जीरे की सफल खेती
बुवाई
जीरे की बुवाई मध्य नवम्बर के आसपास कर देनी चाहिए। अगेती या पछेती बुवाई में बीमारियों अथवा कीटों के प्रकोप की संभावना बहुत अधिक रहती है जिसके कारण फसल की पैदावार पर बहुत ही प्रतिकूल असर होता है। जीरे की बुवाई के लिए 12 किलो बीज एक हैक्टेयर के लिए पर्याप्त होता है। बुवाई के लिए उन्नत किस्म के निरोगी बीज काम में ले व बुवाई से पहले उन्हें उपचारित कर लें। जीरे को अधिकतर छिटकवां विधि से बोया जाता है लेकिन कतारों में बुवाई करना वैज्ञानिक दृष्टी से बेहतर रहता है। उचित यन्त्र की मदद से जीरे को कतारों में बोया जा सकता है। बुवाई गहरी न करें व बुवाई के बाद हल्की झाड़ी से बीजों पर हल्की मिट्टी की परत चढा देवें। कतार में जीरे की बुवाई करने से उसमें निराई-गुड़ाई व दवाओं का छिड़काव आसानी से हो जाता है साथ ही झुलसा बीमारी का प्रकोप भी कम होता है। जीरे की बुवाई के लिये खेत को दो-तीन जुताई कर भूमि को भुरभुरा कर लें। अगर पिछली खरीफ में भारी जड़ों वाली फसलें जैसे ज्वार, बाजरा आदि बोयी गई हो तो पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हक से करना अधिक उपयुक्त होगा।
उन्नत किस्में
आरजेड 19, आरजेड 209,गुजरात जीरा-4 (जी.सी.4)
खाद एवं उर्वरक
अगर पिछली खरीफ की फसल में पर्याप्त गोबर/कम्पोस्ट खाद दी गयी हो तो जीरे की फसल में अतिरिक्त खाद की जरूरत नहीं होती अन्यथा खेत की जुताई के ठीक पहले 15 से 20 टन/हैक्टेयर की दर से खाद डाल कर खेत मे अच्छी तरह से मिला लें। अच्छे उत्पादन के लिए 30 कि.ग्रा. नाईट्रोजन व 20 कि.ग्रा. फास्फोरस प्रति हैक्टेयर की दर से देना चाहिये। फास्फोरस की पूरी मात्रा बुवाई के समय में दे व नाईट्रोजन को दो भागों मे बांट कर पहला भाग बुवाई के 30 से 35 दिन बाद व बाकी भाग बुवाई के 60 दिन बाद सिंचाई के साथ दें। जीरे की फसल मे रोग रोधी क्षमता बढ़ाने व बीज की गुणवत्ता बढ़ाने में पोटाश खाद का प्रयोग लाभप्रद रहता है।
संसार में बीज मसाला उत्पादन तथा बीज मसाला निर्यात के हिसाब से भारत का प्रथम स्थान है। जीरा बीज मसाले वाली एक मुख्य फसल है। इसका उपयोग मसाले के अतिरिक्त औषधियां बनाने के लिए किया जाता है। इसके बीजों में वाष्पशील तेल 2.5-4.5 प्रतिशत पाया जाता है। कृषक जीरे की सफल खेती करके ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमा सकते हैं। |
सिंचाई प्रबन्धन
क्यारी नुमा सिंचाई विधि द्वारा बुवाई के तुरन्त बाद पहली सिंचाई हल्की की जाती है। इसके 8-10 दिन बाद बीजों के अंकुरण के लिए दूसरी सिंचाई की जाती है। अगर ऊपर की भूमि तेज गर्मी के कारण जल्दी सूख जाये व उस पर सख्त पपड़ी बन जाये उस अवस्था में बीजों के समुचित उगाव के लिये तीसरी हल्की सिंचाई की आवश्यकता भी हो सकती है। बीज उगने के बाद भूमि की बनावट तथा मौसम के अनुसार 2 से 3 सिंचाईयां पर्याप्त रहती है। फसल में दाने पकते समय अन्तिम सिंचाई गहरी कर देनी चाहिए। आकाश में बादल छाये हो तब सिंचाई नहीं करें। फव्वारा विधि द्वारा सिंचाई करनी हो तो बुवाई के समय, 10, 30, 55 व 80 दिन की अवस्था पर तीन घंटे फब्बारा चला कर दें।
खरपतवार नियन्त्रण
जीरे की अच्छी फसल के लिये दो निराई गुड़ाई आवश्यक है। प्रथम निराई गुड़ाई 30-35 दिन बाद व दूसरी 55-60 दिन बाद करनी चाहिए। पहली निराई के समय अनावश्यक पौधों को भी उखाड़ कर हटा देवें जिससे पौधों की दूरी 5-7 सेन्टीमीटर रहे। यहां निराई गुड़ाई का प्रबन्ध न हो सके वहां पर जीरे की फसल में खरपतवार नियंत्रण हेतु निम्न रसायनों में से किसी एक का प्रयोग करें। पेंडीमिथालीन एक किलोग्राम सक्रिय तत्व (3.33 किलो स्टाम्प एफ 34) प्रति हैक्टेयर (4.5 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में) पानी में मिलाकर बुवाई के 1 से 2 दिन बाद तथा खरपतवार उगने से पूर्व छिड़काव करें। आक्सडाईरजिल/ आक्सीफ्लोरफेन 50 ग्राम (750 मिली. राफ्ट या 250 मिली गोल) प्रति हैक्टेयर पानी में मिलाकर बुवाई के 15-20 दिन बाद छिड़काव करें। कृषि अनुसंधान केन्द्र, मण्डोर पर किये गये परीक्षणों से यह निष्कर्ष निकला कि जिन खेतों में जीरे के बाद बाजरा की फसल उगाई जानी हो वहां जीरे में पेंडामिथालीन नींदानाशी का उपयोग नहीं करना चाहिए क्योंकि पेंडामिथालीन के अवशेष मिट्टी में इसके देने के 6 महिने तक रहता है। इस नीदांनाशी के इस्तेमाल के बाद गहरी ंिसंचाई देने के पश्चात भी इसका प्रभाव कम नहीं पड़ता है।
उपज
जीरे की फसल 90 से 125 दिन में पक कर तैयार हो जाती है। फसल को काट कर साफ एवं पक्के खलिहान में सूखा कर दाने निकाल लें। दानों से मिट्टी, कचरा या अन्य पदार्थ अलग कर अच्छी तरह सूखा कर बोरियों में भर लें। 6 से 10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर जीरे की उपज प्राप्त हो सकती है।
रोग व कीट प्रबन्धनउखटा (विल्ट): यह रोग ‘फ्यूजेरियम आक्सीस्पोरम कुमीनाइ’ नामक कवक से होता है। इस रोग का प्रकोप पौधों की किसी भी अवस्था में हो सकता है परन्तु युवावस्था में ज्यादा होता है। जीरे में होने वाले रोगों में यह ज्यादा हानिकारक होता हैं क्योंकि इसके प्रकोप से पूरी फसल नष्ट होती है। पहले वर्ष यह बीमारी कही कही पर खेत में आती है फिर प्रतिवर्ष बढ़ती रहती हैै और तीन वर्ष बाद उस क्षेत्र में जीरा की फसल लेना असम्भव हो जाता है। लक्षण: यह बीमारी भूमि एवं बीज के साथ आती है। रोग के सर्वप्रथम लक्षण उगने वाले बीज पर आते हैं तथा पौधा भूमि से निकलने के पहले ही मर जाता है। फसल पर रोग आने से रोगग्रस्त पौधे मुरझा जाते है। रोग का प्रकोप फूल आने के बाद होता है तो कुछ बीज बन जाते है। ऐसे रोग ग्रसित बीज हल्के, आकार में छोटे, पिचके हुए तथा उगने की क्षमता कम रखते है। रोगी पौधे कद में छोटे तथा दूर से पत्तियों पीली नजर आती है। रोकथाम: रोग ग्रसित खेत में जीरा न बोयें। बुवाई 15 नवम्बर के आसपास करें। रोग रहित फसल से प्राप्त स्वस्थ बीज को ही बोयें। बीजों को कार्बेण्डाजिम 50 डब्ल्यू पी. से 2 ग्राम प्रति किलो बीज से उपचारित कर बुवाई करें। कम से कम तीन वर्ष का फसल चक्र (ग्वार-जीरा ग्वार-गेहूं-ग्वार-सरसों) अपनायें। बुवाई पूर्व सरसों का भूसा या फलगटी जमीन में मिलाने से रोग में कमी आती है। ट्राईकोडर्मा विरिडी मित्र फफूंद 2.5 किलो प्रति हैक्टेयर गोबर की खाद में मिलाकर बुवाई पूर्व भूमि में देने से रोग में कमी होती है। रोग रोधी जीरा जीसी 4 बोये। झुलसा (ब्लाईट): यह रोग ‘आल्टरनेरिया बर्नसाई’ नामक कवक से होता है। फसल मे फूल आने शुरूहोने के बाद आकाश में बादल छाए रहें तो इस रोग का लगना निश्चित हो जाता है। फूल आने के बाद से लेकर फसल पकने तक यह रोग कमी भी हो सकता है। मौसम अनुकूल होने पर यह रोग बहुत तेजी से फैलता है। लक्षण: रोग के सर्वप्रथम लक्षण पौधे भी पत्तियों पर भूरे रंग के घब्बों के रूप में दिखाई देते है। धीरे-धीरे ये काले रंग में बदल जाते है। पत्तियों से वृत, तने एंव बीज पर इसका प्रकोप बढ़ता है। पौधों ने सिरे झुके हुए नजर आते है। संक्रमण के बाद यदि आद्र्रता लगातार बनी रहे या वर्षा हो जाये तो रोग उग्र हो जाता है। यह रोग इतनी तेजी से फैलता है कि रोग के लक्षण दिखाई देते ही यदि नियंत्रण कार्य न कराया जाये तो फसल को नुकसान से बचाना मुश्किल होता है। रोकथाम: स्वस्थ बीजों को बोने के काम में लीजिए। फसल में अधिक सिंचाई नही करें। फूल आते समय लगभग 30-35 दिन की फसल अवस्था पर मेन्कोजेब 0.2 प्रतिशत या टॉप्सिन एम 0.1 प्रतिशत के घोल का छिड़काव करें आवश्यकतानुसार 10 से 15 दिन बाद दोहरायें। जैविक जीरा में इस रोग के नियंत्रण के लिए फसल पर गैामूत्र (10 प्रतिशत ) व एनएसकेई (2.5 प्रतिशत) व लहसुन अर्क (2.0 प्रतिशत ) घोल का छिड़काव करें। छाछिया (पाउडरी मिल्डयू): यह रोग ‘इरीसाईफी पोलीगोनी’ नामक कवक से होता है। लक्षण: इस रोग के लक्षण सर्वप्रथम पत्तियों पर सफेद चूर्ण के रूप में नजर आते है। धीरे-धीरे पौधे के तने एवं बीज पर रोग फेल जाता है एवं पूरा पौधा दूर से ही सफेद दिखाई पड़ता है। रोग बढऩे पर पौधा गंदला व कमजोर हो जाता है। रोग का प्रकोप जल्दी हो जाता है तो बीज नहीं बनते है। और देर से हो तो बीज बहुत छोटे एवं अधपके रह जाते है। रोकथाम: रोग के लक्षण दिखाई देते ही गंधक चूर्ण 25 किलो प्रति हैक्टेयर की दर से भुरकाव करें या घुलनशील गंधक ढाई किलो प्रति हैक्टेयर या केराथेन एल.सी. एक मि.ली. प्रति लीटर पानी की दर घोल का छिड़काव करें। आवश्यकतानुसार 10 से 15 दिन के अन्तराल पर छिड़काव या भुरकाव दोहरावें। जैिवक जीरा में इस रोग के नियंत्रण के लिए फसल पर गैामूत्र (10 प्रतिशत ) व एनएसकेई (2.5 प्रतिशत ) व लहसुन अर्क (2.0 प्रतिशत ) घोल का छिड़काव करें। जीरे में कीट-व्याधियों के लिए पौध संरक्षण अपनायें: प्रथम छिड़काव: बुवाई के 30-35 दिन बाद फसल पर मेन्कोजेब 0.2 प्रतिशत धोल का छिड़काव करें। द्वितीय छिड़काव: बुवाई के 45 से 50 दिन बाद उपर्युक्त फफूंदनाशी के साथ केराथेन 0.1 प्रतिशत या घुलनशील गंधक 0.2 प्रतिशत व डाइमिथिएट 30 ई.सी. एक मिलीलीटर प्रति लीटर पानी के हिसाब से धोल से छिड़काव करें। तृतीय छिड़काव: दूसरे छिड़काव के 10 से 15 दिन बाद उपयुक्त अनुसार की छिड़काव करें। भुरकाव: यदि आवश्यक हो तो तीसरे छिड़काव के 10-15 दिन बाद 25 किलो गन्धक चूर्ण का प्रति हैक्टेयर की दर से भुरकाव करें। |
- डॉ. तखत सिंह राजपुरोहित
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