राज्य कृषि समाचार (State News)

कृषि में प्लास्टिक प्रदूषण एक बड़ा मुद्दा

09 जून 2025, भोपाल: कृषि में प्लास्टिक प्रदूषण एक बड़ा मुद्दा – आज बिगड़ता पर्यावरण एक प्रमुख वैश्विक समस्या बन गया है । जिसका प्रभाव मानव स्वास्थ्य के साथ प्रकृति पर भी दिखने लगा है ।  बिगड़ते पर्यावरण से जहाँ मानव जीवन पर केंसर जैसी घातक बीमारियों का आक्रमण बढ़ रहा है वहीँ प्रकृति के जलवायु चक्र में असंतुलन आ रहा है ।  इन सब संकेतों को नजरंदाज करते हुए हम अपनी विकास यात्रा निरंतर जारी रखे हुए हैं।  हालाँकि संयुक्त राष्ट्र महासभा की पहल पर प्रति वर्ष  5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाकर हम अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं और यह मान लेते हैं कि पर्यावरण नियंत्रण के लिए हमने बहुत काम कर लिया है ।  जबकि बिगड़ते  पर्यावरण के कारण उत्त्पन्न होने वाली  मानव स्वास्थ्य , खाद्यान्न आपूर्ति  और जलवायु परिवर्तन जैसी दीर्घकालिक  समस्याएं न सिर्फ हमारे लिए बल्कि आने वाली पीढ़ी के लिए भी दुखदायी होंगी ।

इस वर्ष विश्व पर्यावरण दिवस 2025 का विषय हमारे जीवन में सांसों की तरह घुल गया प्लास्टिक प्रदूषण है। प्लास्टिक प्रदूषण धरती के हर कोने को प्रभावित कर रहा है , यहाँ तक कि माइक्रोप्लास्टिक के रूप में यह हमारे शरीर में भी पहुँच गया है । नेचर जर्नल में प्रकाशित रिपोर्ट में अनुमान है कि भारत में सालाना लगभग 9.3 मिलियन टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न होता है, जो इसे दुनिया का सबसे बड़ा प्लास्टिक प्रदूषक बनाता है। यह वैश्विक प्लास्टिक उत्सर्जन का लगभग पाँचवाँ हिस्सा है, जिसमें प्रति व्यक्ति अपशिष्ट उत्पादन दर लगभग 0.12 किलोग्राम प्रति दिन है। राष्ट्रमंडल वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान संगठन के अनुसार , भारत हर दिन 26,000 टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न करता है। इसका केवल 8 प्रतिशत ही रीसाइकिल करता है।

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प्लास्टिक का उपयोग अब केवल कारखानों , उद्योगों , पैकिंग तक ही सीमित नहीं है , कृषि क्षेत्र में  भी प्लास्टिक का व्यापक पैमाने पर उपयोग होने लगा है । भारत में खेती की बढ़ती लागत , मजदूरों की समस्या , खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि की  आवश्यकता ने परिशुद्ध (प्रिसिजन) और संरक्षित (कंजर्वेशन) खेती को बढ़ावा दिया है । कृषि उत्पादन और स्थिरता में सुधार के लिए इस तकनीक में ग्रीन नेट , शेड नेट , प्लास्टिक मल्च , ड्रिप सिंचाई जैसे साधनों का उपयोग किया जाता है । खेती की इस नई तकनीक से भारतीय कृषि पद्धति में प्लास्टीकल्चर का एक नया दौर प्रारंभ हो गया है । इस तकनीक से खाद्यान्न उत्पादन और किसानों की आय बढ़ी है । लेकिन  खेती में उपयोग के बाद प्लास्टिक निष्पादन अथवा रीसायकलिंग की जागरूकता के आभाव में किसान इस प्लास्टिक कचरे को मिटटी में दबा देते हैं , फेंक देते हैं या जला देते हैं । प्लास्टिक कचरे को नष्ट करने का यह अवैज्ञानिक तरीका प्लास्टिक प्रदूषण को बढाता है ।

संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन के अनुसार, 2019 में, कृषि में 12.5 लाख टन प्लास्टिक का इस्तेमाल हुआ और खाद्य पैकेजिंग ने वैश्विक स्तर पर 37.3 मिलियन टन का योगदान दिया। संगठन ने 2030 तक कृषि प्लास्टिक की मांग में 50% की वृद्धि का अनुमान लगाया है। कृषि में उपयोग किए गए प्लास्टिक की रिसाइकिल दर लगभग 5 प्रतिशत ही है। भारत सरकार के कृषि मंत्रालय के मुताबिक, कृषि प्लास्टिक उद्योग का अनुमान है कि ग्रीनहाउस, मल्चिंग और साइलेज फिल्मों की वैश्विक मांग 2018 में 6.1 मिलियन टन से बढ़कर 2030 में 9.5 मिलियन टन तक 50 प्रतिशत बढ़ जाएगी। भारतीय मृदा और जल संरक्षण संस्थान के विशेषज्ञ बताते हैं कि भारत में फिलहाल 2,75,000 हेक्टेयर जमीन पर परिशुद्ध खेती की जा रही है। इसमें से 90% से ज्यादा जमीन को प्लास्टिक मल्च से कवर किया जाता है। इसका इस्तेमाल पिछले दस सालों में काफी बढ़ा है। 

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विश्व  में, कृषि में प्लास्टिक प्रदूषण एक बड़ा मुद्दा है, जिसे न सिर्फ नजरअंदाज किया जा रहा है बल्कि  प्लास्टिकल्चर को खाद्य उत्पादन में दूसरी हरित क्रांति लाने में भूमिका निभाने के लिए सराहा जा रहा है। भारत सरकार भी इसका समर्थन कर रही है और खासकर कृषि  उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए,  प्लास्टिकल्चर के उपायों को प्रोत्साहन देने के लिए किसानों को अनुदान भी दे रही है।

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भारत में आबादी की बढ़ती वृद्धि दर खाद्यान्न आपूर्ति के लिए एक चुनौती है । जिससे  निपटने लिए भारतीय कृषि में नई तकनीक की आवश्यकता निरंतर बनी रहती है । परन्तु कृषि वैज्ञानिकों , विशेषज्ञों के साथ साथ सरकार को भी इस बात का ध्यान रखना होगा कि नई तकनीक के दुष्प्रभाव क्या होंगे और उनसे निपटने के लिए क्या उपाय अपनाये जाने चाहिए ।

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