तिल की उन्नत खेती
- दुर्गाशंकर मीना, तकनीकी सहायक
- जयराज सिंह गौड़, कृषि पर्यवेक्षक, मुकुट बिहारी मीना, कृषि पर्यवेक्षक
कृषि अनुसंधान केंद्र, मंडोर, कृषि विश्वविद्यालय, जोधपुर
15 फरवरी 2022, तिल की उन्नत खेती – भारत में तिल की फसल की खेती मुख्य रूप से खरीफ ऋतु के रूप में की जाती है। तिल जल भराव के लिये अतिसवेनदंशील होती है, इसलिए इस फसल की सफल खेती अच्छी जल निकास वाली मिट्टी के साथ कम वर्षा वाले क्षेत्रों मे आसानी से की जा सकती हैं भारत वर्ष में तिल की खेती गुजरात, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान, आन्ध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल तथा हिमाचल में की जाती है। देश के तिल उत्पादन का 20 प्रतिशत अकेले उत्तरप्रदेश से प्राप्त होता है। तिल की खेती शु़द्ध एवं मिश्रित रूप में की जाती है। मैदानी क्षेत्रों में तिल की खेती आमतौर पर ज्वार, बाजरा, अरहर के साथ मिश्रित रूप में की जाती है। एमिटी कृषि प्रसार सेवा केन्द्र भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् -अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना जेएनकेवीवी, जबलपुर के सहयोग से 5 वर्षों से किसानों के प्रक्षेत्र पर तिल के अग्रिम पंक्ति प्रदर्शन का आयोजन करा रहा है। हमारे देश में तिल की उत्पादकता बहुत कम है आधुनिक कृषि पद्धतियाँ अपनाकर तिल का उत्पादन बढ़ाया जा सकता है।
भूमि
तिल की खेती के लिए उचित जल निकास वाली हल्की बलुई दोमट मृदा सर्वोत्तम होती है। 7 से 8 पी.एच. मान वाली भूमि में इसे आसानी से उगाया जा सकता है।
खेत की तैयारी
एक जुताई मिट्टी पलट हल (हैरो) से तथा 2-3 जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से करके खेत को तैयार कर लें। रोटावेटर की 1 जुताई पर्याप्त होती है। एक हेक्टेयर में 10-15 टन गोबर की सड़ी हुई खाद अच्छी प्रकार मिला दें। खेत की तैयारी के समय नीम की खली डालना लाभकारी होता है। जिसके फलस्वरूप फंगस द्वारा होने वाले रोगों का नियंत्रण हो जाता है। बुवाई के समय खेत में पर्याप्त नमी होना आवश्यक है ताकि अच्छा अंकुरण हो सके।
बीज का चुनाव
फसल का अच्छा उत्पादन प्राप्त करने की लिए अच्छी किस्म के प्रमाणित बीज का प्रयोग करें। तिल की कुछ महत्वपूर्ण प्रतातियाँ इस प्रकार है- शेखर, टी-78, प्रगति, आर.टी.-350, आर.टी.-351, टी.के.जी.-21, टी.के.जी.-306, हरियाणा तिल-1 व माधवी। एक हेक्टेयर के लिए 3-4 किलो बीज पर्याप्त होता है।
बीज उपचार
जड़ एवं तना गलन रोग से बचाव के लिए बुवाई से पूर्व ट्राइकोडर्मा विरिडी 4 ग्राम प्रति किग्रा बीज की दर से उपचारित करें। बुवाई से पूर्व 2.5 किग्रा ट्राइकोडर्मा विरिडी को 2.5 टन गोबर की खाद में मिलाकर खेत में प्रयोग करने से जड़ एवं तना गलन सडऩ रोग की रोकथाम हो जाती है।
बुवाई का समय
फसल की बुवाई के समय का फसल उत्पादन में सीधा महत्व होता है। मानसून की पहली वर्षा के बाद जुलाई के प्रथम सप्ताह में तिल की बुवाई अवश्य कर देें। देर से बुवाई करने पर उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
बुवाई विधि
तिल की बुवाई में गहराई का विशेष ध्यान रखें। बीज को कम गहराई 4-5 सेमी. पर हल के पीछे 30345 सेमी पर बोने से अच्छी पैदावार प्राप्त होती है।
खाद एवं उर्वरक
अगर संभव हो तो मिट्टी की जाँच कराकर संतुलित खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग किया जाये। बुवाई से पूर्व 250 किग्रा जिप्सम का उपयोग फसल उत्पादन को बढ़ाता है। बुवाई से पूर्व नीम की खली का प्रयोग भी अति लाभकारी सिद्ध होता है। मिट्टी की जाँच संभव ना हो पाने पर सिंचित क्षेत्रों में 50 किग्रा नाइट्रोजन, 30 किग्रा फास्फोरस, 20 किग्रा पोटाश प्रति हेक्टेयर वर्षा आधारित क्षेत्रों में 25 किग्रा नाइट्रोजन, 20 किग्रा फास्फोरस प्रति हेक्टेयर प्रयोग करें। 20 किग्रा गंधक प्रति हेक्टेयर प्रयोग से पैदावार में अप्रत्याशित वृद्धि होती है। सिंचित क्षेत्रों में नाइट्रोजन की आधी मात्रा व अन्य उर्वरकों की पूरी मात्रा बुवाई के समय व नाइट्रोजन की शेष मात्रा बुवाई के एक माह बाद फसल में प्रयोग करें।
सिंचाई
तिल की फसल वर्षा ऋतु में लगायी जाती है। आमतौर पर सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है। वर्षा ना होने की दशा में जब फसल में 60 प्रतिशत तक फलियाँ बन जायें तो उस समय सिंचाई करना आवश्यक होता है।
निराई-गुड़ाई
आवश्यकतानुसार निराई-गुड़ाई करके फसल को खरपतवार मुक्त कर दें। खरपतवार नियंत्रण नहीं होने पर पैदावार कम होती है। निराई-गुड़ाई संभव न होने पर एलाक्लोर 2.5 किग्रा. दाना या 1.5 ली0 प्रति हैक्टेयर बुवाई से पूर्व प्रयोग करें अथवा पेंडीमेथालिन 30 ई.सी. की 1 लीटर सक्रिय तत्व 3.3 लीटर दवा को 800 लीटर पानी में मिलाकर बुवाई के तुरन्त बाद 1-2 दिन में छिडक़ाव करने से फसल में खरपतवार नहीं उगते हैं।
फसल की कटाई- जब फलियों (कैप्सूल) का रंग पीला पड़ जाये तो वह कटाई का उपयुक्त समय होता है। इसके बाद फलियाँ फटने लगती है और बीज बिखरने लगता है। उचित समय पर कटाई करके सुखाकर फसल की गहाई करके बीज को अलग कर लेते हंै और 8 प्रतिशत नमी पर भण्डारण करें।
फसल की कीटों से सुरक्षा
तिल में पत्ती व फल की सूँडी का अधिक प्रकोप होता है। सूडिय़ाँ पत्तियों व फलों को खाकर जाला बना देती है।
कीट नियंत्रण फसल में जैविक कीट नियंत्रण पर बल दें क्योंकि रसायनिक कीट नियंत्रण में फसल की लागत बढऩे के साथ-साथ फसल की गुणवत्ता पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है। अत: जैविक नियंत्रण के अंतर्गत बुवाई के पूर्व नीम की खली 250 किग्रा प्रति हेक्टेयर और ट्राइकोडर्मा हारजिएनम 4 ग्राम प्रति किग्रा बीज उपचार के साथ-साथ 2.5 किग्रा प्रति हेक्टेयर भूमि में मिलायें। फसल डेढ़ माह की हो जाने पर नीम आधारित एजेडिरीक्टीन की 3 मिली मात्रा प्रति लीटर के दर से फसल पर छिडक़ाव करें अथवा नीम का तेल 10 मिली प्रति लीटर पानी के दर से छिडक़ाव करें। मूँग के साथ मिश्रित खेती करने से फसल में कीटों का प्रकोप कम होता है और पैदावार बढ़ जाती है।
रोग नियंत्रण
तिल की फाइलोडी- यह माइक्रोप्लाजमा द्वारा होता है। इस रोग से पौधों का पुष्प विन्यास पत्तियों का विकृत रूप में बदलकर गुच्छा बन जाता है।
फाइटोप्थोरा झुलसा- रोग आने पर पौधों की पत्तियाँ व कोमल भाग झुलस जाते हैं।
समन्वित रोग नियंत्रण के लिए ट्राइकोडर्मा विरिडी 4 ग्राम प्रति किग्रा बीज उपचारित करके बुवाई करें। नीम तेल 10 मिली प्रति लीटर पानी का घोल बनाकर छिडक़ाव करें।
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