राष्ट्रीय कृषि समाचार (National Agriculture News)

जिसके कारण खेतों में आई हरियाली – प्रो. एम. एस. स्वामीनाथन की कहानी

04 अगस्त 2025, नई दिल्ली: जिसके कारण खेतों में आई हरियाली – प्रो. एम. एस. स्वामीनाथन की कहानी – भारत के आधुनिक इतिहास में कुछ ही व्यक्तित्व ऐसे हैं जिन्होंने देश की दिशा को वैज्ञानिक सोच और दूरदृष्टि से इतनी गहराई से प्रभावित किया हो, जैसे प्रोफेसर एम. एस. स्वामीनाथन ने किया। 7 अगस्त 1925 को जन्मे प्रो. स्वामीनाथन को भारत की हरित क्रांति के जनक के रूप में जाना जाता है—एक ऐसा आंदोलन जिसने 1960 के दशक में देश को भुखमरी और खाद्यान्न संकट से निकालकर आत्मनिर्भरता की राह पर ला खड़ा किया।

प्रो. एम. एस. स्वामीनाथन

साल 2025 में जब हम उनकी 100वीं जयंती मना रहे हैं, तब यह केवल एक वैज्ञानिक को याद करने का अवसर नहीं, बल्कि उस क्रांति का पुनः मूल्यांकन करने का भी समय है जिसने भारत को दुनिया के प्रमुख कृषि उत्पादक देशों में शामिल कर दिया। इस अवसर पर एक और ऐतिहासिक घटना दर्ज हुई है—भारत ने कृषि वर्ष 2024–25 में अब तक का सर्वाधिक खाद्यान्न उत्पादन दर्ज किया है। कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय द्वारा जारी तीसरे अग्रिम अनुमान के अनुसार, देश का कुल खाद्यान्न उत्पादन 3539.59 लाख मीट्रिक टन (LMT) रहा है, जो वर्ष 2023–24 की तुलना में 216.61 लाख टन अधिक है—लगभग 6.5% की वृद्धि।

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हरित क्रांति से पहले की स्थिति: भुखमरी की कगार पर भारत

आज जब हम भारत को कृषि उत्पादन में आत्मनिर्भर देखते हैं, तब यह जानना आवश्यक है कि यह स्थिति हमेशा नहीं थी। स्वतंत्रता के बाद 1950 में भारत की जनसंख्या लगभग 35 करोड़ थी, और कुल खाद्यान्न उत्पादन लगभग 50 मिलियन टन के आसपास था। गेहूं का उत्पादन मात्र 12 मिलियन टन के आसपास था, जबकि धान की प्रति हेक्टेयर उपज 0.8 टन थी।

खेती मुख्यतः वर्षा पर आधारित थी, बीज पारंपरिक थे और सिंचाई के साधन सीमित। हर साल सूखा या बाढ़ किसानों के लिए भारी संकट लेकर आता था। 1950 और 1960 के दशक में अनाज उत्पादन की वार्षिक वृद्धि दर मात्र 2.4% थी—जो बढ़ती जनसंख्या के अनुरूप नहीं थी। देश को अपनी खाद्य जरूरतें पूरी करने के लिए अमेरिका से PL-480 कार्यक्रम के तहत गेहूं आयात करना पड़ता था। भुखमरी और कुपोषण आम समस्याएं थीं, और देश का आत्मविश्वास डगमगाने लगा था।

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हरित क्रांति की शुरुआत और प्रो. स्वामीनाथन की भूमिका

1960 के दशक के मध्य में जब देश भयानक खाद्यान्न संकट से जूझ रहा था, तब प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने वैज्ञानिकों और नीति निर्माताओं से समाधान की मांग की। इसी दौरान भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI) से जुड़े प्रो. स्वामीनाथन ने डॉ. नॉर्मन बोरलॉग के साथ मिलकर काम शुरू किया। उन्होंने मैक्सिकन बौने गेहूं की किस्मों को भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल बनाया और पंजाब, हरियाणा व पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उच्च उपज वाली किस्मों का सफल प्रयोग किया।

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कुछ ही वर्षों में, गेहूं का उत्पादन 1965 के 12 मिलियन टन से बढ़कर 1970 तक 20 मिलियन टन तक पहुंच गया। धान में भी क्रांतिकारी वृद्धि हुई जब IR8 जैसी उच्च उत्पादक किस्में प्रचलित हुईं। इसके साथ ही रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग, सिंचाई के साधनों में सुधार, और कृषि शिक्षा का विस्तार हुआ। देश ने खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता प्राप्त की, और आयात पर निर्भरता कम हो गई।

आँकड़ों में बदलाव की तस्वीर: 1965 से 2025 तक का सफर

1965–66 में जब हरित क्रांति की शुरुआत हुई, उस समय भारत का कुल खाद्यान्न उत्पादन केवल 72.4 मिलियन टन था। गेहूं मात्र 12 मिलियन टन के आसपास था। 1980 तक यह उत्पादन 130 मिलियन टन से अधिक हो गया, और गेहूं का उत्पादन 35 मिलियन टन के पार चला गया। 1966 से 1990 के बीच गेहूं की वार्षिक वृद्धि दर 5% से अधिक रही, वहीं धान की भी उपज दोगुनी से अधिक हुई।

पंजाब जैसे राज्यों ने इस क्रांति का नेतृत्व किया। 1960 में जहां पंजाब का गेहूं उत्पादन 1 मिलियन टन से भी कम था, वहीं 1985 तक यह 10 मिलियन टन के पार पहुंच गया। धान का उत्पादन, जो कभी नाममात्र था, 1990 तक 5 मिलियन टन हो गया।

अब वर्ष 2024–25 की बात करें तो कृषि मंत्रालय द्वारा जारी तीसरे अग्रिम अनुमान के अनुसार देश का कुल खाद्यान्न उत्पादन 3539.59 लाख मीट्रिक टन रहा है, जो पिछले वर्ष के 3322.98 LMT से 216.61 LMT अधिक है। यह लगभग 6.5% की वार्षिक वृद्धि को दर्शाता है। यह उपलब्धि कृषि वैज्ञानिकों, नीति निर्माताओं, किसानों और उस विरासत की देन है जिसकी नींव प्रो. स्वामीनाथन ने रखी।

हरित क्रांति से आगे की सोच: टिकाऊ और समावेशी कृषि का सपना

प्रो. स्वामीनाथन ने केवल उत्पादकता की बात नहीं की, बल्कि उन्होंने “एवरग्रीन रेवोल्यूशन” का विचार दिया—ऐसी कृषि जो उत्पादक भी हो, पर्यावरण के अनुकूल भी, और समाज के सभी वर्गों के लिए लाभकारी भी। उन्होंने रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध प्रयोग, जल स्रोतों के अत्यधिक दोहन, और एक ही फसल पर निर्भरता के खतरों को पहले ही भांप लिया था।

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उन्होंने जैव विविधता, देशी बीजों का संरक्षण, महिलाओं की भागीदारी, और परंपरागत ज्ञान के साथ वैज्ञानिक अनुसंधान के समन्वय पर जोर दिया। उनकी संस्था एम. एस. स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन (MSSRF) ने समुद्री कृषि, जलवायु अनुकूल खेती और आदिवासी क्षेत्रों में खाद्य सुरक्षा जैसे विषयों पर उल्लेखनीय काम किया।

शताब्दी वर्ष की पहलें: देश की ओर से श्रद्धांजलि

भारत सरकार ने प्रो. स्वामीनाथन की 100वीं जयंती पर ₹100 का विशेष स्मृति सिक्का जारी किया है, जिसे कोलकाता टकसाल में ढाला गया है। महाराष्ट्र सरकार ने 7 अगस्त को “सस्टेनेबल एग्रीकल्चर डे” घोषित किया है, और राज्य की कृषि यूनिवर्सिटीज़ में ‘बायो-हैप्पीनेस सेंटर’ खोलने का प्रस्ताव रखा गया है।

राष्ट्रीय स्तर पर ICAR, MSSRF, INSA और विभिन्न कृषि विश्वविद्यालय व्याख्यान, छात्रवृत्ति, फेलोशिप और पुरस्कारों के माध्यम से उनके विचारों को आगे बढ़ा रहे हैं। “फूड एंड पीस अवार्ड” जैसी पहलें उनके ‘भूख रहित विश्व’ के दृष्टिकोण को सम्मान देती हैं।

भविष्य की ओर: प्रो. स्वामीनाथन के मार्गदर्शन में आगे का रास्ता

आज जब भारत नई तकनीकों, जलवायु-संवेदनशील खेती, डिजिटल कृषि, और स्मार्ट फार्मिंग की ओर बढ़ रहा है, तब प्रो. स्वामीनाथन की सोच पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक है। उन्होंने कहा था कि “खेती को केवल टन में नहीं मापा जाना चाहिए, बल्कि उसमें पोषण, पर्यावरणीय संतुलन और ग्रामीण सशक्तिकरण का भी ध्यान होना चाहिए।”

भारत को अब केवल खाद्यान्न उत्पादन की दृष्टि से नहीं, बल्कि पोषण सुरक्षा, किसान आय, और जलवायु लचीलापन के क्षेत्र में भी वैश्विक नेतृत्व करना है।

एक सदी की विरासत, और आगे का रास्ता

हरित क्रांति ने भारत को खाद्य संकट से उबारा, लेकिन यह परिवर्तन केवल नीतियों या तकनीक से नहीं आया, बल्कि प्रोफेसर एम. एस. स्वामीनाथन जैसे दूरदर्शी वैज्ञानिकों की प्रेरणा से संभव हुआ। उनकी 100वीं जयंती पर देश उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए उनके विचारों को युगों तक आगे बढ़ाने का संकल्प लेता है।

अब समय है कि हम उस मार्ग पर आगे बढ़ें जिसे उन्होंने दिखाया था—विज्ञान को मानवता के साथ जोड़ते हुए, विकास को समावेशी बनाते हुए, और खेती को किसानों के लिए गर्व का विषय बनाते हुए।

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