Horticulture (उद्यानिकी)

नए बागों की देख-रेख

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पौधों को बगीचों में लगाने के पश्चात् उनकी शीघ्र एवं उचित वृद्धि के लिए अच्छी प्रकार से देखभाल करना आवश्यक है। जिसके लिये निम्रलिखित काम सुचारू रूप से करना चाहिये:-

सिंचाई:- नये स्थापित पौधों में पानी की अधिकता व कमी दोनों हानि पंहुचाते हैं। अत: आवश्यकतानुसार पानी देना चाहिये। पानी की आवश्यकता भूमि के प्रकार तथा ऋतु के ऊपर निर्भर करती है। प्रथम सिंचाई यदि वर्षा न हो तो, पौधे लगाने के तुरन्त बाद की जानी चाहिये। इसके बाद आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहें। गर्मियों में सिंचाई प्रात: या सायं के समय करनी चाहिये।

सिंचाई की पद्धति का चयन:- सिंचाई करते समय सदैव ध्यान रखना चाहिये कि उतना ही पानी दिया जाये जो कि उस भूमि के अन्दर फैली हुई जड़ों को भली-भांति गीला कर दें। इससे कम या अधिक दोनों ही मात्रा हानिकारक होती है। सिंचाई की पद्धति का चयन करते समय निम्र बातों का ध्यान रखना चाहिये।

  • फल वृक्षों का आकार।
  • फल वृक्षों में आपसी अन्तर एवं रोपण करने की विधि।
  • सिंचाई के स्त्रोत का आकार तथा प्रवाह।
  • भूमि की किस्म एवं स्थल आकृति।
  • पानी दिये जाने की मात्रा।

सिंचाई की पद्धतियां:- फल बगीचों में सिंचाई की अनेक विधियां हैं। परन्तु ऐसी सिंचाई विधि अपनाई जाए जिसमें जल का खर्चा कम से कम हो। 

बहाव पद्धति:- इस विधि का प्रयोग जब फल वृक्ष बड़े हो जाते हैं और उनकी जड़े पूरे क्षेत्र में फैल जाती है या पानी अधिक मात्रा में उपलब्ध होता है। तब यह पद्धति काम में लाई जाती है। इस पद्धति में पूरे क्षेत्र को सुविधानुसार क्यारियों में विभाजित कर सिंचाई की जाती है।

थाला पद्धति:- इस विधि के अन्तर्गत पौधों के चारों ओर थाला बना दिया जाता है। यह थाला गोलाकार या वर्गाकार हो सकता है। पौधों की दो कतारों के मध्य एक नाली बनाई जाती है। और थालों को इस वितरण नाली से जोड़ दिया जाता है। इस विधि से जल का वितरण समान रूप से होता है एवं पौधों की जड़ों में पानी पंहुचता है।

अंगूठी पद्धति:- इस विधि का प्रयोग पौधों की छोटी अवस्था में किया जाता है। पौधे के चारों ओर अंगूठीनुमा आकार बना दिया जाता है। और एक कतार में सभी वृक्षों के घेरे एक नाली से जोड़ दिए जाते हैं। इस विधि में पानी सीमित क्षेत्र में ही लगता है।

ड्रिप सिंचाई पद्धति:- यह एक बहुत ही आधुनिक सिंचाई की पद्धति है। जहां पर पानी की बहुत कमी हो वहां पर यह विधि बहुत ही उपयुक्त रहती है। ड्रिप सिंचाई पद्धति का सिद्धंात जिस क्षेत्र में पौधों की जड़ें फैली हुई रहती हैं, उस क्षेत्र में अर्थात् जड़ क्षेत्र में प्रत्यक्ष रूप से पानी देने का है। इसमें प्लास्टिक की पतली  नलिकाओं में से कम दबाव द्वारा प्रवाहित किया जाता है। इन नालियों में प्रत्येक पौधे के पास एक बाल्व होता है। जिसमें से पानी निकलने की मात्रा प्रतिदिन पौधे के पास की आवश्यकतानुसार रखी जाती है। इस विधि में जल की हानि कम से कम होती है। 

खरपतवार नियंत्रण:- युवा फल-पौधों को , खरपतवार विशेष रूप से हानि पंहुचाते हैं। खरपतवार नियंत्रण के लिए समय-समय पर निंदाई-गुड़ाई करते रहना चाहिए।

खाद एवं उर्वरक:- पौधों की अच्छी वृद्धि के लिए खाद एवं उर्वरकों को उचित मात्रा में दिया जाना आवश्यक है। खाद एवं उर्वरक की मात्रा विशेष रूप से फल-पौधों की किस्म तथा भूमि की उर्वरता पर निर्भर करती है। वर्ष में एक बार वर्षा ऋतु के उपरांत पकी गोबर खाद या कम्पोस्ट निश्चित मात्रा में देनी चाहिए। यदि पौधों  की वृद्धि ठीक नहीं हो रही है तो, फरवरी-मार्च में नाइट्रोजनयुक्त उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिये। खाद व उर्वरक देने के पश्चात् हल्की सिंचाई कर देनी चाहिये।

कटाई एवं छंटाई :- प्रारम्भिक अवस्था में पौधों का ढांचा बनाने के लिये कटाई-छंटाई की जाती है। सदाबहार पौधों में बहुत कम कटाई की आवश्यकता होती है, जबकि पर्णपाती जैसे-सेब, नाशपाती, आडू व अंगूर आदि में पौधों को निश्चित आकार देने के लिये, अपेक्षाकृत अधिक काट-छंाट की आवश्यकता होती है। यह उचित समय पर एवं उचित मात्रा में किया जाना चाहिए।

पौधों को छाया देना:- तेज धूप व ‘लूÓ से बचाने के लिए प्रत्येक पौधे को छाया देना आवश्यक है। छाया बांस की चटाई का घेरा, घास की झोपड़ी, ताड़ तथा खजूर की पत्तियां आदि से बनाई जाती हैं। पौधों में छाया करते समय यह ध्यान रखें कि प्रात:काल की धूप पौधों पर लग सकें। शीत ऋतु में पौधों को पाले से बचाने के लिए समुचित उपाय करना चाहिए। पाला पड़ते समय सिंचाई करना व धुआं करना भी लाभकारी होता है।

पौधों को सहारा देना:- नए लगाए गए पौधों को बांस या लकड़ी लगाकर सहारा देना चाहिए, जिससे वह तेज हवा से टूट न जाए। कलमी पौधों में इस तरह की सुरक्षा की अधिक आवश्यकता होती है।

पुन:रोपण:- उद्यानों में लगाए गए पौधों में से यदि कुछ पौधे मर जाएं तो उनके स्थान पर मार्च या जुलाई में नए पौधे लगा देना चाहिए। आरम्भ में जब उद्यान में पौधे लगाएं तब कुछ पौधों को गमलों में लगा देना चाहिए। ये पौधे मरे हुए पौधों के स्थान पर लगाने के काम आते हैं।

कीट व्याधियों का नियंत्रण:- पौधों में यदि कोई बीमारी या कीटों का आक्रमण दिखाई दे तो आवश्यक दवाईयों का छिड़काव करना चाहिए। वर्षा ऋतु के बाद वृक्षों के तनों पर बोर्डों पेस्ट लगा देना चाहिए।पौधों को बगीचों में लगाने के पश्चात् उनकी शीघ्र एवं उचित वृद्धि के लिए अच्छी प्रकार से देखभाल करना आवश्यक है। जिसके लिये निम्रलिखित काम सुचारू रूप से करना चाहिये:-

सिंचाई:- नये स्थापित पौधों में पानी की अधिकता व कमी दोनों हानि पंहुचाते हैं। अत: आवश्यकतानुसार पानी देना चाहिये। पानी की आवश्यकता भूमि के प्रकार तथा ऋतु के ऊपर निर्भर करती है। प्रथम सिंचाई यदि वर्षा न हो तो, पौधे लगाने के तुरन्त बाद की जानी चाहिये। इसके बाद आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहें। गर्मियों में सिंचाई प्रात: या सायं के समय करनी चाहिये।

सिंचाई की पद्धति का चयन:- सिंचाई करते समय सदैव ध्यान रखना चाहिये कि उतना ही पानी दिया जाये जो कि उस भूमि के अन्दर फैली हुई जड़ों को भली-भांति गीला कर दें। इससे कम या अधिक दोनों ही मात्रा हानिकारक होती है। सिंचाई की पद्धति का चयन करते समय निम्र बातों का ध्यान रखना चाहिये।

  • फल वृक्षों का आकार।
  • फल वृक्षों में आपसी अन्तर एवं रोपण करने की विधि।
  • सिंचाई के स्त्रोत का आकार तथा प्रवाह।
  • भूमि की किस्म एवं स्थल आकृति।
  • पानी दिये जाने की मात्रा।

सिंचाई की पद्धतियां:- फल बगीचों में सिंचाई की अनेक विधियां हैं। परन्तु ऐसी सिंचाई विधि अपनाई जाए जिसमें जल का खर्चा कम से कम हो। 

बहाव पद्धति:- इस विधि का प्रयोग जब फल वृक्ष बड़े हो जाते हैं और उनकी जड़े पूरे क्षेत्र में फैल जाती है या पानी अधिक मात्रा में उपलब्ध होता है। तब यह पद्धति काम में लाई जाती है। इस पद्धति में पूरे क्षेत्र को सुविधानुसार क्यारियों में विभाजित कर सिंचाई की जाती है।

थाला पद्धति:- इस विधि के अन्तर्गत पौधों के चारों ओर थाला बना दिया जाता है। यह थाला गोलाकार या वर्गाकार हो सकता है। पौधों की दो कतारों के मध्य एक नाली बनाई जाती है। और थालों को इस वितरण नाली से जोड़ दिया जाता है। इस विधि से जल का वितरण समान रूप से होता है एवं पौधों की जड़ों में पानी पंहुचता है।

अंगूठी पद्धति:- इस विधि का प्रयोग पौधों की छोटी अवस्था में किया जाता है। पौधे के चारों ओर अंगूठीनुमा आकार बना दिया जाता है। और एक कतार में सभी वृक्षों के घेरे एक नाली से जोड़ दिए जाते हैं। इस विधि में पानी सीमित क्षेत्र में ही लगता है।

ड्रिप सिंचाई पद्धति:- यह एक बहुत ही आधुनिक सिंचाई की पद्धति है। जहां पर पानी की बहुत कमी हो वहां पर यह विधि बहुत ही उपयुक्त रहती है। ड्रिप सिंचाई पद्धति का सिद्धंात जिस क्षेत्र में पौधों की जड़ें फैली हुई रहती हैं, उस क्षेत्र में अर्थात् जड़ क्षेत्र में प्रत्यक्ष रूप से पानी देने का है। इसमें प्लास्टिक की पतली नलिकाओं में से कम दबाव द्वारा प्रवाहित किया जाता है। इन नालियों में प्रत्येक पौधे के पास एक बाल्व होता है। जिसमें से पानी निकलने की मात्रा प्रतिदिन पौधे के पास की आवश्यकतानुसार रखी जाती है। इस विधि में जल की हानि कम से कम होती है। 

खरपतवार नियंत्रण:- युवा फल-पौधों को , खरपतवार विशेष रूप से हानि पंहुचाते हैं। खरपतवार नियंत्रण के लिए समय-समय पर निंदाई-गुड़ाई करते रहना चाहिए।

खाद एवं उर्वरक:- पौधों की अच्छी वृद्धि के लिए खाद एवं उर्वरकों को उचित मात्रा में दिया जाना आवश्यक है। खाद एवं उर्वरक की मात्रा विशेष रूप से फल-पौधों की किस्म तथा भूमि की उर्वरता पर निर्भर करती है। वर्ष में एक बार वर्षा ऋतु के उपरांत पकी गोबर खाद या कम्पोस्ट निश्चित मात्रा में देनी चाहिए। यदि पौधों  की वृद्धि ठीक नहीं हो रही है तो, फरवरी-मार्च में नाइट्रोजनयुक्त उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिये। खाद व उर्वरक देने के पश्चात् हल्की सिंचाई कर देनी चाहिये।

कटाई एवं छंटाई :- प्रारम्भिक अवस्था में पौधों का ढांचा बनाने के लिये कटाई-छंटाई की जाती है। सदाबहार पौधों में बहुत कम कटाई की आवश्यकता होती है, जबकि पर्णपाती जैसे-सेब, नाशपाती, आडू व अंगूर आदि में पौधों को निश्चित आकार देने के लिये, अपेक्षाकृत अधिक काट-छंाट की आवश्यकता होती है। यह उचित समय पर एवं उचित मात्रा में किया जाना चाहिए।

पौधों को छाया देना:- तेज धूप व ‘लूÓ से बचाने के लिए प्रत्येक पौधे को छाया देना आवश्यक है। छाया बांस की चटाई का घेरा, घास की झोपड़ी, ताड़ तथा खजूर की पत्तियां आदि से बनाई जाती हैं। पौधों में छाया करते समय यह ध्यान रखें कि प्रात:काल की धूप पौधों पर लग सकें। शीत ऋतु में पौधों को पाले से बचाने के लिए समुचित उपाय करना चाहिए। पाला पड़ते समय सिंचाई करना व धुआं करना भी लाभकारी होता है।

पौधों को सहारा देना:- नए लगाए गए पौधों को बांस या लकड़ी लगाकर सहारा देना चाहिए, जिससे वह तेज हवा से टूट न जाए। कलमी पौधों में इस तरह की सुरक्षा की अधिक आवश्यकता होती है।

पुन:रोपण:- उद्यानों में लगाए गए पौधों में से यदि कुछ पौधे मर जाएं तो उनके स्थान पर मार्च या जुलाई में नए पौधे लगा देना चाहिए। आरम्भ में जब उद्यान में पौधे लगाएं तब कुछ पौधों को गमलों में लगा देना चाहिए। ये पौधे मरे हुए पौधों के स्थान पर लगाने के काम आते हैं।

कीट व्याधियों का नियंत्रण:- पौधों में यदि कोई बीमारी या कीटों का आक्रमण दिखाई दे तो आवश्यक दवाईयों का छिड़काव करना चाहिए। वर्षा ऋतु के बाद वृक्षों के तनों पर बोर्डों पेस्ट लगा देना चाहिए।

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