संपादकीय (Editorial)

जंगल बचाने की चुनौती

  • सुरेश भाई

26 अगस्त 2021, जंगल बचाने की चुनौती – जल, जंगल, जमीन जीवन का आधार है। इनका अस्तित्व भी एक-दूसरे पर टिका हुआ है। जमीन के ऊपर जंगल के रूप में खड़े पेड़-पौधे सैनिकों की तरह मिट्टी और जल की रक्षा करते हैं और प्राणवायु को धरती पर बिखेरकर प्राणियों के जीवन की रक्षा कर रहे हैं। यदि ये बातें किताबों व भाषणों तक ही सीमित रहेंगी और इसकी जमीनी हकीकतों से किनारा-कशी करते रहेंगे तो जंगल कैसे बचेंगे? आजकल जंगलों का चारों ओर विनाश हो रहा है। विकास के नाम पर चंद सुविधाओं के लिये बिना सोचे-समझे प्रतिदिन लाखों पेड़ों की हजामत हो रही है। ऐसे ‘विकास पुरुष’ जब दुनिया के सामने पर्यावरण संरक्षण की दुहाई देने पहुंच जाते हैं तब उन पर किसे अफसोस नहीं होगा?

अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण सम्मेलनों में ग्रेटा थनबर्ग जैसी साहसी लडक़ी ने दुनिया के राष्ट्राध्यक्षों और वन-विनाश के दुष्प्रभावों पर बहुत सटीक टिप्पणी की है। इसके बावजूद विकसित देश अपने प्राकृतिक संसाधनों को बाजारू माल की तरह बेच रहे हैं। जब वे जलवायु संकट के घेरे में फंसने लगते हैं तो अपने विकास के सारे मानक विकासशील देशों पर थोपने लगते हैं। वे भी उनकी नकल करके अपने देश में वही विकास कर रहे हैं जिससे विकसित देशों की हवा, पानी, मिट्टी, जंगल बर्बाद हुए है। इसके दुष्परिणामों के कई उदाहरण मिल रहे हैं और हर रोज देशभर से वन-विनाश की खबरें आती रहती हैं। पर्यटन, व्यावसायिक-दोहन, खनन, नये शहरों का निर्माण, बड़े बांध, बैराज, चौड़ी सडक़ें आदि के नाम पर लाखों पेड़ों की बर्बादी हो रही है।

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मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड इलाके में स्थित बकस्वाह कस्बे में प्रस्तावित हीरा खनन के नाम पर 2 लाख 15 हजार से अधिक पेड़ों को काटने का विरोध चल रहा है। यहां पर लगभग 40 हजार से अधिक सागौन के पेड़ हैं। इसके अलावा तेंदूपत्ता, महुआ, बहेड़ा, पीपल, अर्जुन जैसे अनेक औषधीय वनस्पतियों का भंडार है। इन वनस्पतियों पर गांव के लगभग 1000 परिवारों की आजीविका निर्भर है। लोगों के विरोध के बावजूद हीरा खनन की परियोजना को बढ़ाया जा रहा है। नतीजे में यहां का 382.131 हेक्टेयर जंगल हमेशा के लिये खत्म हो जाएगा। यहां वन के बीच में निवास कर रहे वन्य जीव, जैस-तेंदुआ, बारहसिंगा, बाघ, भालू, हिरण, मोर आदि जीवजन्तु नष्ट हो जायेंगे।

यहां मौजूद ‘पन्ना टाइगर रिजर्व’ और ‘नौरादेही वन्य-जीव अभ्यारण्य इसके बीच में पड़ता है। इस भारी खनन से स्थानीय पर्यटन स्थल भीमकुण्ड, जटाशंकर पर भी प्रभाव पड़ेगा। बकस्वाह गांव के पर्यावरण के साथ यह कितनी ज्यादती हो रही है कि पहले हीरा खनन के नाम पर जंगल का सफाया किया जाना है फिर यहां के बीच से निकल रही एक छोटी नदी पर बांध बनाने की योजना है। प्रकृति के साथ यह खिलवाड़ यहीं पर समाप्त नहीं होता। इसके आगे भी खनन करते समय हर रोज 1.60 करोड़ लीटर पानी की आवश्यकता पड़ेगी। इस पर सवाल उठता है कि इतना पानी कहां से आयेगा? निश्चित ही यहां की प्राकृतिक नदी का बड़ी मात्रा में अनियोजित शोषण होगा। इसका विपरीत प्रभाव स्थानीय लोगों के पेयजल स्रोतों पर पड़ेगा। हीरा खनन के लिये लगभग 1100 फीट नीचे जमीन को खोदा जाना है, जिससे क्षेत्र में पानी के लिये हाहाकार मचेगा। प्रभावित लोगों का जीवन तबाह हो जायेगा।

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इस गांव की समृद्ध प्राकृतिक संपदा का वर्णन कई रिपोर्टों में दर्ज है। स्थानीय वन विभाग के पास भी यहां के जंगल का पुराना सर्वे मिला है, लेकिन जब हीरा-खनन के नाम पर ‘आदित्य बिड़ला समूह’ की ‘एस्सेल माइनिंग इण्डस्ट्रीज लि.’ को ठेका मिलने की सूचना दी गई तो वे यहां के वन एवं वन्य जीवों की वास्तविक संख्या पर टाल-मटोल करने लगे। आंकड़ों में फेरबदल प्रारंभ हो गया है। बकस्वाह गांव के लोग अपने वन एवं पर्यावरण को बचाने के लिये केन्द्र सरकार के दिल्ली कार्यालय तक पहुंच चुके हैं, लेकिन सरकार कब गांव की इस सच्चाई को समझेगी इसका पता नहीं है। इसी इलाके में केन, बेतवा नदी-जोड़ के नाम पर लाखों पेड़ों की बलि चढ़ाई जा रही है। राज्य अपनी कमाई के लिये वनों को काट रहा है। ऐसे में जंगलों को बचाना चुनौती बन गया है। (सप्रेस)

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