Crop Cultivation (फसल की खेती)

जैविक विधि से खेती

Share

वर्मी कंपोस्ट में कई प्रकार के एग्जाइम तथा हार्मोन्स पाए जाते हैं

जैविक पद्धति में किसी भी प्रकार की रासायनिक खादों व कीटनाशकों का उपयोग नहीं होता है। औषधीय पौंधों के दूसरी खादों की तुलना में इससे कम मात्रा में काम चल जाता है। अर्थात् यदि 20 क्विंटल वर्मी कम्पोस्ट प्रति एकड़ किसी खेत में डालते हंै तो लगभग इससे 50 किलो नाइट्रोजन, 50 किलो फास्फोरस तथा 30 किलो पोटाश प्राप्त हो जाता है।

वर्मी कंपोस्ट में कई प्रकार के एग्जाइम तथा हार्मोन्स पाए जाते हैं जो सामान्यत: अन्य जैविक खादों में नहीं पाये जाते हैं। वर्मी कंपोस्ट के इस्तेमाल से भूमि में स्फुर शोषक जीवाणुओं तथा नाईट्रोजन स्थिरीकरण करनें वाले जीवाणुओं की संख्या में वृद्धि होती है और भूमि का अम्लीय एवं क्षारीय प्रभाव भी सुधरता है। वर्मी कंपोस्ट के इस्तेमाल से जमीन मे सिंचाई की अपेक्षाकृत कम आवश्यकता पड़ती है।

परम्परागत गोबर खाद के कई बार कच्ची रह जाने के कारण फसल को दीमक अथवा गोबर की सुंडी आदि से हानि हो सकती है। परंतु केंचुआ खाद चूॅंकी पूर्णत: पकी हुई होती है। अत: इसके उपयोग से फसल में किसी प्रकार से कीड़े अथवा दीमक आदि के लगनें की संभावनाएॅं नहीं रहतीं हैं।

गोबर से तैयार की जाने वाली खादें

अधिकांशत: जैविक पद्धति की आलोचना इस कारण से की जाती है कि इससे विभिन्न खादें एवं कीटनाशक बनानें में काफी समय लग जाता है। इसी कमी को दूर करनें के लिये वैज्ञानिकों नें गोबर से शीघ्र खादें बनानें की कई विधियॉं विकसित की हैं, जिसमें प्रमुख हैं-

(अ) अमृतपानी विधि

(ब) अमृत से जीवनीं विधि

(स) जीवामृत खाद विधि तथा

(द) मटका विधि

इसमें विभिन्न खादों के निर्माण हेतु विभिन्न फार्मूले विकसित किए गये हैं

मटका विधि में 15 कि.ग्रा. देषी गाय का ताजा गोबर, 15 लीटर ताजा गोमूत्र तथा 15 लीटर पानी मिट्टी के घढ़े में घोल लेते हैैं, तथा मिट्टी के बर्तन को ऊपर से कपड़ा तथा टाट के साथ मिट्टी से पैक कर देते है। 4-5 दिन इस घोल में 200 लीटर पानी मिलाकर इस मिश्रण को एक एकड़ में समान रूप से छिड़क देते हैं, यह छिड़काव बोनीं के 15 दिन पश्चात् करते हैं।

संदर्भ में जैविक विधि से खेती को मुख्यत: दो भागों में बांटा जा सकता है:-

1. पौध पोषण हेतु जैविक विधियॉं तथा
2. पौध सुरक्षा हेतु जैविक विधियॉं

हरी खाद

हरी खाद से अभिप्राय उन फसलों से तैयार की जा सकनें वाली खाद है जिन्हें केवल खाद बनानें के उद्देश्य से लगाया जाता है तथा इन पर फल-फूल आनें से पहले ही इन्हे मिट्टी में दबा दिया जाता है। ये फसलें सूक्ष्मजीवों द्वारा विच्छेदित होकर भूमि में ह्यूमस तथा पौधों की वृद्धि के लिए आवश्यक पोषक तत्वों की मात्रा में वृद्धि करते हैं।

हरी खाद से कई लाभ हैं, इसके प्रयोग से भूमि में कार्बनिक पदार्थों तथा नाईट्रोजन की मात्रा में वृद्धि होती है, इससे भूमि की जलधारण क्षमता बढ़ती है तथा भूमि में वायु का आवागमन बढ़ता है और हरी खाद की फसलें जल्दी ऊगती और बढ़ती है जिससे अनावष्यक खरपतवार को पनपने का मौका नहीं मिलता है इससे भूमि की संरचना सुधरती है और भूमि की निचली परत से पोषक तत्वों का शोषण करके इसे भूमि की ऊपरी परत पर छोड़ती है जिन्हे औषधीय पौधे आसानी से ग्रहण कर लेते हैं। क्योंकि हरी खाद के पौधों से भूमि को 15-35 कि.ग्रा./हा. तक नाइट्रोजन की मात्रा प्राप्त होती है।

वर्मी कम्पोस्ट अथवा केंचुआ खाद

वर्मी कम्पोस्ट वह विधि है जिसमें कूड़ा, कचरा तथा गोबर को केंचुआ तथा सूक्ष्म जीवों की सहायता से उपजाऊ खाद अथवा वर्मी कम्पोस्ट में बदला जाता है। इसे ही केेंचुआ खाद कहा जाता है। अन्य खादों की तुलना में वर्मी कम्पोस्ट फसल के लिए ज्यादा उपयुक्त है क्योंकि इससे न केवल फसल के लिए आवश्यक पोषक तत्व ज्यादा मात्रा में उपलब्ध हैं  तथा 7 दिन पश्चात  इसे पुन: दोहराते है। इन शीघ्र खादों के उपयोग से खेत में करोड़ो सूक्ष्म जीवाणुओं की वृद्धि होती हे। जिससे खेत में हयूमस की भी वृद्धि होती हैै।

पौध सुरक्षा हेतु जैविक विधियां

रासायनिक कीटनाशक अत्यधिक महगें होने के कारण न केवल किसानों को इस पर अत्याधिक खर्च करना पड़ता है बल्कि इसके निरंतर प्रयोग के कारण कीटों में इसके प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो चुकी है इन्हीं कारणों से वैज्ञानिकों का ध्यान प्राकृतिक एवं जैविक कीटनाशकों और रोगनाशकों की तरफ गया ये न केवल सस्ते है बल्कि इसके उपयोग से तैयार होने वाली फसल में किसी प्रकार के रासायनिक दुष्प्रभाव भी नहीं रहते है। फसल सुरक्षा हेतु उपयोग होने वाले जैविक कीटनाशक निम्न है।

गौमूत्र

गौमूत्र में 33 प्रकार के तत्व पाए जाते है। जिसके कारण फसलों की कीट फफूंद एवं विषाणु रोगों से बचाव होता है। गौमूत्र में उपस्थित गंधक कीटनाषक का कार्य करता है, जबकि इसकी नाइट्रोजन, फास्फोरस, लोहा, चूना, सोडियम आदि फसल को रोगमुक्त रखते है। गौमूत्र को देशी गाय के 10 लीटर मूत्र को तांबे के बर्तन में 1 कि.ग्रा. नीबू के पत्तों के साथ 15 दिन के लिए रख देते है। फिर ताम्बे  की कढ़ाई में 50 प्रतिशत रह जाने तक पकाते है और उतार कर छान लेते है और इसमें 100 गुना पानी मिलाकर फसलों पर छिड़क देते है। इससे विभिन्न कीटों और सडिय़ों पर नियंत्रण होता है तथा फसल की पैदावार बढ़ती है। नीम के पत्तों के स्थान पर आंकड के पत्तें, सीताफल के पत्ते अथवा निंबोरी पाउडर का भी उपयोग कर सकते है।

नीम

नीम को प्राकृतिक कीटनाशक और रोग प्रतिरोधक माना जाता है इससे कई कीटनाशक दवाईयॅा बनाई जाती है। नीम की 10-12 कि.ग्रा. पत्तियॅा 200 लीटर पानी में 4 दिन तक भिगो कर रख दें। जब पानी हरा-पीला होने लगे तो इसे छान लें। यह मिश्रण एक एकड़ क्षेत्र में इल्लियों की रोकथाम के लिए पर्याप्त है।
नीम की खली दीमक की रोकथाम करती है साथ ही व्हाइट ग्रब एवं अन्य कीटों की इल्लियों, प्यूपा तथा भूमि जनित रोगों जैसे विल्ट की रोकथाम भी करती है। बोनी पूर्व अंतिम बखरनी करते वक्त 2-3 क्विंटल पिसी खली खेत में मिला देते है। 2 कि.ग्रा. नीम की निंबोरी को 10 लीटर पानी में डालकर 4-6 दिन पश्चात छान कर 200 लीटर पानी मिला कर खेतों में छिड़क दें। विभिन्न कीटों तथा इल्लियों पर नियंत्रण होता है।

जैवगतिकीय पद्धतियां

बायोडायनामिक कृषि पद्धति का उद्देश्य जीवउत्पादको का उपयोग करके स्वस्थ भूमि, स्वस्थ पौधे, स्वास्थ्यप्रद और असरदार अन्न तथा पशुआहार और पशुउत्पाद पैदा करना है।

बायोडायनामिक पद्धति को प्रतिपादित करने का श्रेय एक आस्ट्रेलियन दर्षनिक रूडाल्फ स्टाइन को है। ये नुस्खे जैव गतिकीय नुस्खों के रूप में प्रचलित हुए। इसमें नुस्खा क्र. 500 सींग खाद से संबंधित, नुस्खा क्र. 501 सींग सिलिका चूर्ण नुस्खा है। नुस्खा क्र. 502 से 507 कंपोस्ट नुस्खे है जबकि नुस्खा क्र. 508 फफूंदरोधी नुस्खा है।

इसमें से सर्वाधिक महत्वपूर्ण नुस्खा क्र. 500 है इसे सींग खाद के नाम से जाना जाता है। इसमें मृत गाय की सींग का खोल तथा गाय का गोबर उपयोग होता है। गाय के सींग का खोल गोबर का असर बढ़ाने के लिए अतिउत्तम होता है। सींग की उपस्थित के कारण हयूमस बनाने वाले जीवाणुओं की संख्या अधिक हो जाती है।

जबकि गोबर को किसी अन्य पात्र में रखकर गाड़ा किया जाए तो उसका वह प्रभाव नही होता है। सींग खाद का 2-3 साल तक नियमित उपयोग करने से जमीन में गुणात्मक सुधार आ जाता हैइससे जमीन में जीवाणुओं की संख्या के साथ-साथ केंचुआ तथा हयूमस बनाने वाले जीवों की संख्या बढ़ती है जिससे जमीन भुरभुरी हो जाती है और जड़ें गहराई तक जा सकती है भूमि के जल धारण क्षमता भी बढ़ जाती है तथा इससे दलहनी फसलों की जड़ों में नोडयूल्स की संख्या बढ़ जाने से जमीन की उपजाऊ शक्ति भी बढ़ जाती है।

  • डॉ. के.सी. मीणा
  • धर्मेन्द्र कुमार पाटीदार
  • डॉ. अजय हलदार
    उद्यानिकी महाविद्यालय, मंदसौर, रा.वि.सिं.कृ.वि.वि, ग्वालियर, (म.प्र.)
    drkailashmeena06@gmail.com
Share
Advertisements

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *