खेसारी दाल से प्रतिबंध क्यों हटा ?
केन्द्र सरकार ने खेसारी दाल जिसे खेसोरी, तेवड़ा, लखाड़ी आदि नामों से जाना जाता है की खपत से प्रतिबंध हटाने का निर्णय लिया है। इस दाल की खेती पर 1961 में प्रतिबंध लगा दिया गया था। इसका मुख्य कारण इसमें पाये जाने वाला वीटा एन आक्सील डाईअमिनो प्रोपियोनिक (ओएडीएपी) अम्ल है जो मानव के तंत्रिका तंत्र पर प्रभाव डाल कर युवा, वयस्क पुरुषों के शरीर के निचले अंगों में पक्षघात (लकवा) उत्पन्न करता है। पिछली शताब्दी के साठ के दशक में मुख्य रूप से मध्य प्रदेश के रीवा जिले में यह एक गम्भीर बीमारी के रूप में उभरी जिसके कारण विभिन्न राज्यों में इसकी बिक्री तथा भण्डारण पर प्रतिबंध लगाना पड़ा। प्रतिबंध के पूर्व देश में इसकी खेती लगभग 13 लाख हेक्टेयर में हो रही थी। प्रतिबंध के बाद भी मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ तथा महाराष्ट्र में खेसारी दाल की खेती लगभग 60 हजार हेक्टेयर में होती रही। भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) ने यह राय दी थी कि खेसारी दाल के भण्डारण से प्रतिबंध हटा देना चाहिए तथा कृषि मंत्रालय को इस पौष्टिक दाल के उत्पादन बढ़ाने के लिए कार्य करना चाहिए। खेसारी दाल में 31 प्रतिशत प्रोटीन, 41 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट तथा 17 प्रतिशत रेशा रहता है। अन्य दालों से इसमें प्रोटीन की मात्रा अधिक रहती है। साधारणत: खेसारी दाल की विभिन्न जातियों में विषैले ओ.डी.ए.पी. की मात्रा 0.15 से 0.35 प्रतिशत तक रहती है। भारतीय कृषि वैज्ञानिकों ने पिछले कई वर्षों के अनुसंधान के बाद खेसारी की तीन जातियां रतन (0.06 प्रतिशत), प्रतीक (0.08 प्रतिशत) तथा महात्योरा (0.07 प्रतिशत) जिनमें विषैले ओडीएपी की मात्रा कम है। फिर भी 10 किलो बीज में 6 से 8 ग्राम विष होना बहुत अधिक खतरा कम नहीं करता है। यह निश्चित है कि प्रतिबंध हटने के बाद इसको कम लागत व कम मेहनत व अधिक लाभ के कारण किसान इसके खेती के प्रति आकर्षित होगा और यह किसी दलहनी फसल का ही रकबा कम करेगा।
यह जगजाहिर है कि इस दाल का उपयोग मुख्य रूप से अरहर में मिलावट के लिए किया जाता है साथ ही चने की दाल के साथ में बेसन बनाने के लिए इसका उपयोग किया जाता है। ऐसा लगता है कि सरकार अरहर की उत्पादकता बढ़ाने तथा उसकी कीमतों में लगाम न लगा पाने की असफलता के कारण खेसारी दाल पर नियंत्रण हटाने का फैसला किया है। ऐसा न हो कि देश की नई पीढ़ी को इस निर्णय के नतीजे भुगतने पड़ें।
खेसारी के दाल का सेवन भारत में हजारों नहीं, लाखों सालों से किया जाता रहा है. किसी क्षेत्र में फैली बीमारी का ठीकरा इस गरीब के खाने के ऊपर फोड़कर अनायास ही इसे विदेशी साजिश के तहत बदनाम किया गया था. जहाँ तक मुझे याद है, महाराष्ट्र के एक डॉक्टर महोदय ने वर्षो की कड़ी मेहनत के बाद वैज्ञानिक रूप से सिद्ध किया की यह दाल हानिकारक नहीं है और काफी कानूनी लड़ाई लड़कर इसके व्यापार से प्रतिबन्ध हटवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.