फसल की खेती (Crop Cultivation)

मूंग में जैविक तनाव (स्ट्रेस) प्रबंधन

  • डॉ. अनिल दीक्षित
    संयुक्त निदेशक, भा. कृ. अनु. परि.- राष्ट्रीय जैविक स्ट्रेस प्रबंधन संस्थान, रायपुर (छ.ग.)
  • डॉ. ओमप्रकाश राजवाड़े
    यंग प्रोफ़ेशनल-II, भा.कृ.अनु.परि.- राष्ट्रीय जैविक स्ट्रेस प्रबंधन संस्थान, रायपुर (छ.ग.)

 

23 मार्च 2023, मूंग में जैविक तनाव (स्ट्रेस) प्रबंधन – पौधों में तनाव बाहरी परिस्थितियों को संदर्भित करता है जो पौधों की वृद्धि, विकास या उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है।  पौधों में पर्यावरणीय तनावों को मुख्यत: दो प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है जो कृषि उत्पादकता को सीमित करता है- 1. अजैविक तनाव  और 2. जैविक तनाव

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अजैविक तनावों में लवणता, सूखा, बाढ़, जल भराव स्थिति, तापमान, भारी धातु, विकिरण आदि शामिल हैं। यह एक प्रमुख कारक है कि दुनिया भर में प्रमुख फसल पौधों के नुकसान का कारण बनता है। यह दुनिया के बढ़ते मरुस्थलीकरण के कारण और अधिक कठोर होना स्थलीय क्षेत्र, मिट्टी और पानी की बढ़ती लवणता, की कमी जल संसाधन और पर्यावरण प्रदूषण स्थिति बनती जा रही है।

जैविक तनाव पौधों को प्रभावित करने वाले प्रमुख पर्यावरणीय कारकों में से एक है। वायरस, कवक, बैक्टीरिया, खरपतवार, कीड़े और अन्य कीट और रोगजनक कृषि उत्पादकता के लिए एक प्रमुख बाधा है तथा सब्जी और अनाज की फसलों के लिए एक गंभीर खतरा हैं। रोगजनकों और कीटों से पौधों की सुरक्षा एक व्यावसायिक रूप से महत्वपूर्ण मुद्दा है और शोध की मुख्य दिशाओं में से एक है। हमारे देश में सब्जियों, अनाज और अन्य कृषि फसलों की विभिन्न किस्मों के लिए वायरल रोग भी एक वास्तविक खतरा बन गए हैं। यह व्यापक रूप से पत्ती के पीलेपन, तने और पत्ती के विरूपण का कारण बनता है, फल की गुणवत्ता को कम करता है, पर्याप्त उपज हानि और फसलों के जीवन चक्र को छोटा करता है।

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मूंग दाल भारत की तीसरी महत्वपूर्ण दलहनी फसल है। भारत में मूंग तीनों मौसमों यानी खरीफ, रबी और बसंत/ग्रीष्म में उगाई जाती है। विभिन्न दलहनी फसलों में, मूंग की किसी भी फसल प्रणाली में आसानी से सम्मिलित होने की अनूठी विशेषता है। भारत में मूंग मुख्य रूप से खरीफ फसल उगाई जाती है, हालांकि सिंचाई की बढ़ती सुविधाओं और कम अवधि की किस्मों की उपलब्धता के साथ, बसंत/गर्मी के मौसम में इसकी खेती में भी तेजी आई है। इसके साथ ही,देश के दक्षिणी और तटीय क्षेत्रों में धान की परती भूमि में मूंग की फसल रबी फसल के रूप में भी उगाई जाती है। मूंग की उच्च उत्पादकता प्राप्त करने के लिए जैविक तनाव प्रबंधन महत्वपूर्ण हो जाता है।

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मूंग उच्च गुणवत्ता वाले प्रोटीन (20-25 प्रतिशत) का एक उत्कृष्ट स्रोत है। हमारे देश में इसे मुख्य ‘दाल’ के रूप में उपयोग किया जाता है। यह आसानी से पचने वाला माना जाता है और इसलिए रोगी इसे पसंद करते हैं। यह एक अच्छा राइबोफ्लेविन, थायमिन और विटामिन सी (एस्कॉर्बिक एसिड) का स्रोत भी है। मूंग दलहनी फसल होने के कारण हरी खाद की फसल के रूप में भी प्रयोग कर वायुमंडलीय नाइट्रोजन स्थिरीकरण (30-40 किग्रा एन/हेक्टेयर) करने की क्षमता होती है यह मिट्टी के कटाव को रोकने में भी मदद करता है। फसल की अवधि कम होने के नाते यह कई गहन फसल चक्रों में अच्छी तरह से फिट बैठती है। हरे पौधों को जड़ से उखाड़ दिया जाता है या काट दिया जाता है जमीन के स्तर और छोटे टुकड़ों में काटकर मवेशियों को खिलाया जाता है। भारत दुनिया में मूंग का प्रमुख उत्पादक है, और यह लगभग सभी राज्य में उगाया जाता है। भारत में यह 42.38 लाख हेक्टेयर क्षेत्र के साथ लगभग 30.9 लाख टन कुल उत्पादन होता है तथा लगभग  729.1 किग्रा/हेक्टेयर की उत्पादकता लिया जाता है। कुल दालों में मूंग का क्षेत्र में योगदान 16 प्रतिशत और उत्पादन में 10 प्रतिशत है।

