राष्ट्रीय कृषि समाचार (National Agriculture News)

बढ़ती जनसंख्या: घटता कृषि रकबा

01 मई 2025, नई दिल्ली: बढ़ती जनसंख्या: घटता कृषि रकबा – भारत विश्व का सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश है और चीन, रूस, अमेरिका आदि देशों से जमीन कम होने के बावजूद सौभाग्य से दाल व तिलहन को छोड़कर खाद्यान्न के मामले में पूरी तरह आत्मनिर्भर हो गया है। खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने में कृषि की उन्नत तकनीक, उन्नत बीज, कृषि यंत्रों के उपयोग के साथ रासायनिक खादों और दवाओं का उपयोग करना शामिल है।

बढ़ती जनसंख्या और परिवारों के विघटन के कारण मकानों के लिये जमीन की लगातार मांग बढ़ रही है। रोजगार की तलाश में ग्रामीण आबादी का शहरों और औद्योगिक क्षेत्रों की ओर पलायन करने का सिलसिला जारी है जिसके कारण शहरों का बेतरतीब विस्तार भी हो रहा है। शहरों में जनसंख्या के दबाव का सबसे ज्यादा असर शहरों के आसपास की कृषि भूमि पर पड़ रहा है। धीरे – धीरे ही सही, लेकिन शहरों में नये – नये आवासीय क्षेत्रों के विकसित होने के कारण कृषि भूमि का रकबा लगातार कम होते जा रहा है। पूरे देश में अधिकांश उपजाऊ जमीन का अधिग्रहण आवासों, कारखानों, सड़कों आदि के लिए हो रहा है। इसके साथ ही भारत में मरुस्थलीकरण की स्थिति भी गंभीर होती जा रही है। देश का लगभग 29 प्रतिशत भूभाग, जो 96 मिलियन हेक्टेयर के बराबर है, मरुस्थलीकरण की चपेट में है। सबसे अधिक प्रभावित राज्य राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र हैं। मरुस्थलीकरण के मुख्य कारणों में अत्यधिक चराई, वनों की कटाई और जलवायु परिवर्तन शामिल हैं। दूसरी तरफ बंजर भूमि को अन्य कामों के साथ खेती योग्य जमीन में भी परिवर्तित किया जा रहा है।

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यह भी कहा जाता रहा है कि जनसंख्या का दबाव जंगलों पर भी पड़ रहा है और खेती करने के लिये जंगल की कटाई भी की जा रही है। इस सब रिपोर्ट के बीच सुकून देने वाली बात यह है कि देश में पिछले कुछ वर्षों में वृक्षारोपण अभियान और कटाई पर अंकुश लगाए जाने से वन क्षेत्र में करीब 14450 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि दर्ज की गई है। लेकिन ‘भूमि उपयोग सांख्यिकी की रिपोर्ट के अनुसार भारत में कृषि भूमि का क्षेत्रफल 2018-19 में 180.62 मिलियन हेक्टेयर से मामूली रूप से घटकर 2021-22 में 180.11 मिलियन हेक्टेयर रह गया है। यानी खेती का रकबा कम हो रहा है। यह बेहद चिंताजनक है। एक अनुमान के अनुसार सन् 2030 तक भारत की जनसंख्या 150 करोड़ को पार कर जाएगी, तब इतनी अधिक जनसंख्या के लिये खाद्यान्न का उत्पादन करना वाकई एक बड़ी चुनौती बन सकती है। उत्पादन बढ़ाने के लिये रासायनिक खादों और रासायनिक दवाईयों के उपयोग में भी निश्चित ही वृद्धि होने की सम्भावना है। फसलों में रासायनिक खादों और जहरीली दवाईयों के अंधाधुंध प्रयोग से कैंसर, उच्च रक्तचाप, मधुमेह, थायराईड, आदि बीमारियों के रोगी गांव में भी काफी संख्या में होने लगे हैं।

राष्ट्रीय पुनर्वास और पुर्नस्थापन नीति-2007 में यह सिफारिश की गई है कि जहां तक संभव हो, परियोजनाओं/कारखानों आदि को बंजर भूमि, बंजर भूमि या असिंचित भूमि पर स्थापित किया जाना चाहिए। गैर-कृषि उपयोगों के लिए सिंचित, बहु-फसलीय कृषि भूमि का अधिग्रहण न्यूनतम रखा जाना चाहिए या जहां तक संभव हो, टाला जाना चाहिए। कारखानों के उपयोग के लिये कृषि भूमि के स्थान बंजर भूमि का ही उपयोग करना बेहतर होगा।

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सन् 1947 से भारत में कृषि भूमि के रकबा में काफी कमी आई है। स्वतंत्रता के समय देश की लगभग 75त्न जनसंख्या कृषि पर निर्भर थी और कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार थी। हालाँकि, समय के साथ, कृषि भूमि का रकबा कम हुआ है, जिससे प्रति व्यक्ति कृषि भूमि की उपलब्धता में भी कमी आई है। सन् 1951 में, प्रति व्यक्ति कृषि भूमि की उपलब्धता 0.48 हेक्टेयर थी, जिसके अगले कुछ वर्षों में 0.08 हेक्टेयर तक कम होने का अनुमान है। अब सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि लगातार बढ़ती जनसंख्या के लिए खाद्यान्न की पूर्ति कैसे की जाएगी? इसके लिये मरूस्थलीकरण पर रोक और बंजर भूमि को कृषि भूमि में बदलना जैसे कार्यों को प्राथमिकता दी जानी चाहिये। साथ ही शहरों के विस्तार के लिये कृषि भूमि के उपयोग पर पूर्णत: प्रतिबंध लगाया जाना भी जरूरी है लेकिन यह व्यवहारिक रूप से आसान नहीं है। इसलिए अनुपयोगी बंजर भूमि पर छोटे – छोटे शहर बसाये जा सकते हैं। यदि शहरों के विस्तार से कृषि भूमि का रकबा इसी गति से कम होता रहा तो इतनी बड़ी जनसंख्या के लिए खाद्यान्न उपलब्ध कराने के लिए आयात पर निर्भरता बढ़ते जाएगी। यह स्थिति देश की अर्थव्यवस्था और किसानों के लिए अत्यंत नुकसानदायक सिद्ध होगी। इसलिये नीति निर्धारकों को कृषि भूमि को बचाने के लिए यथासम्भव प्रयास करने ही चाहिये अन्यथा कृषि प्रधान देश केवल नाम का ही रह जाएगा।

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