खाद खरीदने किसान क्यों लगे कतार में ?
लेखक: विनोद नागर, वरिष्ठ पत्रकार
23 अक्टूबर 2024, नई दिल्ली: खाद खरीदने किसान क्यों लगे कतार में ? – भारत को कृषि प्रधान देश कहा जाता है। कृषि पर आधारित अर्थव्यवस्था मौसम के मिज़ाज पर निर्भर करती है। श्री रामचरितमानस में वर्णित- का वर्षा जब कृषि सुखानी.. का आशय भी यही है कि खेती सूखने के बाद बारिश का कोई महत्व नहीं होता यानि अवसर निकल जाने पर सहायता व्यर्थ होती है। धरती पुत्र की आजीविका के साधन को लाभ का व्यवसाय बनाने की कोशिशों ने खेती किसानी का स्वरूप ही बदलकर रख दिया है।
देश की आजादी के समय दो बीघा जमीन के लिए खटते किसान को यूरिया खाद और उन्नत बीज का झुनझुना किसने थमाया? घातक रसायनों से निर्मित कीटनाशक गांव-गांव में कैसे पहुंच गये? खाद्यान्न के सुरक्षित भंडारण की माकूल व्यवस्था किए बगैर किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाप-शनाप खरीदी के लिए जवाबदेह कौन है? कल का अन्नदाता क्यों आज तक विपन्नता का अभिशाप झेल रहा है? यदि ऐसा नहीं है तो कर्ज में डूबे किसानों की आत्महत्या के मामलों में कमी क्यों नहीं आ रही? खबर विमर्श के लिए यह मुद्दा हाल में उस सचित्र समाचार को पढऩे के बाद चुना, जिसमें मुरैना जिले में खाद के लिए रात दो बजे से किसानों की कतार लगने का जिक्र था। मार्कफेड के गोदाम से डीएपी खाद वितरण की लचर टोकन व्यवस्था ने किसानों की भीड़ को हंगामा करने पर मजबूर कर दिया। उत्तेजित किसानों के रोष को भांपकर जिम्मेदार तंत्र वहां से भाग खड़ा हुआ। अंतत: जिला प्रशासन को अंबाह, जौरा, सबलगढ़ और कैलारस में पुलिस की सुरक्षा में टोकन बँटवाने पड़े। इससे पहले शिवपुरी जिले में खाद की कमी से जूझते एक किसान की पुलिस द्वारा पिटाई का वीडियो भी सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुआ था। इधर नर्मदापुरम जिले के इटारसी में खाद के लिए लाइन में लगे किसानों पर पुलिस द्वारा लाठियां भांजने की सुर्खियों के बाद तो यह मुद्दा राजनीतिक स्तर पर और गर्माने लगा है। जाहिर है किसानों के हित संरक्षण की आड़ में अब जमकर राजनीतिक रोटियां सेंकी जाएंगी।
बहरहाल, बुनियादी सवाल यह है कि आखिर किसानों को खाद खरीदने के लिए कतार में क्यों लगना चाहिए? क्या कृषि आदान के रूप में खाद को हम सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत उचित मूल्य की दुकान से बंटने वाली उपभोक्ता सामग्री माने! जिसके लिए कभी कंट्रोल की दुकानों पर लंबी लाइनें लगा करती थीं। इधर कृषि उपज मंडियों में भी बंपर आवक होने पर किसानों को अपनी फसल बेचने के लिए ट्रैक्टर ट्रालियों की लंबी लाइनें लगानी पड़ती हैं। क्या ग्रामीण क्षेत्र की किसानों से जुड़ी इन गंभीर समस्याओं की ओर किसी का ध्यान नहीं है? जबकि केन्द्र में तो कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय का नेतृत्व प्रधानमंत्री ने एक भूमिपुत्र किसान राज नेता के हाथों में ही सौंप रखा है। डेढ़ दशक तक प्रदेश में राज करते हुए वे स्वयं को आए दिन किसान का बेटा कहते नहीं अघाते थे। कृषि कैबिनेट का नवाचार भी उन्हीं के कार्यकाल में फलीभूत हुआ था। फिर एमपी एग्रो, मार्कफेड, नाफेड, नाबार्ड, इफको, कृभको जैसी अनेक एग्रो कोऑपरेटिव संस्थाएं किसानों के हितों की रक्षा के लिए नए ठोस उपाय सुनिश्चित करने के बजाय दशकों से चले आ रहे पुराने ढर्रे पर ही क्यूं अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं? जब सरकार को अच्छी तरह मालूम है कि हर साल रबी और खरीफ के सीजन में किसानों को खाद की जरूरत होती है। फिर डीएपी खाद मुफ्त में मिलने वाली सब्सिडी नहीं है, जिसे पाने के लिए किसान सरकारी गोदाम के चक्कर लगाए। देश में खाद की कमी भी नहीं है, जिसका ठीकरा फर्टिलाइजर कंपनियों पर फोड़ा जाए। सारा गड़बड़झाला ऊपर से नीचे तक कुप्रबंधन का है। कागज़ी कार्यवाही के सरकारी तंत्र में राज्य सरकारें हर साल रबी और खरीफ के सीजन में अपनी डिमांड का आकलन कर केन्द्र सरकार को भेजती हैं, जिसके आधार पर निर्धारित एजेंसियों के माध्यम से निचले स्तर तक खाद की आपूर्ति की जाती है। बस यहीं तालमेल गड़बड़ाने पर वितरण व्यवस्था ध्वस्त हो जाती है। संबंधित जिम्मेदार पक्ष एक-दूसरे पर दोषारोपण कर पतली गली से निकल जाने के रास्ते ढूंढने में लग जाते हैं। जाने-अनजाने सारा जन आक्रोश पुलिस और प्रशासन को ही झेलना पड़ता है। आज गांव-गांव में मोबाईल फोन की सुविधा पहुंच चुकी है। सरकार चाहे तो कंप्यूटर नेटवर्क के जरिए पूरे प्रदेश के किसानों का डेटा बेस तैयार कर आधुनिक संचार प्रौद्योगिकी की सहायता से खाद ही नहीं बल्कि बीज, कीटनाशक, उन्नत कृषि उपकरण, सिंचाई पम्प आदि से जुड़ी तमाम आवश्यक सेवाएं सुगमता से सुलभ करा सकती है। जब शहरी क्षेत्र में अमेजन, फ्लिपकार्ट और ब्लिंकिट जैसी कंपनियां सफलतापूर्वक घर पहुंच सेवा लोगों को उपलब्ध करा सकती हैं तो ग्रामीण भारत इससे वंचित क्यों रहे? विदेशी न सही भारतीय युवाओं के स्टार्ट अप तो यह काम करने के लिए राष्ट्रहित में आगे आ सकते हैं। दीजिए न उन्हें मौका और प्रोत्साहन! हो सकता है फिर न लगे किसानों की कतार खाद खरीदने के लिए..!! न पुलिस को लहराने पड़े डंडे किसानों की बेकाबू भीड़ को नियंत्रित करने के लिए..!!!
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