Editorial (संपादकीय)

खेती की आधुनिक तकनीक जल प्रबंधन

Share

जल प्रबंधन क्या है?

जल संसाधन पानी के वह स्रोत हैं जो मानव के लिए उपयोगी हों या जिनके उपयोग की संभावना हो। पानी के उपयोगों में शामिल हैं कृषि, औद्योगिक, घरेलू, मनोरंजन हेतु और पर्यावरणीय गतिविधियों में वस्तुत: इन सभी मानवीय उपयोगों में से ज्यादातर में ताजे जल की आवश्यकता होती है।

धरातलीय जल या सतही जल पृथ्वी की सतह पर पाया जाने वाला पानी है जो गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव में ढाल का अनुसरण करते हुए सरिताओं या नदियों में प्रवाहित हो रहा है अथवा पोखरों, तालाबों और झीलों या मीठे पानी की आर्द्रभूमियों में स्थित है। किसी जलसम्भर में सतह के जल की प्राकृतिक रूप से वर्षण और हिमनदों के पिघलने से पूर्ति होती है और वह प्राकृतिक रूप से ही महासागरों में निर्वाह, सतह से वाष्पीकरण और पृथ्वी के नीचे की ओर रिसाव के द्वारा खो जाता है।

हालांकि किसी भी क्षेत्रीय जल तंत्र में पानी का प्राकृतिक स्रोत वर्षण ही है और इसकी मात्रा उस बेसिन की भौगोलिक अवस्थिति और आकार पर निर्भर है। इसके अलावा एक जल तंत्र में पानी की कुल मात्रा किसी भी समय अन्य कई कारकों पर निर्भर होती है। इन कारकों में शामिल हैं झीलों, आर्द्रभूमियों और कृत्रिम जलाशयों में भंडारण क्षमता, इन भण्डारों के नीचे स्थित मिट्टी की पारगम्यता, बेसिन के भीतर धरातलीय अपवाह के अभिलक्षण, वर्षण की अवधि, तीव्रता और कुल मात्रा और स्थानीय वाष्पीकरण का स्तर इत्यादि। यह सभी कारक किसी जलतंत्र में जल के आवागमन और उसके बजट को प्रभावित करते हैं।

मानव गतिविधियां इन कारकों पर एक बड़े पैमाने पर प्रभाव डाल सकती हैं। मनुष्य अक्सर जलाशयों का निर्माण द्वारा बेसिन की भंडारण क्षमता में वृद्धि और आद्रभूमि के जल को बहा कर बेसिन की इस क्षमता को घटा देते हैं। मनुष्य अक्सर अपवाह की मात्रा और उसकी तेजी को फर्शबंदी और जलमार्ग निर्धारण से बढ़ा देते हैं।

किसी भी समय पानी की कुल उपलब्ध मात्रा पर ध्यान देना भी जरूरी है। मनुष्य द्वारा किये जा रहे जल उपयोगों में से बहुत सारे वर्ष में एक निश्चित और अल्प अवधि के लिये ही होते हैं। उदाहरण के लिए अनेक खेतों को वसंत और ग्रीष्मऋतु में पानी की बड़ी मात्रा की आवश्यकता होती है और सर्दियों में बिल्कुल नहीं। ऐसे खेत को पानी उपलब्ध करने के लिए, सतह जल के एक विशाल भण्डारण क्षमता की आवश्यकता होगी जो साल भर पानी इकट्ठा करे और उस छोटे समय पर उसे प्रवाह कर सके जब उसकी आवश्यकता हो। वहीं दूसरी ओर कुछ अन्य उपयोगों को पानी की सतत आवश्यकता होती है, जैसे की विद्युत संयंत्र जिस को ठंडा करने के लिए लगातार पानी चाहिये। ऐसे बिजली संयंत्र को पानी देने के लिए सतह पर प्रवाहित जल की केवल उतनी ही मात्रा को भंडारित करने की आवश्यकता होगी कि वह नदी में पानी के कम होने की स्थिति में भी बिजली संयंत्र को शीतलन के लिये पानी उपलब्ध करा सके।

