फसल की खेती (Crop Cultivation)उद्यानिकी (Horticulture)

आलू का पिछेती झुलसा रोग

लेखक: कार्तिकेय पांडेय, शोध छात्र, पादप रोग, विज्ञान, जवाहरलाल नेहरू कृ. विवि, जबलपुर, डॉ. जियाउल हक, पादप रोग विज्ञान विभाग, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, अलीगढ़, पवन चौकसे, शोध छात्र,पादप जैव प्रौद्योगिकी, जवाहरलाल नेहरू कृषि विवि, जबलपुर

16 जनवरी 2025, भोपाल: आलू का पिछेती झुलसा रोग – लेट ब्लाइट एक ऐसी बीमारी है जो आलू, टमाटर आदि जैसे सोलेनेसियस पौधों में आम है। इसका रोगजऩक फंगस फाइटोप्थोरा इन्फेस्टैन्स के कारण होता है। आलू में लेट ब्लाइट एक घातक बीमारी है जो फसल को तबाह करने की क्षमता रखती है। यह किसी भी अवस्था में फसल पर हमला कर सकता है और पत्ते और कंदों को संक्रमित कर सकता है। फाइटोप्थोरा इन्फेस्टैन्स एक परजीवी है जो जीवित रहने के लिए आलू के पौधा कि कोशिका पर आक्रमण करता है। यह एक फफूंद है जो फसल को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है। वे कंदों में सडऩ उत्पन्न करके फसल को प्रभावित कर सकते हैं। फाइटोप्थोरा इन्फेस्टैन्स से संक्रमित होने पर फसल की गुणवत्ता और उत्पादकता भी कम हो जाती है। इसमें फसल को पूरी तरह नष्ट करने की क्षमता होती है।

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रोग के लक्षण

पत्तों पर

पत्ती के सिरे, किनारों या किसी अन्य भाग पर छोटे-छोटे जल-युक्त धब्बे विकसित हो जाते हैं, जो बढ़कर अनियमित गहरे भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं, जिनके चारों ओर हल्का हरा रंग का घेरा बन जाता है। सुबह के समय, पत्तियों की निचली सतह पर गहरे भूरे रंग के घावों के चारों ओर कवक की एक सफेद रूई जैसी वृद्धि दिखाई देती है, विशेषकर जब मौसम पर्याप्त रूप से आर्द्र रहता है या जब सुबह के समय ओस गिरती है।

यदि मौसम शुष्क हो जाए तो घाव परिगलित हो जाते हैं और सूख जाते हैं। अनुकूल मौसम की स्थिति (कम तापमान, रुक-रुक कर होने वाली सर्दियों की बारिश के कारण उच्च आर्द्रता) में यह रोग तेजी से फैलता है और 10-14 दिनों के भीतर पूरी फसल नष्ट हो जाती है तथा फसल झुलस जाती है। तना पर संक्रमित कंदों से उत्पन्न संक्रमण की स्थिति में, जमीन के नीचे तने पर लम्बी भूरी धारियां विकसित होती हैं और उसे घेर लेती हैं।

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कंद पर

संक्रमित कंदों पर अनियमित, उथले या धँसे हुए भूरे रंग के धब्बे दिखाई देते हैं। संक्रमित ऊतक के अंदर अलग-अलग गहराई तक स्पंजी और जंग लगे भूरे रंग के धब्बे होते हैं। छोटे अपरिपक्व कंद बड़े कंदों की तुलना में संक्रमण के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं तथा भारी गीली मिट्टी में सडऩ अधिक होती है।

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रोग चक्र

यह कवक शीतगृहों में रखे संक्रमित आलू के बीज में माइसीलियम के रूप में गर्मियों में जीवित रहता है। ये कंद जब अगली फसल के मौसम (मुख्य फसल और उसके बाद की फसल) में रोपे जाते हैं तो प्राथमिक इनोकुलम के स्रोत के रूप में काम करते हैं। जब पौधे ऐसे कंदों से निकलते हैं, तो नमी वाली परिस्थितियों में फफूंद कुछ बढ़ते हुए अंकुरों और बीजाणुओं (स्पोरैंगिया उत्पन्न करने वाले) पर आक्रमण कर देता है। रोग का आगे प्रसार इन स्पोरैंगिया द्वारा हवा या बारिश की बौछारों के माध्यम से होता है। रोग की शुरुआत में आमतौर पर 3-7 दिन लगते हैं, उसके बाद ही स्पष्ट रूप से दिखाई देने वाले लक्षण दिखाई देते हैं। ये स्पोरैंगिया आस-पास के पौधों की नई पत्तियों और तनों को संक्रमित कर देती हैं और यह चक्र हर 4-10 दिन के बाद जारी रहता है, जो कि प्रचलित तापमान और आर्द्रता के स्तर पर निर्भर करता है।
यदि तापमान 10 डिग्री सेल्सियस से कम है, तो रोग का विकास धीमा हो जाता है और 12 दिनों तक का समय लगता है, जबकि 16-18 डिग्री सेल्सियस के तापमान पर, एक चक्र पूरा होने में केवल 4-5 दिन लगते हैं। वर्षा से बहकर आए या सिंचाई के पानी से बहकर आए स्पोरैंगिया मिट्टी में कंदों पर संक्रमण का कारण बनते हैं। आंशिक रूप से उजागर कंद आसानी से संक्रमित हो सकते हैं। ये संक्रमित कंद अगले वर्ष की फसल के लिए प्राथमिक स्रोत के रूप में काम करते हैं।

रोग प्रबंधन

प्रभावित फसलों की बर्बादी और अन्य खेतों में भी संक्रमण से बचने के लिए इसका उचित प्रबंधन करने के लिए शीघ्र निदान की आवश्यकता है। आलू के लेट ब्लाइट रोग के लिए, इन उपायों को अपनाया जा सकता है-

  • रोग मुक्त कंदों का चयन करके रोपाई करें, संक्रमण प्रतिरोधी प्रजातियों की फ़सलें उगाएं।
  • रोग का सफल नियंत्रण कवकनाशी की प्रभावकारिता और स्प्रे समाधान के साथ पत्तियों के अच्छे कवरेज दोनों पर निर्भर करता है। पड़ोसी किसानों को भी फसलों पर फफूंदनाशकों का छिड़काव करने की सलाह दी जानी चाहिए ताकि रोग का प्रकोप कम से कम हो।
  • इन परिस्थितियों में,इंडोफिल एम-45, रिडोमिल गोल्ड या कजऱ्ेट एम-8, सेक्टिन, इक्वेशन प्रो ञ्च 150-200 मिली/एकड़ देना चाहिए और 10 दिनों के अंतराल पर एक बार दोहराया जाना चाहिए।
  • भंडारण क्षेत्र को साफ़ रखें, रोग की तीव्रता 70 प्रतिशत से ज़्यादा होने पर तनों को काटकर गड्ढों में दबा दें, खुदाई के दौरान झुलसा से ग्रस्त कंदों को छांटकर गड्ढों में दबा दें। खुदाई के तुरंत बाद फसल के रोगी पौध अवशेषों को इक_ा करके जला दें।

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