राज्य कृषि समाचार (State News)

प्राकृतिक खेती की चुनौतियाँ व समाधान

लेखक: डॉ रबीन्द्र पस्तोर, सीईओ, ई-फसल

06 अगस्त 2024, भोपाल: प्राकृतिक खेती की चुनौतियाँ व समाधान – विगत दशक से हमारी सरकार किसानों की आय को दुगना करने की एक कारगर रणनीति विकसित करने के लिए तरह-तरह के प्रयोग करती रही है। जहां सरकार को एक ओर किसानों की आय बढ़ाना है तो दूसरी ओर थोक महंगाई दर को नियंत्रित करना है। यह काम एक दूसरे के विपरीत है और दोनों में संतुलन बनाना हमेशा से नीति निर्माताओं को तरह-तरह के प्रयोग करने को प्रोत्साहित करता रहा है। यदि हम 2024-2025 के बजट प्रावधानों को देखते है तो पाते है कि सरकार ने खेती तथा उसके अनुसांगिक कार्यों के लिए रू 1.52 लाख करोड़ का प्रावधान किया गया है जो कुल बजट का 3.1% है जबकि हमारे देश की दो तिहाई जनसंख्या इस सेक्टर पर निर्भर है। इस बजट में किसानों की आय बढ़ाने तथा खेती की लागत को कम करने के लिए प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने की घोषणा की गई है। बहीं दूसरी ओर रसायनिक कृषि आदनों पर अनुदान देने के लिए भारी बजट राशि का प्रावधान किया गया है। जहां एक ओर प्राकृतिक खेती के उत्पादों को विदेशों में निर्यात को प्रोत्साहित करने के प्रावधान हैं वहीं दूसरी ओर अनेक फसलों के निर्यात पर प्रतिबंध लगाए गए है।सरकार की यह दुविधा कृषि क्षेत्र के लगभग हर निर्णय में परिलक्षित होती है।

इस बार के आर्थिक सर्वेक्षण में प्राकृतिक खेती को कृषि विकास का बाहक प्रतिपादित किया गया है। भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय प्राकृतिक कृषि विकास मिशन स्थापित किया गया है तथा इसके लिए वित्तीय वर्ष 2023-2024 में रू 459 करोड़ का प्रावधान किया गया था लेकिन खर्च न होने के कारण इस वर्ष के बजट में यह राशि घटा कर रू 465.6 करोड़ कर दी गई है। जबकि इस वित्तीय वर्ष में एक करोड़ किसानों को प्राकृतिक खेती से जोड़ने का लक्ष्य रखा गया है तथा 10,000 वायो कृषि आदान रिसोर्से सेन्टर बनाने का लक्ष्य है।

अब सोचने की बात यह है कि क्या भारतीय किसान प्राकृतिक ढंग से खेती करना नहीं जानता है? प्राकृतिक खेती को आज जैविक खेती, प्राकृतिक खेती, ज़ीरो बजट खेती, वैदिक खेती और ऐसे ही अनेकों नामों से जानते है लेकिन इन सब का एक ही मतलब है कि प्राकृतिक ढंग से खेती करना। प्राकृतिक खेती से किसान पीढ़ी दर पीढ़ी परिचित रहा है लेकिन आज किसानों द्वारा खेती जीविकोपार्जन के लिए न हो कर बाज़ार के लिए की जाती है। इस कारण इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है कि प्राकृतिक खेती में बाज़ार की चुनौतियाँ क्या है?

