धनिया उगायें, लाभ कमायें
मिट्टी एवं जलवायु
धनिया के लिए दोमट, मटियार या कछारी भूमि जिसमें पर्याप्त मात्रा में जीवांश और अच्छी जल धारण की क्षमता हो, उपयुक्त होती है। भूमि में जल निकास की अच्छी व्यवस्था होनी चाहिए। मिट्टी का पी.एच. 6.5 से 7.5 होना चाहिए। सिंचित क्षेत्र में अगर जुताई के समय भूमि में पर्याप्त जल न हो तो भूमि की तैयारी पलेवा देकर करें। जिससे जमीन में जुताई के समय ढेले भी नही बनेंगे तथा खरपतवार के बीज अंकुरित होने के बाद जुताई के समय नष्ट हो जाएंगे। बारानी फसल के लिये खरीफ फसल की कटाई के बाद दो बार आड़ी-खड़ी जुताई करके तुरन्त पाटा लगा दें।
शुष्क व ठंडा मौसम अच्छा उत्पादन प्राप्त करने के लिये अनुकूल होता है। बीजों के अंकुरण के लिय 25 से 26 से.ग्रे. तापमान अच्छा होता है। धनिया शीतोष्ण जलवायु की फसल होने के कारण फूल एवं दाना बनने की अवस्था पर पाला रहित मौसम की आवश्यकता होती है। धनिया को पाले से बहुत नुकसान होता है। धनिया बीज की उच्च गुणवत्ता एवं अधिक वाष्पशील तेल के लिये ठंडी जलवायु, अधिक समय के लिये तेज धूप की आवश्यकता होती है।
उन्नत किस्में
पंत धनिया -1, मोरोक्कन, सिम्पो एस 33, गुजरात धनिया -1, गुजरात धनिया -2, ग्वालियर न.-5365, जवाहर धनिया -1, सी. एस.-6, आर.सी.आर.-4, यु. डी.-20,436, पंत हरीतिमा, सिंधु आदि।
प्राचीन काल से ही विश्व में भारत देश को ‘मसालों की भूमि’ के नाम से जाना जाता है। धनिया के बीज एवं पत्तियां भोजन को सुगंधित एवं स्वादिष्ट बनाने के काम आते हैं। धनिया बीज में बहुत अधिक औषधीय गुण होने के कारण कुलिनरी के रूप में उपयोग में आते हैं। धनिया अम्बेली फेरी या गाजर कुल की एक वर्षीय मसाला फसल है। इसका हरा धनिया चाइनीज पर्सले कहलाता है। धनिया मसाले की महत्वपूर्ण फसल है। लगभग 3 लाख टन के औसत वार्षिक उत्पादन के साथ भारत विश्व में धनिया का सबसे बड़ा उत्पादक, उपभोक्ता और निर्यातक है। इसके उत्पादन में वर्ष दर वर्ष व्यापक उतार-चढ़ाव होता रहता है। |
भूमि की तैयारी
अच्छी फसल प्राप्त करने के लिए अच्छे तरीके से बुवाई पूर्व पलेवा लगाकर भूमि की तैयारी करें। जुताई से पहले 5-10 टन प्रति हेक्टेयर पक्की हुई गोबर की खाद मिलाएं। धनिया की सिंचित फसल के लिए 531 मीटर की क्यारियां बना लें। जिससे पानी देने में एवं निराई-गुड़ाई आदि कार्य करने में आसानी हो।
बोने का समय
धनिया की फसल रबी मौसम में बोई जाती है। सामान्यत: धनिया की फसल के लिए 15 अक्टूबर से 15 नवंबर तक बुवाई का उचित समय रहता है। बुवाई के समय अधिक तापमान रहने पर अंकुरण कम हो सकता है। अधिक उपज पाने के लिए 1 अक्टूबर से 15 अक्टूबर तक बीज बोना चाहिए। दानों के लिये धनिया की बुआई का उपयुक्त समय नवम्बर का प्रथम पखवाड़ा हैं। हरे पत्तियों की फसल के लिये अक्टूबर से दिसम्बर का समय बिजाई के लिये उपयुक्त हैं। बुवाई का निर्णय तापमान देख कर लें। क्षेत्रों में पाला अधिक पड़ता है वहां धनिया की बुवाई ऐसे समय में न करें, जिस समय फसल को अधिक नुकसान हो। पाले से बचाव के लिये धनिया को नवम्बर के द्वितीय सप्ताह मे बोना उपयुक्त होता है।
बीज की मात्रा
