उद्यानिकी (Horticulture)

आलू को झुलसा से बचाएं

भारत देश में आलू साल भर उगाई जाने वाली फसल है। आलू एक ऐसी महत्वपूर्ण फसल है जिसका लगभग सभी घरों में किसी न किसी रूप में इस्तेमाल किया जाता है। आलू कम समय में पैदा होने वाली फसल है। भारत में आलू की खेती लगभग 2.4 लाख हेक्टेयर में की जाती है। जिसका सालाना उत्पादन लगभग 24.4 लाख टन हो गया है। इस समय भारत आलू उत्पादन के क्षेत्र में दुनिया में पांचवें स्थान पर है।

उत्तर प्रदेश के पूवी- मैदानी भाग में आलू की बुवाई के लिए अक्टूबर-नवम्बर का महीना अति उत्तम होता है। वैसे तो दिसम्बर मध्य तक बुवाई की जाती है। आलू में बहुत सी बीमारियाँ लगती हैं परंतु झुलसा रोग प्रमुख है आलू में झुलसा रोग से सर्वाधिक नुकसान होता है। इसके व्यापक खतरे से सभी किसान अच्छी तरह परिचित हैं। और हर साल देश के मैदानी भागों में इस रोग से भारी नुकसान भी होती है। जिसका सीधा प्रभाव किसानों की अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। आलू उगाने वाले सभी किसानों को इसके प्रति जागरूक रहने की आवश्यकता है, जिससे फसल को झुलसा के भयानक प्रकोप से बचाया जा सके। झुलसा की बीमारी दो प्रकार की होती है-

अगेती झुलसा एवं पिछेती खुलसा : जैसा की इसके नाम से जाहिर है कि अगेती झुलसा खेत में पहले आती है, जबकि पिछेती झुलसा प्राय: जनवरी-फरवरी में आती है। ये दोनों बीमारी दो अलग अलग फफूंद से उत्पन्न होती है। वैसे तो दोनों ही बीमारियों मे क्षति होती है, परंतु पछेती झुलसा से काफी नुकसान होता है। वर्ष 1985 में यह रोग व्यापक स्तर पर पूरे उत्तर भारत में आलू की पैदावार पर गहरा असर पड़ा था। 

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लक्षण– झुलसा रोग शुरू में साफ नजर आते हैं, और उनको अलग अलग पहचाना जा सकता है। अगेती झुलसा की बीमारी में पत्तियों पर एक केन्द्रीकीये करीब करीब गोलाकार धब्बे बनते हैं जो बाद में एक-दूसरे से मिल जाते हैं और बड़े धब्बे में परिवर्तित हो जाते हैं। और इस प्रकार पूरा पत्ती झुलस जाता है। वैसे यह बीमारी सामान्य तापक्रम पर आती है जबकि पिछेती झुलसा थोड़ी देर से आती है और कम तापक्रम पर बहुत जल्दी फैलती है। पिछेती झुलसा में पत्तियाँ किनारे से या शिखर से झुलसना प्रारम्भ कर देती हैं और धीरे-धीरे पूरी पत्ती ही प्रभावित हो जाती है। पत्तियों के निचले हिस्से में सफ़ेद रंग की फफूंदी दिखाई देने लगती है और इस तरह रोग फैलने से पूरा पत्ती शीघ्र ही काला पड़ के झुलस जाता है, और कन्द नहीं बनते अगर बनते भी हंै तो बहुत छोटे बनते है। साथ ही साथ इनकी भंडारण क्षमता भी घाट जाती है।

बीमारी के बढऩे में वातावरण का विशेष प्रभाव होता है अत: पिछेती झुलसा ऐसे वातावरण में महामारी का रूप ले लेती है यदि आसमान में 3-5 दिन तक बादल छाए रहे, धूप न निकले या हल्की हल्की बूँदा-बांदी हो जाए। कड़ाके की सर्दी भी पड़ती हो तो यह निश्चित तौर पर जान लेना चाहिए की यह बीमारी महामारी का रूप लेने वाली है। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए आलू की फसल की विशेष देखभाल बहुत जरूरी होती है किसान अपनी फसल को इस महामारी से तभी बचा सकता है जब वो बुवाई से पहले और बाद में कुछ विशेष बातों पर ध्यान देगा।

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निदान:

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  • यह बीमारी शीतगृहों में संचित आलू से जो पिछली साल बीमारी ग्रसित खेत से लिया गया हो, से किसान के खेत में पहुँचती है। अधिकतर किसान अब अपने खेत का ही आलू बीज के लिए सुरक्षित भंडारित करते हैं। इस दशा में किसान को चाहिए की वह स्वस्थ एवं सही बीज का चुनाव करें। आलू के कटे टुकड़े को या सम्पूर्ण आलू को रसायन अथवा जैविक (सीमेसान, एगलाल (लाल दावा), एरेटान व सेरेसान) से उपचार करें। इसके लिए किसी एक दवा का 0.25 प्रतिशत घोल बनाकर बीज को उपचारित करना चाहिए जिससे इस बीमारी की संभावना कम हो जाती है। साथ ही यह अन्य बीमारियों के लिए लाभदायक होता है।
  • सामान्यतया: आलू की मेढ़ को 9 इंच ऊंची बनाना चाहिए। इसके दो लाभ होते हैं एक तो आलू अच्छे बढ़ते हैं और साथ ही साथ रोग के फैलने की संभावना भी कम हो जाती है।
  • जब भी मौसम में कुछ बदलाव की संभावना हो, जैसे बादल का दिखाई देना और तापक्रम का कम होना, तो ऐसी अवस्था में डाइथेन एम-45 या डाइथेन जेड-78 या डाइफल्टान नमक दवा की 2.5 किलोग्राम मात्रा 1000 लीटर पानी में घोलकर एक हेक्टर में छिड़काव करें। ध्यान रहे की दवा पत्तियों के निचली सतह पर भी पड़ जाय। इसके लिए स्प्रेयर के नाजल को उल्टा करके दवा छिड़कने पर निचली सतह पर भी दवा पहुँच जाती है। 7-10 दिन के अंतराल पर 3-4 छिड़काव करने से बीमारी पर नियंत्रण किया जा सकता है।
  • झुलसा से प्रभावित खेतों में आलू की खुदाई पत्तियों के सूखने पर ही करें। उत्तम तो यह होता है कि खुदाई के पहले डाइथेन एम-45 या कापर सल्फेट का छिड़काव करें, इससे बीज काफी हद तक बीमारी के दुष्प्रभाव से बच सकता है।
  • प्रतिरोधी जातियों का चयन करें जैसे-कुफऱी किसान, कुफऱी कुन्दन, कुफऱी सिंदूरी, कुफऱी बादशाह, कुफऱी ज्योति आदि जातियां झुलसा रोग के लिए प्रतिरोधी पाई जाती है।
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