संपादकीय (Editorial)

पेसा : लोकतंत्र और शासन को फिर से परिभाषित किया गया

पंचायती राज 30 साल में कितना मजबूत हुआ लोकतंत्र ? – 3

  • सी.आर. बिजॉय
    (अनुवाद: विशाल कुमार जैन )

23 जुलाई 2022, भोपाल । पेसा : लोकतंत्र और शासन को फिर से परिभाषित किया गया – भारत में लोकतंत्र की जड़ों को और मजबूत करने के लिहाज से साल 1992 को मील का पत्थर माना जाता है। तीन दशक पहले इसी साल संविधान में 73वां (पंचायती राज के लिए) और 74वां (नगरपालिका और शहरी स्थानीय निकायों के लिए) संशोधन किया गया था। आजादी के बाद राजनीतिक लोकतंत्र को निचले पायदान तक ले जाने की दिशा में यह पहला ऐतिहासिक कदम था। इन संशोधनों का मकसद संविधान के अनुच्छेद 40 को हकीकत में बदलना था। संविधान का अनुच्छेद 40 नीति निदेशक सिद्धांतों में से एक सिद्धांत को समेटे हुए है और इसमें राज्य को ग्राम पंचायतों के गठन और पावर देने का सुझाव दिया गया है। इसमें कहा गया है कि राज्य न केवल ग्राम पंचायत को संगठित करे बल्कि इतनी शक्ति और अधिकार दे कि वे स्वशासन की एक इकाई के रूप में कार्य कर सकें।

पांचवीं अनुसूची और छठी अनुसूची के तहत अधिसूचित क्षेत्रों में 73वें संशोधन का विस्तार, संसद के मध्यम से ही हो सकता था। केंद्र सरकार ने छठी अनुसूची क्षेत्रों के लिए कोई विधायी प्रक्रिया शुरू नहीं की। पर ग्रामीण विकास मंत्रालय ने 1994 में अनुसूचित क्षेत्रों में 73वें संशोधन के प्रावधानों को लागू करने के लिए भूरिया समिति का गठन किया जिसका काम था कि संभावित कानून की रूपरेखा करे।

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1995 की उनकी रिपोर्ट ने अनुसूचित क्षेत्रों में ग्राम सभा, ग्राम पंचायतों, मध्यवर्ती पंचायतों और स्वायत्त जिला परिषदों के लिए शक्तियों, कार्यों और प्रक्रियाओं को रेखांकित किया। शक्तियों का व्यापक रूप से विकेंद्रीकरण करते हुए, समिति ने कुछ विषयों पर विधायी, न्यायिक और कार्यकारी शक्तियों के साथ छठी अनुसूची के पैटर्न को अपनाया। आदिवासी आंदोलनों के राष्ट्रीय गठबंधन- नेशनल फ्रंट फॉर ट्राइबल सेल्फ रूल के जवाब में संसद ने 1996 में पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) कानून (पेसा) के प्रावधान को कानूनी जामा पहनाया।

पेसा ने ऐतिहासिक रूप से अलग रास्ता अपनाया। पहले इसने ग्राम सभा को छोटी-छोटी बस्तियों या इन बस्तियों के समूह के स्तर पर परिभाषित किया। यह पंचायती राज संस्थाओं के ग्राम पंचायत स्तर पर बेतुके बोझिल ग्राम सभा से अलग था। फिर इसने ग्राम सभा की शक्तियों को इस चेतावनी के साथ परिभाषित किया कि ऊपर बैठी संरचनाएं इसकी शक्तियों का अतिक्रमण नहीं करेंगी। यह तभी संभव है जब ग्राम सभाओं के ऊपर वाले ढांचे अपने क्षेत्र में स्वायत्त हों। अत: जिला स्तर पर उपरोक्त संरचना को छठी अनुसूची के हिसाब से बनाया जाना था।

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ग्राम सभाओं के अधिकार में भूमि से अलगाव को रोकना, अवैध रूप से छीनी गई जमीन को बहाल करना, लघु वनोपज का स्वामित्व, अपने क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र के भीतर आने वाले लघु जल निकायों और लघु खनिजों को नियंत्रित करना, ग्राम हाट का संचालन, संस्थानों और पदाधिकारियों का प्रबंधन, शराब की बिक्री/खपत को सीमित करना इत्यादि शामिल है। साथ ही लोगों की परंपराओं और रीति-रिवाजों, उनकी सांस्कृतिक पहचान, सामुदायिक संसाधनों और विवाद समाधान के पारंपरिक तरीके की रक्षा और संरक्षण करना भी इसमें शामिल है। यह देश का ऐसा पहला कानून बन गया जिसमें निर्वाचित सदस्यों के बजाय आम लोगों को केंद्र में रखकर लोकतंत्र को फिर से परिभाषित किया गया।
किसी भी राज्य का पेसा संशोधन, पेसा के प्रावधानों का पूरी तरह से पालन नहीं करता है।

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मध्य प्रदेश के कुछ अनुसूचित क्षेत्रों के साथ छत्तीसगढ़ 2000 में अस्तित्व में आया और वैसे ही 2014 में तेलंगाना भी। पेसा से जुड़े 10 राज्यों ने एक दशक से भी अधिक समय तक कानून को लागू करने की जहमत नहीं उठाई। छह राज्यों में 2011 से नियम अधिसूचित किए गए। ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और झारखंड जैसे राज्य में इन नियमों को अभी तक अधिसूचित नहीं किया गया है। इसकी वजह यह है कि यहां के अधिकांश आदिवासी लोग जमीन के ऊपर और नीचे समृद्ध प्राकृतिक संसाधनों के साथ रहते हैं। पेसा का अनुपालन करने के लिए अधिकांश राज्य और केंद्रीय विषय के कानूनों में संशोधन नहीं किया गया। स्व-शासन वाली ग्राम सभा, स्वशासन को प्रशासनिक रूप से अव्यावहारिक बना रही पंचायती राज संस्थाओं के ढांचे में फंस गई थी। फिर भी, कानूनी रूप से वैध राजनीतिक अधिकार के रूप में ग्राम स्वशासन ने लोगों को उत्साहित किया। 2017-19 में, आदिवासियों ने घृणा, निराशा और क्रोध में, अपनी स्वायत्तता और स्व-शासन की घोषणा करते हुए, झारखंड में अपने गांवों के अधिकार क्षेत्र के इलाके का सीमांकन करने के लिए पत्थर की सिल्ली खड़ी करके पत्थलगड़ी आंदोलन शुरू किया। यह जल्द ही पास के राज्यों में फैल गया। राज्यों ने सख्त पुलिस कार्रवाई के साथ जवाब दिया और सैकड़ों लोगों पर देशद्रोह के मामलों सहित हजारों लोगों पर मामले दर्ज किए।

पांचवीं अनुसूची के क्षेत्रों में 664 ब्लॉकों में 22,040 पंचायतों के 77,564 गांव शामिल हैं। कुल 45 जिले पूरी तरह से और 63 जिले आंशिक रूप से शामिल किए गए है। कुल जनसंख्या के 5.7 प्रतिशत के साथ 11.3 प्रतिशत क्षेत्रफल को कवर करते हुए देश की अनुसूचित जनजाति की 35.2 प्रतिशत आबादी यहां रहती है।

वन अधिकार कानून : जंगलों में लोकतंत्र की शुरुआत

पर्यावरण मंत्रालय ने 2002 के मध्य में एक बेवकूफी भरा आदेश जारी किया। इसके तहत ‘सभी अतिक्रमण जो नियमितीकरण के योग्य नहीं हैं’ को बेदखल करने के आदेश दे दिया गया। इस तरह देश भर में लोगों को जबरन बेदखल किया जाने लगा। मात्र मई 2002 और मार्च 2004 के बीच 1,524 वर्ग किलोमीटर जंगलों से लोगों को बेदखल किया गया। इस अवैध आदेश का विरोध और जंगलों में लोकतंत्र के लिए संघर्ष के नाम पर कैंपेन फॉर सर्वाइवल एंड डिग्निटी अस्तित्व में आया। यह कई वनवासी संगठनों का एक राष्ट्रव्यापी गठबंधन था। पेसा के ढांचे से एक ऐसे कानून का रास्ता खुला जो अब तक आधिकारिक रूप से स्वीकृत ‘ऐतिहासिक अन्याय’ को समाप्त कर सके। इस तरह अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी के लिए वन अधिकार कानून, 2006 अस्तित्व में आया।

औपनिवेशिक प्रशासन को मजबूत करने के सामान्य तरीकों से हटकर, इन कानून ने गांव स्तर की ग्राम सभाओं को पेसा की तरह अधिकार दिया, ताकि वे व्यक्तिगत और सामुदायिक अधिकारों का निर्धारण और मंजूरी दे सकें, जिनका वे कई पीढिय़ों से आनंद ले रहे हैं। इसने ‘गांव के दायरे में पडऩे वाले पारंपरिक महत्व की वन भूमि या इस्तेमाल’ के सीमांकन के लिए अधिकार प्रदान किया, जिसे ग्राम सभाओं को संरक्षित, बचाव, विनियमित और प्रबंधित करना है। किसी भी उद्देश्य के लिए वन को दूसरे काम में लगाने के लिए ग्राम सभा की सहमति अनिवार्य हो गई है।

पर्यावरण और वन मंत्रालय ने 2009 में माना कि लगभग 4,00,000 वर्ग किलोमीटर सामुदायिक वन संसाधनों को ‘ग्राम स्तरीय लोकतांत्रिक संस्थानों’ को सौंपा जाना है। दिसंबर 2021 तक, 64,361.67 वर्ग किलोमीटर वनों को वनाधिकार कानून के तहत मान्यता दी गई और उन्हें वनाधिकार कानून में शामिल किया गया है। यह दुनिया के समकालीन इतिहास में वनों से जुड़े अधिकारों को शायद सबसे बड़ी मान्यता है।

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स्वतंत्रता के बाद से राज्य जो हासिल नहीं कर सके, वो ग्राम सभाओं ने अधिकारों को निर्धारित करने के लिए वैधानिक प्राधिकरण बनने के बाद हासिल कर लिया। वनवासियों द्वारा जंगल पर लोकतांत्रिक शासन की शुरुआत करने के लिए वनाधिकार कानून स्पष्ट रूप में पेसा से आगे निकल गया। यह पर्याप्त सबूत है कि लोगों का लोकतंत्र बेहतर क्यों काम करता है।

उपसंहार

मार्च 2010 में, पंचायती राज मंत्रालय ने संविधान में संशोधनों के तीन सेटों का प्रस्ताव किया जिसमें छठी अनुसूची और पांचवीं अनुसूची के तत्वों को मिलाकर पंचायती राज लागू करना है। इसने सभी ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों (महानगरीय क्षेत्रों को छोडक़र) के प्रतिनिधित्व के साथ पंचायतों और नगर पालिकाओं के तहत सभी विषयों पर शक्तियों के साथ जिला पंचायत की जगह एक एकीकृत निर्वाचित जिला परिषद का प्रस्ताव रखा। जिला परिषद, पंचायतों और नगर पालिकाओं द्वारा तैयार की गई योजनाओं को समेकित करने और सभी स्थानीय कार्यों के मद्देनजर पूरे जिले की योजना बनाने के लिए जिम्मेदार होगी। जिला योजना समिति, जिसमें अधिकारी और विशेषज्ञ शामिल हैं, इस परिषद की सहायता करेगी। जिला कलेक्टर को निर्वाचित जिला परिषद के प्रति जवाबदेह मुख्य कार्यकारी अधिकारी होना है। पेसा के तहत ग्राम सभा की शक्तियों को संविधान की एक नई अनुसूची के रूप में सम्मिलित करने का प्रस्ताव किया गया था। पेसा प्रावधानों को छठी अनुसूची क्षेत्रों के पारंपरिक ग्राम निकायों की शक्तियों में जोड़ा जाना था। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से, यह अभी तक लोगों का ध्यान अपनी ओर नहीं खींच पाया है।

लेखक संसाधन संघर्षों और शासन से जुड़े मुद्दों की तहकीकात करते हैं। एक स्वतंत्र शोधकर्ता के तौर पर, वह वन अधिकार, ग्राम स्व-शासन और स्वायत्तता जैसे मसलों पर काम करते हैं।

(मोंगाबे से साभार)

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