प्राकृतिक खेती के उत्पाद सामान्य खेती के उत्पादों की तुलना में 25 से 70 प्रतिशत तक महँगे होते हैं उदाहरण के लिए सामान्य आटे के 5 किलो की क़ीमत रू 105 होती है जबकि जैविक आटे की क़ीमत रू 235 होती है। इसी तरह चावल, दालें, मसाले, फल सब्ज़ियाँ व प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद की क़ीमतों में भारी अंतर है। आज हमारे देश की आबादी विश्व में सर्वाधिक है तो हम सोचते है कि हमारे देश में किसी भी तरह के उत्पाद के लिए पर्याप्त बाज़ार उपलब्ध है लेकिन ऐसा नहीं होता है बाज़ार में उत्पाद ख़रीदने के लिए यदि लोगों के पास खर्च करने के लिए पैसे नहीं होंगे तो वे महँगा सामान नहीं ख़रीद सकते है। यह बात समझने के लिए हमें लोगों के आय के स्तर को समझना होगा हाल ही में प्राइज़ नामक संस्था ने वर्ष 2014, 2016 तथा 2021 के सर्वेक्षण के आधार पर विभिन्न आय के अनुसार देश की जनसंख्या को मोटे तौर पर 4 श्रेणियों में विभाजित किया है। जिसमें प्रथम श्रेणी है जिसमें प्रति वर्ष रू 1.25 लाख से कम आय वर्ग में 15 प्रतिशत जनसंख्या है जो देश की कुल आय की 2 प्रतिशत कमाई करते हैं जिन्हें डेस्टिट्यूट या निराश्रित या गरीब श्रेणी कहा गया है । दूसरी श्रेणी है रू 1.25 लाख से रू 5 लाख सालाना आय वाले परिवार जिसमें देश की 52 प्रतिशत जनसंख्या आतीं है जो देश की कुल आय का 2.5 प्रतिशत कमाई करते है, जिन्हें एस्पायरर या महत्वाकांक्षी श्रेणी कहा गया है। तीसरी श्रेणी में रू 5 लाख से रू 30 लाख सालाना आय वर्ग के लोग है जिसमें हमारे देश की जनसंख्या के 31 प्रतिशत लोग आते है जो देश की कुल आय का 50 प्रतिशत कमाई करते हैं जिन्हें मिडिल क्लास या मध्यम वर्ग कहा गया है। चौथी श्रेणी में रू 30 लाख से रू 50 लाख, रू 50 से एक करोड़ रुपये तथा एक करोड़ से दो करोड़ या उससे अधिक रुपये सालाना आय वर्ग के लोग है जो देश की कुल जनसंख्या के 4 प्रतिशत लोग है जो देश की कुल आय का 23 प्रतिशत कमाई करते हैं जिन्हें रिच या धनी वर्ग कहा गया है। हमारे देश में धनी लोगों की संख्या जिस तेज़ी से बढ़ रही है उतनी तेज़ी से गरीब लोगों की संख्या कम नहीं है रही है। 98 प्रतिशत गरीब आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है तथा शहरी क्षेत्र में 55 प्रतिशत रिच या धनी व सुपर रिच या अति धनी, 27 प्रतिशत मध्यम वर्ग तथा 2 प्रतिशत गरीब रहते है। यदि राज्यों को प्रति व्यक्ति सालाना आय के हिसाब से देखा जाए तो महाराष्ट्र सबसे धनी राज्य है इसके बाद दिल्ली, गुजरात, तमिलनाडु व पंजाब राज्य आते है। बाज़ार के इस विश्लेषण से स्पष्ट है कि रू 15 लाख सालाना आय वर्ग के लोग कि महँगे कृषि उत्पादों को ख़रीदने की क्षमता रखते है।

प्राकृतिक खेती के उत्पाद महँगे होने के मुख्य कारण यह है कि इन के प्रमाणीकरण का खर्च, ज़्यादा मज़दूरों की आवश्यकता, जानवरों को पालने का खर्च, मिट्टी की गुणवत्ता सुधार का खर्च, कम उत्पादन, बाज़ार की दूरी, सरकार अनुदान का अभाव व कृषि आदानों पर अनुदान न मिलना है। यदि प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देना है तो बाज़ार के इस विश्लेषण को समक्ष कर नीतियों का निर्माण किया जाता है और तदनुसार बजट का प्रावधान किया जाता है तो निश्चित ही राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय बाज़ार की माँग की पूर्ति की जा सकती है क्योंकि सम्पूर्ण विश्व की केवल 0.9 प्रतिशत कृषि भूमि पर प्राकृतिक खेती की जा रही है। हमारे देश में एक अनुमान के अनुसार सन् 2047 मध्यम वर्ग की कुल आबादी 63 प्रतिशत हो जाएगी तथा स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता के कारण प्राकृतिक खेती के उत्पादों की माँग निरंतर रहेंगी।

भारत सरकार द्वारा यदि कृषि विकास की विभिन्न योजनाओं जैसे एफ़पीओ, एक उत्पाद एक ज़िला योजना, रसायनिक खादों पर सब्सिडी, न्यूनतम समर्थन मूल्य, कृषि अधोसंरचना विकास योजना, खाद्य प्रसंस्करण पर सब्सिडी, निर्यात नीति आदि अनेक योजनाओं की एक ही दिशा निर्धारित की जाती है तो लक्ष्य प्राप्त करना आसान हो जाएगा।

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