अच्छे उत्पादन के लिए बीज दर: सिंचित अवस्था में 15-20 कि.ग्रा. प्रति हे. बीज तथा असिंचित में 25-30 कि.ग्रा. प्रति हे. बीज की आवश्यकता होती है।
बीज उपचार
बीज उपचार के लिए 2 ग्राम कार्बेंडाजिम पर किग्रा बीज की दर से उपचारित करें। बुवाई से पूर्व दाने को दो भागों में फोड़ दें। ऐसा करते समय ध्यान दें अंकुरण भाग नष्ट न होने पाए तथा अच्छे अंकुरण के लिए बीज को 12 से 24 घंटे पानी में भिगो कर हल्का सूखने पर बीज उपचार करके बोएं।
बुवाई की विधि
25 से 30 से.मी. कतार से कतार को दूरी और 5 से 10 से.मी. पौधों से पौधे की दुरी रखें। असिंचित फसल से बीजों को 6 से 7 से.मी. गहरा बोएं तथा सिंचित फसल में बीजों को 1.5 से 2 से.मी. गहराई पर बोएं क्योंकि ज्यादा गहरा बोने से सिंचाई करने पर बीज पर मोटी परत जम जाती हैं। जिससे बीजों का अंकुरण ठीक से नहीं हो पाता हैं।
खाद एवं उर्वरक
अच्छी फसल के लिए खाद एवं उर्वरकों की सही संतुलित मात्रा अच्छी उपज प्रदान करती है। जहां तक संभव हो मृदा परीक्षण के आधार पर उर्वरकों की मात्रा को सुनिश्चित करना उचित रहता हैं। वैसे फसल के लिए अच्छी पकी गोबर की खाद 15-20 टन प्रति हेक्टेयर बुवाई पूर्व खेत में भली प्रकार मिलायें।
सिंचित क्षेत्रों के लिए 60 कि.ग्रा. नत्रजन, 40 कि.ग्रा. स्फुर, 20 कि.ग्रा. पोटाश तथा 20 कि.ग्रा. सल्फर प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करें। इसमें नत्रजन की की 1/3 मात्रा तथा फास्फोरस एवं पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा खेत की अंतिम तैयारी के समय बुवाई पूर्व दें तथा शेष 2/3 नत्रजन को दो बराबर भाग में बाटकर प्रथम सिंचाई के समय एवं शेष द्वितीय मात्रा फूल आते समय खड़ी फसल में यूरिया द्वारा देना लाभप्रद हैं। असिंचित धनिया की अच्छी पैदावार लेने के लिए गोबर खाद 20 टन प्रति हे. के साथ 40 कि.ग्रा. नत्रजन, 30 कि.ग्रा. स्फुर, 20 कि.ग्रा. पोटाश तथा 20 किग्रा सल्फर प्रति हे. की दर से भूमि में दें।
निराई-गुड़ाई एवं खरपतवार नियंत्रण
धनिये में प्रारंम्भिक बढ़वार बहुधा धीमी गति से होती हैं इसलिए नराई-गुड़ाई करके खरपतवारों को निकलना चाहिए वर्ण फसल की बढ़वार रुक जाती हैं। सामान्यत: धनिये में दो निराई-गुड़ाई पर्याप्त होती है। प्रथम निराई-गुड़ाई के 30-35 दिन पर अवश्य कर दें। साथ ही इसी दौरान पौधे से पौधे की दुरी विरलीकरण द्वारा 5-10 से.मी. कर दें।
दूसरी निराई-गुड़ाई 60 दिन बाद करें। इससे पौधों में बढ़वार अच्छी होने के साथ-साथ बचे हुए खरपतवार भी नष्ट हो जाते हैं एवं उपज पर अच्छा प्रभाव पड़ता हैं। खरपतवार नियंत्रण के लिए पेन्डीमिथालीन 1 ली. प्रति हे. 600 लीटर पानी में मिलाकर अंकुरण पूर्व छिड़काव करें पर ध्यान रखें की छिड़काव के समय भूमि में पर्याप्त नमी हो तथा छिड़काव शाम के समय करें तो उचित रहता है।
सिंचाई
फसल की आवश्यकतानुसार सिंचाई करें। सिंचित क्षेत्र के लिए सामान्यत: पलेवा के अतिरिक्त सिंचाई की आवश्यकता होती हैं। सिंचाई धनिये की क्रांतिक अवस्था जैसे बीज अंकुरण के समय 30-35 दिन, शाखाएं निकलते समय 60-70दिन, फूल आने के समय 80-90 दिन तथा पुष्ट होने की अवस्था में 100-105 दिन में सिंचाई करना लाभकारी रहता है।
फसल की कटाई
फसल की कटाई उपयुक्त समय पर करें। धनिया दाना दबाने पर मध्यम कठोर तथा पत्तियां पीली पडऩे लगे, धनिया डोडी का रंग हरे से चमकीला भूरा पीला होने पर तथा दानों में 18 प्रतिशत नमी रहने पर कटाई करेें।
उपज
धनिया की किस्मानुसार उपज अलग अलग होती हैं। वैसे सिंचित क्षेत्रों से 12-20 क्विंटल एवं असिंचित क्षेत्रों में 6-10 क्वि. प्रति हेक्टेयर तक उपज प्राप्त की जा सकती हैं। हरी पत्तियों से 125-140 क्विं. प्रति हेक्टेयर तक उपज प्राप्त होती हैं तथा बाद में 10-12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक बीज प्राप्त होते हैं।
प्रमुख रोग एवं नियंत्रण:-
उकठा रोग: इस रोग से प्रभावित होने पर पौधे का शीर्ष भाग मुरझाकर सूखने के साथ साथ पौधा भी सूखने लगता है एवं बाद में पौधा मर जाता है। जड़ों का रंग भूरा हो जाता है। यह रोग पौधे की किसी भी अवस्था में हो सकता है। लेकिन इसका प्रकोप पौधे की छोटी अवस्था में अधिक होता है। नियंत्रण
चूर्णी फफूंदी रोग: यह रोग एरिसाइफी पोली गोनाई नामक फफूंद से फैलता है। यह रोग फरवरी एवं मार्च महीने में अधिक नुकसान पहुंचाता है। इस रोग में पौधे की पतियों एवं तनो पर सफेद चूर्ण जैसे धब्बे दिखाई देते है जो बाद में सफेद पाउडर में बदला जाते हैं। यह फसल की उपज पर प्रभाव डालता है। नियंत्रण: गंधक चूर्ण 20-25 किग्रा.प्रति हेक्टेयर की दर से भुरकें। झुलसा रोग: इस रोग के प्रभाव से पौधे की पत्तियों और तनों पर गहरे भूरे रंग के या फिर झुलसने की तरह के धब्बे बन जाते है और पौधा नष्ट हो जाता है। नियंत्रण मेंकोजेब 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से में मिलाकर छिड़काव करें। आवश्यक हो तो दूसरा छिड़काव दोहराएं। स्टेम गाल: रोग ग्रसित पौधों में पतियों में व तनों में फफोले के आकार बन जाते हंै तथा बीजों का आकर भी बदलकर लौंग की तरह हो जाता है। इसलिए इसे लोंगिया रोग भी कहते हैं। नमी की उपस्थिति में यह रोग ज्यादा फैलता है। नियंत्रण
कीट नियंत्रण: कटवर्म या वायर वर्म: भूरी सुंडी वाला यह कीट पौधों को शाम के वक्त में भूमि की सतह से काट देता हैं। जबकि वायर वर्म भूमि में रहकर जड़ों को नुकसान पहुंचाता हैं। नियंत्रण: बुवाई पूर्व क्लोरपायरीफॉस 1.5 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से भूमि में बुवाई पूर्व भली-भांति मिलायें भूमि में छिड़ककर मिलायें फिर बुवाई करें। माहू: फूल आने के समय सामान्यत: इस कीट का प्रकोप होता हैं। यह कीट पौधों के कोमल भागों से रस चूसकर पौधे को नष्ट कर देते हैं। इस कीट का प्रकोप देरी से बुवाई करने पर फरवरी माह में फूल अवस्था पर अधिक होता है। इस कीट द्वारा रस चूसने से फसल पिली पड़ जाती है तथा तने सिकुड़े हुए हो जाते हैं। जिससे फसल का बाजार भाव कम मिलता हैं एवं देखने में आकर्षक नहीं रहते हैं। नियंत्रण: इस कीट के नियंत्रण के लिए प्रभावित फसल पर इमिडाक्लोप्रिड या डाइमिथिएट 30 ई.सी. 1 मी.ली. दवा प्रति लीटर पानी में मिलाकर फसल पर छिड़कें। |
- राजीव दीक्षित
- चंन्द्रशेखर खरे
- मनोज साहू