Editorial (संपादकीय)

बदलते जलवायु परिदृश्य में मृदा जैविक कार्बन का अनुरक्षण

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आधुनिक युग में औद्योगिकीकरण, शहरीकरण, अत्यधिक पेट्रोलियम ईंधन की खपत, वनों का विनष्टीकरण और दोषपूर्ण कृषि क्रियाओं के कारण वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा बढ़ती जा रही है जो कि वैश्विक तापमान वृद्धि एवं जलवायु परिवर्तन का कारण बन रही है। अभी वातावरण में कार्बन की सांद्रता 375 भाग प्रति मिलियन है और इसी दर पर कार्बन की सांद्रता बढ़कर इसी सदी के अंत तक 800-1000 भाग प्रति मिलियन हो जायेगी जो कि भू भाग पर उपस्थित समस्त प्राणियों के लिये घातक सिद्ध हो जायेगी। अत: वातावरण में उपस्थित कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा कम करनी होगी। इसके लिये खेती की कर्षण क्रियाओं में परिवर्तन, कृषिवानिकी को बढ़ावा एवं मृदा पारम्परिक खादों का उपयोग को बढ़ावा देना होगा। तभी हम विश्व को तापमान वृद्धि एवं जलवायु परिवर्तन के कुप्रभाव से बचा सकते है। कृषि भूमि व चारागाहों के आवासीय क्षेत्रों में परिवर्तित हो जाने के कारण कार्बन के प्राकृतिक विलयन तंत्र घट गए है। गैर – टिकाऊ प्रक्रियाएं जैसे अत्यधिक जुताई जैविक पदार्थों से कार्बन को मुक्त कर वातावरण में पहुंचा देती है। जैविक कार्बन के इस क्षरण के कारण भूमि में कार्बन की कमी हो जाती है, जिसे वातावरण से पुन: बंधित करके भूमि में लाया जाता है। पादप संश्लेषण द्वारा मुक्त कार्बन डाइऑक्साइड को कार्बन के जैविक रूप जैसे शर्करा, स्टार्च एवं सेल्युलोज आदि कार्बोहाइड्रेट में परिवर्तित किया जाता है। प्राकृतिक कार्बन आवासों में पौधों की जड़ों एवं पादप अवशेषों के विघटन द्वारा मृदा में कार्बन संचित किया जाता है।

मृदा जैविक कार्बन-
मृदा में उपस्थित कार्बनिक पदार्थों में वांछित कार्बन को मृदा जैविक कार्बन कहते हैं। मृदा में मिलाये गये अथवा उपस्थित वानस्पतिक व जन्तु अवशेष, सूक्ष्मजीव, कीड़े, मकोड़े, अन्य जन्तुओं के मृत शरीर, मृदा में मिलाये जाने वाले खाद (जैसे गोबर की खाद, वर्मी कम्पोस्ट, हरी खाद, राख पशुओं की बिछावन आदि मृदा कार्बनिक पदार्थ कहलाते हैं। यह मृदा कार्बनिक पदार्थ विच्छेदन व संश्लेषण प्रतिक्रियाओं द्वारा ह्यूमस बनता है। मृदा जैविक कार्बन मृदा स्वास्थ्य में सुधार एवं बदलते जलवायु परिदृश्य में मृदा की उर्वरता बनाये रखता है। ताजे एवं बिना विच्छेदन के पौध अवशेष जैसे भूसा, बिछावन, ताजा गोबर एवं अन्य पदार्थ जो भूमि की सतह पर पड़े रहते है वे भी मृदा कार्बनिक पदार्थ की श्रेणी में नहीं आते हैं।

जैविक कार्बन का महत्व-
कार्बन पदार्थ कृषि के लिए बहुत लाभकारी है क्योंकि इससे भूमि का पी.एच. मान सामान्य रहता है। भूमि में इसकी अधिकता से मिट्टी की भौतिक और रासायनिक गुणवत्ता बढ़ती है। भूमि की भौतिक गुणवत्ता जैसे मृदा संरचना, जल ग्रहण शक्ति आदि जैविक कार्बन से बढ़ते है। इसके अतिरिक्त पोषक तत्वों की उपलब्धता स्थानांतरण एवं रूपांतरण और सूक्ष्मजीवी पदार्थों व जीवों की वृद्धि के लिए भी जैविक कार्बन बहुत उपयोगी होता है।
कार्बन पृथक्करण- वातावरण में उपस्थित कार्बन डाइ-ऑक्साइड को वनस्पतियों एवं अन्य ठोस जैविक पदार्थों द्वारा मृदा में वंधित करने जिससे वह शीघ्र मुक्त न हो सकें इस प्रक्रिया को कार्बन अनुरक्षण कहते हैं। अत: कार्बन पृथक्करण वह प्रक्रिया है, जिसमें वातावरण की मुक्त कार्बन डाईऑक्साइड को पौधों द्वारा जैविक कार्बन के रूप में भूमि में बंधित किया है। जैविक कार्बन कृषि समुदाय के लिए एक महत्वपूर्ण विषय है क्योंकि सघन खेती के कारण मृदा में उपस्थित जैविक कार्बन कम हो जाने से भूमि की उत्पादकता कम हो जाती है। टिकाऊ खेती के लक्ष्य को प्राप्त करने में भूमि में कम हो रही जैविक कार्बन की मात्रा सबसे बड़ा कारण है। मृदा में जैविक कार्बन का प्रमुख स्त्रोत पौधे होते है, जिनका ऊपरी भाग एवं जड़ें विघटित होकर मृदा में मिल जाती है। पौधों की जड़ों से श्वसन क्रिया द्वारा तथा अन्य भागों से रसायन उत्पन्न करके कार्बन पृथक्करण क्रिया को तीव्र कर देते हंै। कृषि में जैविक कार्बन की मात्रा भूमि प्रबंधन पर निर्भर करती है। इसके अतिरिक्त इसमें मृदा कारक, जलवायु, पौधों की सघनता एवं गुणवत्ता, सूक्ष्मजीवों की संख्या आदि का भी प्रभाव पड़ता है। दुर्भाग्यवश वन व चारागाह के प्रारंभिक कार्बन स्तरों की अपेक्षा वर्तमान कार्बन का स्तर केवल एक तिहाई रह गया है। आधुनिक खेती में कार्बन की इस हानि को कुछ सीमा तक कम किया जा सकता है अधिक जैविक वृद्धि वाली फसलों द्वारा अधिक कार्बन की मात्रा को मृदा में पुन: लौटाकर इसका समाधान संभव है। संरक्षित कृषि जैसे शून्य जुताई, न्यूनतम कृषि कार्य, फसल अवशेष को पुन: भूमि में मिलाकर तथा भूमि को अधिक आवरण प्रदान करने वाली फसलें उगाकर मृदा कार्बन पृथक्करण को बढ़ाया जा सकता है। कार्बन पृथक्करण का अंतिम उत्पाद मृदा जैविक कार्बन होता है।

मृदा जैविक कार्बन की उपयोगिता –
मृदा जैविक कार्बन मृदा के भौतिक, रसायनिक एवं जैविक गुणों को प्रभावित करता है। जैविक कार्बन के प्रभाव निम्नलिखित है।

मृदा की रसायनिक दशा पर प्रभाव –
मृदा कार्बनिक पदार्थ पौधों के आवश्यक पोषक तत्व जैसे नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश अन्य सूक्ष्म तत्व के भण्डार होते है। जिनके अपघटन की क्रिया से आवश्यक पोषक तत्व पौधों को आसानी से उपलब्ध होते है। यह कई प्रकार के हारमोन्स एवं विटामिन प्रदान करते है जो कि पौधे की वृद्धि कारक होते है। यह पोषक तत्वों की लीचिंग होना भी रोकता है।
मृदा कार्बनिक पदार्थ अपघटन से कई प्रकार के कार्बनिक अम्ल प्राप्त होते हैं। इससे मृदा की प्रत्यारोधी क्षमता बढ़ती है जो कि मृदा की क्षारीयता को कम करते है। यह मृदा में उपस्थित ऐसे पदार्थों को उदासीन करते है, जो कि पौधों पर विशैला प्रभाव छोड़ते है। अर्थात् मृदा के पीएच मान को नियंत्रित करते है, हानिकारक जीवनाशकों के विच्छेदन की प्रक्रिया को बढ़ा देते है।

मृदा की भौतिक दशा पर प्रभाव –
मृदा कार्बनिक पदार्थ मिट्टी पर गिरने वाली वर्शा की बूंदों का असर कम हो जाता है जो कि आसानी से मृदा के अन्दर रिस जाता है अत: जल बहाव कम होने के कारण मृदा कटाव कम हो जाता है मृदा कार्बनिक पदार्थ के कण मृदा सतह पर उपस्थित होने के कारण वायु द्वारा मृदा कटाव कम हो जाता है। अत: मृदा का संरक्षण होता है।
वर्षा जल का भूमि नीचे रिसाव के कारण नमी संरक्षित रहती है विघटित मृदा कार्बनिक पदार्थ पानी अवशोषित कर लेता है जिससे भूमि की जलधारणा क्षमता बढ़ती है।
मृदा कार्बनिक पदार्थों के विघटन से चिपकने वाले कार्बनिक पदार्थ उत्सर्जित होते हे जो मृदा कणों को आपस में बांध कर बड़े कण समूहों में बदल कर मृदा को रन्ध्रीय व दानेदार बना देते है जिसे मृदा वायु संचार, नीचे जल रिसाव व गैसों के आदान प्रदान में वृद्धि होती है जो कि पौधे की वृद्धि हेतु आवश्यक हैं।
मृदा कार्बनिक पदार्थ मल्च का कार्य भी करते है जो तापमान नियमन का कार्य करता है। जिससे पौधों की वृद्धि अच्छी होती है। (क्रमश:)

जैविक दशा पर प्रभाव –
मृदा में उपस्थित जीवों एवं सूक्ष्म जीवों के जीवन चक्र का उपयुक्त माध्यम है। मृदा में होने वाली विभिन्न प्रक्रियाओं में सक्रिय भागीदारी करते है। इस प्रक्रिया से पोषक तत्व उपलब्धता, तत्व उद्ग्रहण आदि शामिल है। यह सूक्ष्म जीवों का भोज्य पदार्थ है और शरीर निर्माण करने वाले पदार्थ प्रदाय करता है। मृदा जैविक कार्बन हृास के कारण – मृदा में जैविक कार्बन की मात्रा का निर्धारण वर्शा, तापमान, भूमि का प्रकार, भूमि पर उपस्थित वनस्पति की सघनता एवं उपलब्धता आदि कारकों के कारण होता हे। मिट्टी में फसल उत्पादन के लिये की जाने वाली कर्षण क्रियाओं की मृदा में उपस्थित वनस्पति युक्त भूमि जैविक कार्बन खेती में प्रयुक्त होने वाली मृदा की तुलना में अधिक होता हे। खेती की जाने वाली मृदा की 10 सेमी. सतह पर जैविक कार्बन का हृास अधिक होता है।

मृदा में जैविक कार्बन हृास होने के प्रमुख कारण इस प्रकार है:-
सघन कृषि – जनसंख्या में निरन्तर वृद्धि के कारण खाद्यान्नों की मांग लगातार बढ़ती जा रही है अत: सघन खेती प्रणाली अपनाना आवश्यक हो गया है। अत: खेत में एक वर्ष में दो से तीन फसलें ली जा रही है। इस कारण भूमि से अत्यधिक पोषक तत्वों का हृास हो रहा हे इसलिये भूमि में पोषक तत्वों का असंतुलन की स्थिति आती जा रही है इस कारण जैविक कार्बन का स्तर घट रहा है। खाद्यान्न पूर्ति हेतु अधिक से अधिक भूमि पर खेती करने से वन चारागाह बड़े स्तर पर नष्ट किए जा रहे है, जो कि जैविक कार्बन के प्राकृतिक भण्डार है।

धान-गेहूँ फसल चक्र – उत्तर भारत में 10 मिलियन हैक्टेयर भूमि पर धान-गेहूँ फसल चक्र अपनाया जा रहा है जिससे देश को 31 प्रतिशत खाद्यान्न प्राप्त होता है। इस फसल चक्र से 10-15 टन/हे./वर्ष अनाज उत्पादन किया जाता है परिणामस्वरूप भूमि से भारी मात्रा में पोषक तत्वों का हृास होता है। इसका भूमि में उपस्थित पोषक तत्व पर नकारात्मक प्रभाव देखा जा रहा है। इस पद्धति में कार्बनिक खादों के उपयोग पर भी ध्यान नहीं दिया जा रहा है। इस कारण मृदा में जैविक कार्बन की मात्रा में शीघ्रता से घटोत्तरी हो रही है।