दीर्घकाल में किसी बेसिन के अन्दर वर्षण द्वारा पानी की कितनी मात्रा की पूर्ती की जाती है यही उस बेसिन की मानव उपयोगों हेतु जल उपलब्धता की ऊपरी सीमा होती है।

प्राकृतिक धरातलीय जल की मात्रा को किसी दूसरे बेसिन क्षेत्र से नहर या पाइप लाइन के माध्यम से आयात द्वारा संवर्धित किया जा सकता है। मनुष्य प्रदूषण द्वारा जल को खो सकता है (यानी उसे बेकार बना सकता है)।

मीठे जल के भण्डारों के मामले में ब्राजील दुनिया सबसे अधिक जल भण्डार रखने वाला देश है जिसके बाद दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं रूस और कनाडा।

सिंचाई प्रणाली 

टपक सिंचाई प्रणाली:

टपक प्रणाली सिंचाई की उन्नत विधि है, जिसके प्रयोग से सिंचाई जल की पर्याप्त बचत की जा सकती है। यह विधि मृदा के प्रकार, खेत के ढाल, जल के स्त्रोत और किसान की दक्षता के अनुसार अधिकतर फसलों के लिए अपनाई जा सकती हैं। ड्रिप विधि की सिंचाई दक्षता लगभग 80-90 प्रतिशत होती है। फसलों की पैदावार बढऩे के साथ-साथ इस विधि से उपज की उच्च गुणवत्ता, रसायन एवं उर्वरकों का दक्ष उपयोग, जल के विक्षालन एवं अप्रवाह में कमी, खरपतवारों में कमी और जल की बचत सुनिश्चित की जा सकती है।

बौछारी सिंचाई प्रणाली:

फव्वारा द्वारा सिंचाई एक ऐसी पद्धति है जिसके द्वारा पानी का हवा में छिड़काव किया जाता है और यह पानी भूमि की सतह पर कृत्रिम वर्षा के रूप में गिरता है। पानी का छिड़काव दबाव द्वारा छोटी नोजल या ओरीफिस में प्राप्त किया जाता है। पानी का दबाव पम्प द्वारा भी प्राप्त किया जाता है। कृत्रिम वर्षा चूंकि धीमे-धीमे की जाती है, इसलिए न तो कहीं पर पानी का जमाव होता है और न ही मिट्टी दबती है। इससे जमीन और हवा का सबसे सही अनुपात बना रहता है और बीजों में अंकुर भी जल्दी फूटते हैं।

यह एक बहुत ही प्रचलित विधि है जिसके द्वारा पानी की लगभग 30-50 प्रतिशत तक बचत की जा सकती है। देश में लगभग सात लाख हेक्टर भूमि में इसका प्रयोग हो रहा है। यह विधि बलुई मिट्टी, ऊंची-नीची जमीन तथा जहां पर पानी कम उपलब्ध है वहां पर प्रयोग की जाती है। इस विधि के द्वारा गेहूं, कपास, मूंगफली, तम्बाकू तथा अन्य फसलों में सिंचाई की जा सकती है। इस विधि के द्वारा सिंचाई करने पर पौधों की देखरेख पर खर्च कम लगता है तथा रोग भी कम लगते हैं।

जल प्रबंधन के उपाय

जल प्रबंधन का सबसे प्रथम उपाय यह है कि वर्षाजल का उचित प्रबंधन किया जाये। वर्षाजल को जलाशयों में संरक्षित किया जल प्रबंधन का सबसे प्रथम उपाय यह है कि वर्षाजल का उचित प्रबंधन किया जाये। वर्षाजल को जलाशयों में संरक्षित किया जाये। पूरे देश में बांध बनवाए जाएं और सूखाग्रस्त क्षेत्र में बांधों की संख्या ज्यादा हो। वर्षाजल की भूमि पर बहने वाली एक-एक बूंद का संग्रहण नदी में, नालों के पानी रोकने हेतु चेकडैम बनाकर किया जा सकता है। इसी प्रकार भूजल का पुनर्भरण घर, खेत, गांव एवं कस्बे के वर्षाजल को भूगर्भ तक पहुंचाने हेतु टांके, ट्रेंच एवं सोकपिट बनाकर किया जा सकता है। वर्षाजल को मकानों की छतों पर गिरने वाले टांकों, नलकूपों, कुआं, बावडिय़ों आदि स्थानों पर भेजा जा सकता है। जल प्रबंधन के लिये सरकारी प्रयास भी जरूरी है। अरबों-खरबों रुपए की लागत पर बड़े-बड़े बांध बांधकर नहरों का निर्माण करना पर्याप्त नहीं है। परम्परागत जलस्रोतों को इनके साथ-साथ कायम रखना भी अपरिहार्य है। गांवों के ताल पोखरों के पुनर्निर्माण कार्य को तरजीह देना मुनासिब होगा। अब तो जरूरत इस बात की भी है कि राज्यों को भूजल संरक्षण के लिये कानून बनाने के लिये प्रेरित किया जाना चाहिए। कृषि विशेषज्ञों, जल संसाधन विशेषज्ञों तथा ग्राम्य विकास अधिकारियों को समन्वित ढंग से इस परियोजना की पूर्ण सफलता के लिये काम करना होगा। इसके अलावा निम्न उपाय किये जाने चाहिए-

  • घर में वाटर हार्वेस्ंिटग करें।
  • घर में पानी उपयोग में सतर्कता बरतें।
  • भूजल के अनियमित दोहन को रोकने हेतु कदम उठाएं।
  • वनों की अंधाधुंध कटाई को हर हालत में रोका जाना चाहिए, जिससे भूजल के स्तर को तेजी से घटने से रोका जा सके।
  • भूजल के विकल्पों की खोज किया जाना आवश्यक हो गया है। इसके लिये तालाबों, झीलों, नदियों में उपलब्ध जल को प्रदूषित होने से बचाकर उसको अधिकतम उपयोगी बनायें।

इन सारे विश्लेषणों का सार है कि जल-प्रबंधन हेतु निरंतर सरकारी एवं गैर-सरकारी प्रयास जरूरी हैं। यह वैश्विक संकट है अत: इसे पूरे विश्व के सन्दर्भ में व्यापक समस्या मानते हुए हर देश की सरकारों को मिल-जुलकर एक ठोस नीति बनाना ही होगा, तभी पूरी मानवता का भविष्य सुरक्षित होगा। हमें पूरे प्रयास करने होंगे कि वर्षाजल जो बड़ी मात्रा में बाढ़ या अन्य कारणों से उपयोग में नहीं आ पाता है उसका सदुपयोग और संरक्षण सोचा जाये। जिससे एक तरफ जल से विस्थापन की स्थितियों में परिवर्तन आएगा एवं पेय तथा सिंचन जल की मात्रा में वृद्धि होगी, कृषि एवं अन्न उत्पादन तथा खपत में हमारी आत्मनिर्भरता बढ़ सकेगी। पेयजल की तलाश में लम्बी दूरी तय करने एवं कष्टमय जीवन को सरस बनाने में मदद मिलेगी। देश में हरियाली एवं वनों के रकबे को विस्तार देने में मदद मिलेगी। इस हरित पट्टी निर्माण से देश का पर्यावरण सन्तुलित होगा, तथा पर्यावरण संतुलन से मानव जीवन भी संतुलन प्राप्त कर सकेगा। इससे सामाजिक जीवन में नैराश्य की मात्रा में कमी आएगी और आने वाली पीढिय़ों के लिये जल संकट का माहौल उत्पन्न होने से बच सकेगा।

  • विनोद कुमार
  • राजवीर

महात्मा ज्योति राव फूले कृषि एवं अनुसंधान महाविद्यालय, जयपुर (राज.)
स्वामी केशवानन्द राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय बीकानेर, (राज.)
vinodjakhar978@gmail.com

Share
Advertisements

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *