वृक्षारोपण, पशुपालन और बायोमास से होगी गेहूं की फसल की बढ़ते तापमान से सुरक्षा
27 फरवरी 2023, भोपाल(मधुकर पवार): वृक्षारोपण, पशुपालन और बायोमास से होगी गेहूं की फसल की बढ़ते तापमान से सुरक्षा – इस वर्ष फरवरी में ही औसत से 5 से 7 डिग्री सेल्सियस अधिक तापमान होने और मार्च में लू चलने की संभावना के चलते गेहूं का उत्पादन में कमी आने की आशंका जताई जा रही है। इसी के मद्देनजर केंद्र सरकार द्वारा फसल को बचाने की कवायद शुरू कर दी गई है। इसके तहत कृषि विशेषज्ञों को राज्यों में भेज अजा रहा है । अब यह प्रश्न उठता है कि जब फसल पकने की पकने की कगार पर है, तब क्या कोई उपाय कारगर हो सकता है ? क्या गेहूं के दाना को छोटा रहने से रोका जा सकता है? क्या भरपूर सिंचाई इसमें मददगार हो सकती है? ऐसे अनेक सवाल हैं जिनका उत्तर खोजकर फसल को बचाने के उपायों में शामिल किया जा सकता है।
बढ़ता तापमान और गेहूं का उत्पादन विषय पर मध्य भारत में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के इंदौर स्थित क्षेत्रीय गेहूं अनुसंधान केंद्र के पूर्व अध्यक्ष एवं प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ हीरानंद पांडे ने व्यक्तिगत चर्चा में बताया कि जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान में वृद्धि हो रही है लेकिन बढ़ते तापमान पर काबू पाने के लिए कोई सार्थक गम्भीर प्रयास नहीं किए जाने के कारण ऐसी स्थितियां उत्पन्न हो रही हैं। गेहूं की फसल के लिये उपयुक्त तापमान से अधिक तापमान होने के कारण उत्पादन में कमी आ रही है, जो बढ़ती जनसंख्या के मद्देनजर बेहद कठिन दौर आने की ओर संकेत कर रहा है। यह पूछे जाने पर कि क्या बढ़ते तापमान के बावजूद गेहूं का अपेक्षित उत्पादन संभव है ? उन्होंने कहा कि उत्पादन कितना होगा? यह तो अलग बात है लेकिन सबसे पहले तापमान कम कैसे करें, इस पर ध्यान देने की जरूरत है।
डॉक्टर पांडे ने कहा कि भारत सहित पूरे विश्व में तापमान बढ़ने का एक प्रमुख कारण कार्बन डाइऑक्साइड का बड़ी मात्रा में उत्सर्जन होना है। बढ़ती आबादी की जरूरतों को पूरा करने के लिए कृषि में यंत्रीकरण और औद्योगिकीकरण भी आवश्यक है। कार्बन डाइऑक्साइड के दुष्परिणाम को कम करने में सबसे बड़ी भूमिका वृक्षों की होती है। देश में जंगलों की स्थिति क्या है ? यह किसी से छुपी नहीं है। औद्योगिकीकरण, सड़कों का निर्माण और विनिर्माण कार्यों के साथ जंगलों को बेरहमी से काटा जा रहा है। उत्तर भारत में गेहूं की कटाई और पंजाब-हरियाणा आदि प्रदेशों में धान की फसल लेने के बाद पराली जलाई जाती है जिससे न सिर्फ कार्बन डाइऑक्साइड वायुमंडल में जाती है बल्कि कृषि भूमि के जीवांश भी समाप्त हो जाते हैं। रासायनिक खादों के अत्यधिक उपयोग के कारण कृषि भूमि का स्वास्थ्य भी खराब हो रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों में गाय, बैल, भैंस आदि पालतू पशुओं की कमी हो रही है। नदियों में पानी साल – दर – साल कम हो रहा है। डॉक्टर पांडे ने बढ़ते तापमान के मद्देनजर निम्नलिखित बातों पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता पर बल दिया है।
(1) वृक्षारोपण:- शासकीय और गैर शासकीय प्रयासों से हर साल बड़ी संख्या में वृक्षारोपण किया जाता है। कुछ बरस पहले एक ही दिन में मध्यप्रदेश में सात करोड़ पौधे लगाने का रिकॉर्ड भी बन चुका है। डॉक्टर पांडे बताते हैं कि वृक्षारोपण वास्तव में किया जाना चाहिए तथा पौधा लगाने के बाद जीवित रहे, यह भी सुनिश्चित करना जरूरी है। उन्होंने कहा कि यदि वास्तव में ईमानदारी से वृक्षारोपण कर उनकी समुचित देखभाल की जाती है तो आज स्थिति काफी कुछ अलग होती। उन्होंने नर्मदा नदी के उद्गम का उदाहरण देते हुए कहा कि यह नदी जंगल से निकलती है, । अपने उद्गम स्थल अमरकंटक से कुछ किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद क्रमश: जल के प्रवाह की मात्रा बढ़ते जाती है। मंडला आते आते नदी का विशाल स्वरूप दिखाई देता है। उन्होंने बताया कि वृक्षों की जड़ों में पानी का संचय होता है, जो रिसकर नदी में मिल जाता है। वृक्ष ही कार्बन डाइऑक्साइड को रोकते हैं। यदि जमीन पर पर्याप्त मात्रा में वृक्ष लगे हो तो पर्यावरण भी शुद्ध रहेगा और नदियां सजीव होंगी यानी नदियों में भी जल का निरंतर प्रवाह बना रहेगा। उन्होंने बताया कि यदि भूमि पर पर्याप्त जंगल / वृक्ष रहेंगे तो तापमान के उतार-चढ़ाव में कमी आएगी तथा वातावरण में भी ठंडक बनी रहेगी। जिससे फसल को होने वाले नुकसान को काफी कम किया जा सकता है।
(2) पशुपालन को प्रोत्साहन :- वैसे तो देश में शासकीय आंकड़ों को सही मानें तो पशुओं की संख्या 50 करोड़ से अधिक है। डॉक्टर पांडे ने कहा कि वास्तव में पशुओं की संख्या में कमी आ रही है। कृषि में यंत्रीकरण के कारण पशुपालन में भी किसानों की रुचि कम हो रही है। केवल दूध उत्पादन के लिए पशुओं को पाला जा रहा है। किसानों द्वारा पशुओं को पालने की प्रवृत्ति में कमी के कारण गोबर की खाद की खेतों के लिये कमी हो रही है। इसके कारण भूमि की उर्वरा शक्ति भी कम हो रही है। उन्होने जोर देकर कहा कि पशुओं की संख्या में वृद्धि होना बहुत जरूरी है। इससे एक ओर जहां किसानों को दूध की उपलब्धता से स्वास्थ और आर्थिक रूप से लाभ होगा वहीं दूसरी ओर खेतों के लिए गोबर खाद भी मिल सकेगा। इससे कृषि भूमि का स्वास्थ्य ठीक रहेगा तथा फसल की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ेगी जिससे अधिक तापमान का दुष्प्रभाव फसल पर कम पड़ेगा। इससे फसल उत्पादन में कमी आने का सम्भावना काफी कम हो जायेगी।
(3) खेतों में आग लगाने पर प्रतिबंध :- खरीफ की फसल के लिए भूमि को तैयार करने से पहले आमतौर पर अप्रैल-मई में अधिकांश खेतों में आग लगाने की घटनायें आमतौर पर सभी गांवों में देखी जा सकती है। डॉक्टर पांडे ने बताया कि मध्यप्रदेश में खेतों में आग लगाने पर प्रतिबंध तो है लेकिन बावजूद इसके इस पर पूरी तरह रोक नहीं लगाई जा सकी है। उन्होंने बताया कि खेती के लिए जीवांश बहुत जरूरी होते हैं जो खेत में आग लगाने से नष्ट हो जाते हैं। इससे बायोमास भी जलकर नष्ट हो जाता है। बायोमास से भूमि की जल धारण क्षमता बढ़ती है। बायोमास को जलाकर नष्ट कर देने से जमीन के अंदर जल की पहुंच काफी कम हो जाती है जिससे भूजल स्तर में भी कमी आ रही है। साथ ही खेतों में आग लगाने से कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित होता है जो स्वास्थ्य के साथ पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचाता है। किसानों को खेतों में आग लगाने से रोकने के लिए इससे होने वाले नुकसान के बारे में जानकारी देने के लिए जन जागरूकता अभियान चलाया जाना चाहिए। खेतों में आग लगाने वाले किसानों के विरूद्ध सख्ती अथवा पुलिस में प्रकरण दर्ज करना, एक अच्छा विकल्प नहीं है। इसलिये किसानों को जागरूक करने की जरूरत है।
डॉक्टर पांडे का मानना है कि यदि उपर्युक्त उपायों अर्थात वृक्षारोपण, जंगलों की संतुलित कटाई, पशुओं की संख्या में इजाफा, खेतों में गोबर खाद का अधिकाधिक उपयोग और खेतों में आग लगाने पर पूरी तरह रोक लगाना अनिवार्य होना चाहिये। ऐसा करके ही हम बढ़ते तापमान पर आंशिक रूप तो रोक लगा ही सकते हैं जिससे फसल उत्पादन में गिरावट की आशंका को कम किया जा सकता है।
महत्वपूर्ण खबर: गेहूँ मंडी रेट (25 फरवरी 2023 के अनुसार)
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