फसल अवशेषों को जलाना – हमारे देश में प्रतिवर्ष 5000 मिलियन फसल अवशेषों का उत्पादन होता है फसल अवशेषों के कुछ भाग का उपयोग पशु चारा, झोपड़ी निर्माण, घरेलू एवं औद्योगिक क्षेत्रों ईधन के रूप में उपयोग किया जाता है। शेष बचे हुए अवशेषों को कृषक खेत में ही जला देते है इसका मुख्य उद्देश्य कटाई के उपरांत खेत की साफ सफाई करना है। खेतों अवशेषों को हटाने हेतु श्रमिकों का उपलब्ध न होना तथा अधिकांश फसलों की कटाई हार्वेस्टर यंत्र से करना आदि कारण भी खेतों में बचे अवशेषों को खेत में जला देते है। खेत में अवशेष जलाने से पर्यावरण प्रदूषित होता है जो कि मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। अवषेशों को जलाने से हरित प्रभाव गैस में विशेष रूप से कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जित होती है। जिससे अत्यधिक तापमान में वृद्धि होती है। साथ ही पौधों के आवश्यक पोषक तत्व भी जलने से हानि होती है। अवशेष जलने से मृदा की सतह की गर्मी बढ़ती है जिस कारण लाभदायक सूक्ष्मजीव का विनष्टीकरण होता है और जो अवशेष जल जाते है वह जैविक कार्बन के उत्तम स्रोत होते है। इस कारण मृदा जैविक कार्बन का स्तर घट जाता है।

जलवायु परिवर्तन – वातावरण में हरित प्रभाव गैसों का सान्द्रण वृद्धि के कारण वैश्विक तापमान में वृद्धि हो रही है। इस कारण वर्षा का वितरण भी अनियमित हो गया है कई क्षेत्रों में कई वर्षों से कम वर्षा प्राप्त हो रही है, मानसून का जल्दी प्रारम्भ होना, देर से आना, वर्षा-काल में कई दिन तक सूखा रहना, एक ही दिन अत्यधिक वर्षा होना, मानसून का शीघ्र अंत होना व असमय वर्षा होना, मौसम में अत्यधिक परिवर्तन होना जैसे पाला पडऩा, फसल वृद्धि के दौरान नमी के कमी कारण सूक्ष्म जीवों की वृद्धि नहीं हो पाती है तथा उनकी क्रियाशीलता भी कम हो जाती है, जिससे कार्बनिक पदार्थों की विघटन की क्रिया मंद पड़ जाती है। जिससे मृदा जैविक कार्बन की उत्पादकता कम हो जाती है नमी की कमी होने के कारण अधिक ऑक्सीकरण होने से भूमि से जैविक कार्बन का हृास होता है और मृदा में जैविक कार्बन कम हो जाती है।

मृदा क्षरण – जल अथवा वायु क्षरण से कार्बनिक पदार्थ भूमि से स्थानांतरित हो जाते है। मृदा में अजैविक कार्बन की मात्रा बढऩे से जैविक कार्बन का विघटन अधिक होता है, जिससे द्वितीयक लवणीकरण या क्षारीयकरण बढ़ता है तथा मृदा में जड़ों का विकास ठीक ढंग से नहीं हो पाता है। इसका परिणाम यह होता है कि मृदा में जैविक कार्बन की मात्रा क्षीण हो जाती है।
अनियमित कर्षण क्रियाएं – अत्यधिक जुताई करने से जैविक पदार्थों का अपघटन शीघ्र होकर जैविक कार्बन का हृास होता है तथा मृदा की संरचना बिगड़ जाती है एक ही प्रकार की फसलें बार-बार उगाने से मृदा की गुणवत्ता में कमी आ जाती है। इसलिए भूमि क्षमता वर्गीकरण के अनुसार ही भूमि का उपयोग किया जाना चाहिए।

असंतुलित उर्वरक उपयोग – कृषि क्षेत्रों में पोषक तत्वों का तेजी से क्षरण तथा असंतुलित जैविक अवशेष कार्बन पुन: चक्रण में मुख्य बाधक है। असंतुलित उर्वरक उपयोग से मृदा उत्पादकता घट जाती है, वानस्पतिक आवरण कम हो जाता है तथा भूमि में जैविक कार्बन का निवेश कम हो जाता है।

जैविक खादों का उपयोग बंद होना – पादप अवशेष, पशु व मानव अपशिष्ट पदार्थों से बनी खादों को जैविक खाद कहते है इसमें गोबर की खाद, कम्पोस्ट खाद, केंचुआ खाद, गोबर गैस स्लरी, मुर्गी की खाद, खलियां, प्रेस मड़, सीवेज, तालाब की मिट्टी, मछली का खाद, हरी खाद, जीवाणु, उर्वरक आदि समाज का आधुनिकीकरण, शहरीकरण, चारागाह नष्ट हो जाना पर्याप्त मात्रा में पशुओं को चारा प्राप्त न होने के कारण पशुपालन कम हो गया है। इस कारण जैविक खादों की उपलब्धता कम है जैविक खाद मृदा कार्बनिक पदार्थों के प्रमुख स्रोत हैं अत: इनके उपयोग घटने से मृदा में जैविक कार्बन का स्तर भी कम हो रहा है।

मृदा में जैविक कार्बन बढ़ाने के उपाय
भूमि, जल तथा कृषि तकनीकों के उचित प्रबंधन, पोषक तत्वों के संतुलित प्रयोग और संरक्षण कृषि विधियों को अपनाकर भूमि में जैविक कार्बन का स्तर बढ़ाया जा सकता है। मृदा में जैविक कार्बन की मात्रा बढ़ाने के महत्वपूर्ण उपायों का संक्षिप्त वर्णन निम्नांकित है:

नमी संरक्षण – अच्छे गुणवत्ता वाले सिंचाई जल का प्रयोग करने से वानस्पतिक आवरण, जैविक निवेष तथा सूक्ष्मजीवों की संख्या बढऩे से मिट्टी में जैविक कार्बन बढ़ता है। इसके कारण मृदा में स्थित जल का समुच्चयन होता है, जो मृदा में जैविक कार्बन को अधिक समय तक बांधे रखता है। षुद्ध वर्शा के जल को टैंकों में अथवा पुनर्भरण द्वारा भूमि में संचित कर पानी की उपलब्धता बढ़ाई जा सकती है। अंत: पंक्ति जल संचयन, ऊंची मेड़ें बनाकर, जुताई करके तथा प्राकृतिक या कृत्रिम आवरण से भूमि को ढ़ंक कर खेत में नमी संरक्षित की जा सकती है। इसके अतिरिक्त वैज्ञानिक सस्य क्रियाएं जैसे सूखा सहनशील प्रजातियां, प्रति इकाई भूमि में उचित पादप संख्या, सही समय पर बुआई, संतुलित उर्वरक तथा असमतल भूमि में ड्रिप अथवा स्प्रिंकलर विधि से सिंचित करके भी भूमि में जैविक कार्बन को संचित किया जा सकता है।

समन्वित पोषक तत्व प्रबंधन – पोषक तत्वों के समेकित प्रबंधन और संतुलित रासायनिक उर्वरकों के साथ, गोबर की खाद, हरी खाद आदि जैव उर्वरक जैसे एजोस्पाइरिलम, राइजोबियम, नील हरित शैवाल, फॉस्फोरस घुलनकारी सूक्ष्मजीव तथा वैस्कुलर आरबस्कुलर माइकोराइजा, फंफूद आदि वानस्पतिक आवरण भूमि में जैव कार्बन बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान करते है। इससे अधिक वानस्पतिक निवेश होता है तथा मृदा में जैविक कार्बन का घनत्व बढ़ता है।

संरक्षण कृषि – अधिक जुताई क्रियाओं से मृदा की संरचना बिगड़ जाती है तथा जैविक पदार्थों का पुन: विभाजन होता है। अंतत: संरक्षण कृषि अपनाकर मृदा व जल क्षरण को रोका जा सकता है। सिद्धांत रूप में यह कहा जा सकता है कि कुल फसल अवशेष का 30 प्रतिशत भाग भूमि को पुन: लौटा देना चाहिए। धान-गेहूँ फसल चक्र में कम्बाइन से कटाई के बाद फसलों के अवशेष यथावत रखते हुए शून्य जुताई मशीन की सहायता से गेहूँ की बुआई करने पर भूमि में जैविक पदार्थ का काफी अच्छा निवेश होता है और जैविक कार्बन की मात्रा बढ़ती है। क्योंकि भूमि से कार्बन का हृास कम होता है और डीजल के कारण कार्बन डाई ऑक्साइड संरक्षण कृषि द्वारा जैविक पदार्थ तथा पोषक तत्वों की उपलब्धता को बढ़ाकर और भौतिक स्थिति को सुधारकर जल धारण क्षमता को बढ़ाया जा सकता है। संरक्षण कृषि में निम्न क्रियाएं शामिल की जाती है। मिट्टी पलटने वाले हल का प्रयोग न करके चीरा लगाने वाले हल से जुताई करने पर मृदा की सतहें नहीं पलटती तथा उथली जुताई से मिट्टी अधिक उलट-पलट नहीं होती, जिससे मृदा में जैविक कार्बन का क्षरण कम होता है। जुताई की गहराई को 15 से.मी. से अधिक नहीं रखना चाहिए ताकि मृदा में जैविक कार्बन हृास कम से कम हो। न्यूनतम जुताइयां करने से भूमि के साथ अधिक छेड़छाड़ नहीं होती और वानस्पतिक आवरण हमेशा बना रहता है, जिससे जैव कार्बन बढ़ता है। खेत को लेजर लेक्ला करना चाहिए, फसल अवशेष को जलाना नहीं चाहिए बल्कि खेत में ही जोत कर मिला देना चाहिए।
सूखा, लवणता तथा तापमान सहनशील किस्मों का विकास – देशी बबूल या कीकर जैसी अनेक प्रजातियां उपलब्ध है जिनका जड़ तंत्र गहरा होता है, जिससे गहरे जल को भी अवशोषित कर कम उपलब्ध जल क्षेत्रों में भी यह वृक्ष जीवित रहते है। कम अवधि वाली मूंग की फसल भी सूखे का सामना करने से पहले ही अपना जीवन चक्र पूरा कर लेती है। आनुवांशिक अभियांत्रिकी द्वारा इन पौधों से जीन लेकर नई प्रजातियां विकसित की जा सकती है। सूखा, लवणता तथा तापमान को सहन करने की क्षमता वाली प्रजातियां मृदा में जैविक कार्बन की मात्रा बढ़ाती हैं।

कृषिवानिकी पद्धति को बढ़ावा – यह एक समेकित व टिकाऊ फसल एवं वृक्ष उत्पादन पद्धति है जिसमें खेती, वानिकी, फल-फूल का उत्पादन तथा पशुपालन सम्मिलित है। कृषि की अनिश्चितता को कम करने, घटती भूमि उपलब्धता तथा प्रति व्यक्ति खाद्य पदार्थ, चारा तथा ईंधन की मांग को पूरा करने के लिए कृषिवानिकी एक उत्तम विकल्प है। सूर्य का प्रकाश, नमी व पोषक तत्वों की उपयोग क्षमता को बढ़ाने हेतु वानिकी को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इस प्रकार की उत्पादन पद्धति में भूमि में अधिक समय तक वानस्पतिक आवरण रहने के कारण जैविक कार्बन में लगातार वृद्धि होती है। अत: मृदा परीक्षण करके उचित खाद एवं उर्वरक प्रबंधन द्वारा ग्रीन हाउस गैसों से भी बचाव किया जा सकता है। सिंचित भूमि पर फसल अवशेष अधिक होने के कारण ऐसी भूमि अधिक कार्बन डाईऑक्साइड को बंधित करती है। इसी प्रकार खरपतवारनाशी एवं कीटनाशी रसायनों की सीमित मात्रा का प्रयोग करने से भूमि में उपलब्ध सूक्ष्म जीवों की क्रियाशीलता पर विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता और भूमि में जैविक पदार्थ की मात्रा बढ़ती है।

दलहन फसलों का समावेश – फसल की विभिन्न प्रणालियों में वर्ष में एक बार दलहन फसल का समावेश अवश्य ही करना चाहिए। यदि अंतर्वती खेती में भी दलहन फसल का समावेश दलहन फसलों के जड़ों में ग्रन्थियां होती है। उनमें बैक्टीरिया निवास करते है जो कि मृदा में कार्बनिक पदार्थ भाग बनते है तथा दलहन में पत्तियां खेत में गिर जाती है। जो कि कार्बनिक पदार्थ में वृद्धि करती हैं।

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