मूंग में आने वाले खरपतवार एवं प्रबंधन

मूंग में नींदा नियंत्रण सही समय पर नहीं करने से फसल की उपज में 40-60 प्रतिशत तक की कमी हो सकती है।  खरीफ मौसम में फसलों में सकरी पत्ती वाले खरपतवार जैसे: सांवा (इकाईनाक्लोक्लोवा कोलाकनम/कुसगेली), दूब घास (साइनोडॉन डेक्टाइलोन) एवं चौड़ी पत्ती वाले पत्थर चट्टा (ट्रायन्थिमा मोनोगायना), कनकवा (कोमेलिना वेघालेंसिस), महकुआ (एजीरेटम कोनिज्वाडिस), सफेद मुर्ग (सिलोसिया अर्जेंसिया), हजारदाना (फाइलेन्थस निरुरी) एवं लहसुआ (डाइजेरा आरसिस) तथा मोथा (साइप्रस रोटन्डस, साइप्रस इरिया) आदि वर्ग के खरपतवार बहुतायत निकलते हैं। फसल व खरपतवार की प्रतिस्पर्धा की क्रान्तिक अवस्था मूंग में प्रथम 30 से 35 दिनों तक रहती है।

खरपतवार नियंत्रण का उपयुक्त समय

मूंग में खरपतवार की संख्या, किस्म एवं फसल के साथ प्रतिस्पर्धा, मूंग की पैदावार में अत्यधिक कमी अंकित करते हंै। अत: यह अत्यन्त आवश्यक है कि मूंग में खरपतवार नियंत्रण की प्रक्रिया को प्रारम्भिक अवस्था में अपनाया जाए जिससे, खरपतवारों की तीव्र वृद्धि को रोक कर फसल में हो रहे नुकसान को रोका जा सके। खरपतवारों के प्रारम्भिक अवस्था में उन्मूलन के परिणामस्वरूप मुख्य फसल को सम्पूर्ण विकास के पूर्ण अवसर प्राप्त होते हंै तथा अधिक फसल पैदावार से किसान को उचित आर्थिक लाभ प्राप्त हो सकता है।

खरपतवार रोकथाम की विधियां

गहरी जुताई : ग्रीष्म कालीन गहरी जुताई द्वारा खरपतवारों के बीज व कंद मिट्टी के ऊपर आ जाते है जिसके कारण तेज धूप एवं गर्मी में अपनी अंकुरण क्षमता को खोकर निष्क्रिय हो जाते हंै। इससे कीटों व व्याधियां का प्रकोप भी कम होता है।

शुद्ध बीजों का प्रयोग: बुवाई के समय शुद्ध और साफ बीज जिसमें खरपतवार का बीज न हो का प्रयोग की रोकथाम के लिए बहुत ही लाभदायक है।

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हाथ द्वारा निराई-गुड़ाई : सरल और प्रभावी खरपतवार नियंत्रण के लिए हाथ द्वारा निराई-गुड़ाई फसल की प्रारम्भिक अवस्था (15-45 दिन की बुवाई के पश्चात) की जाती है जो कि खरपतवारों से प्रतियोगिता की दृष्टि से उपयुक्त समय माना जाता है। अत: आरम्भिक अवस्था में ही फसलों से खरपतवारों का रोधन फसलोत्पादन को बढ़ाता है।

उचित फसल चक्र अपनाकर: प्रभावी खरपतवार नियंत्रण के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि एक ही फसल को बार-बार एक ही खेत में न उगाया जाए। इस क्रम में फसल चक्र को अपनाकर खरपतवारों के प्रकोप को नियंत्रित किया जा सकता है। अंत: फसल प्रणाली जैसे अरहर के साथ ज्वार व मूंग की फसल को लगाकर भी खरपतवार के प्रकोप को कम कर सकते हैं।

यांत्रिक विधियां: यांत्रिक विधियों में खरपतवारों विभिन्न उपकरण को हटाना शामिल है और औजार, और जुताई, गुड़ाई, मल्चिंग, जलाना आदि। इंटरकल्चरल अभ्यास हाथ, बैल या ट्रैक्टर द्वारा उपयोग किए जाने वाले उपकरणों के साथ किया जाता है फसलों के विकास के लिए अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण करना।

निराई-गुड़ाई : फसल बोने के 35-40 दिन के भीतर खरपतवारों  की सघनता के अनुसार एक या दो निराई-गुड़ाई पर्याप्त होती है।

 

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