राष्ट्रीय कृषि समाचार (National Agriculture News)

कहीं सोयाबीन के प्रति किसानों का मोहभंग न हो जाये

तीन-चार दशक पूर्व मध्यप्रदेश के किसानों के लिए सोयाबीन फसल एक वरदान के रूप में आई थी जिसने किसानों की दशा सुधारने में एक बड़ा योगदान दिया। इस तीस-चालीस वर्षों में खरीफ की फसल के रूप में किसानों ने सोयाबीन के बाद सोयाबीन ही ली। आर्थिक दृष्टि से किसानों को यह उपयुक्त फसल दिखी और किसानों ने फसल चक्र के सभी सिद्धांतों की अनदेखी कर सोयाबीन के अतिरिक्त किसी भी फसल को खरीफ की फसल के रूप में कोई महत्व नहीं दिया। इसके विपरीत परिणाम अब देखने को मिल रहे हैं। जिसके कारण सोयाबीन का मध्यप्रदेश में बुवाई का रकबा जो वर्ष 2013 में 63.66 लाख हेक्टेयर पहुंच गया था, वर्ष 2018 में घटकर 53.18 लाख हेक्टेयर तक ही रह गया। पिछले पांच वर्षों में सोयाबीन की बुआई के रकबे में लगभग 10 लाख हेक्टेयर की कमी किसानों की इस फसल में घटती रुचि की ओर इशारा करती है और फसल चक्र न अपनाने के दुष्परिणाम को भी दर्शाती है।

सोयाबीन फसल मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, कर्नाटक, तेलंगाना, गुजरात व छत्तीसगढ़ तक ही सीमित रही है, इन प्रांतों में भी सोयाबीन के क्षेत्र में पिछले पांच वर्षों में कोई सार्थक वृद्धि देखने को नहीं मिली है। पूरे देश में जहां सोयाबीन का उत्पादन वर्ष 2012-13 में 146.66 लाख टन तक पहुंच गया था वह घटकर वर्ष 2017-18 में 109.81 लाख टन तक ही रह गया। सोयाबीन उगाने वाले सभी राज्यों में फसल मौसम पर निर्भर करती है। वर्षा की मात्रा व उसका वितरण इसकी उपज को बहुत अधिक प्रभावित करता है। इस कारण सोयाबीन की उपज में प्रति वर्ष बहुत उतार-चढ़ाव देखने को मिलते हैं। पिछले वर्ष 2017-18 में सोयाबीन का प्रति हेक्टेयर उत्पादन मध्यप्रदेश में 838, महाराष्ट्र में 841, राजस्थान में 811 किलो ग्राम था जबकि देश का कुल औसत 822 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रहा। इसके विपरीत सोयाबीन उगाने वाले अन्य देशों में प्रति हेक्टर उत्पादन लगभग 2750 किलोग्राम अर्जेन्टीना, 2470 किलोग्राम ब्राजील, 2700 किलोग्राम उत्तरी अमेरिका में रहा। विश्व का उत्पादन औसत भी लगभग 2300 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है। हमारी सोयाबीन की प्रति हेक्टेयर उत्पादकता विश्व की औसत उत्पादकता की लगभग एक तिहाई है।

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यदि हमें सोयाबीन की खेती को किसानों के आर्थिक रूप से लाभकारी बनाये रखता है तो हमें इसके उत्पादन को बढ़ाने के उपाय खोजने होंगे। हमें किसानों को प्रेरित करना होगा कि वह फसल चक्र अपनायें। इसके लिये उन्हें हमें फसलों के विकल्प देने होंगे। इसके लिए अनुसंधान की आवश्यकता होगी। यदि हमने उन्हें विकल्प तथा उपज के स्तर को बनाये रखने के उपाय न बताये तो प्रदेश के किसानों का इस फसल के प्रति मोहभंग हो जायेगा जिसका आर्थिक प्रभाव प्रदेश की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ेगा।

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