हम आज ”पर्यावरण हितैषी खेतीÓÓ नाम से कह सकते हैं या पुकारा जा सकता हैं।

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