Editorial (संपादकीय)

विश्वास जगाती खेती

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परंपरागत तौर-तरीकों पर एक डॉक्टर का अनुभव

मैं डॉ. आशुतोष अग्निहोत्री, जबलपुर, मध्यप्रदेश का निवासी हूँ। मैं पेशे से कैंसर स्पेशलिस्ट हूँ और लगभग 20 साल से बतौर कैंसर स्पेशलिस्ट, समाज को अपनी सेवाएँ दे रहा हूँ। मैंने सन 2015 के बाद से खेती करना प्रारंभ किया है। उसके पीछे मेरा कैंसर के इलाज से जुड़ा लम्बा अनुभव है। समाज को सन्देश देने का प्रयास है। अपने लम्बे चिकित्सीय अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि बहुत सी जानलेवा और गंभीर बीमारियों की असली वजह रसायनिक खेती द्वारा पैदा किए खाद्यान्नों से तैयार किया भोजन है। खरपतवारनाशकों, कीटनाशकों तथा यूरिया इत्यादि से विषाक्त होता पानी है। इस हकीकत के कारण मैं शौकिया तौर से खेती से नहीं जुड़ा। यह बहुत सोच-समझ कर उठाया सुविचारित कदम है। यह हानिकारक रसायनों और कीटनाशकों से मुक्त सब्जी और अनाज उपलब्ध कराने का साधन है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए मैंने जबलपुर से लगभग 30 किलोमीटर दूर कमतिया ग्राम में खेती की 5 एकड़ जमीन खरीद कर रसायन मुक्त सहजीवन आधारित प्रकृति निष्ठ खेती प्रारंभ की है।
यह सही है कि मेरा खेती का अनुभव मात्र दो साल का ही है पर इस छोटी सी अवधि में मैंने खेती के बुनियादी सिद्धांत को गहराई से समझने का प्रयास किया है। सेहतमंद आदमी के बीमार होने के कारणों को मौजूदा खेती की पद्धति और उसके पीछे छुपे सिद्धान्त की सहायता से समझने का प्रयास किया है। मुझे लगता है कि प्रकृति और खेती के बीच सहज सम्बन्ध है। उस सम्बन्ध का अनुभव कर मैंने लीक से हट कर कुछ विस्मरणीय अनुभव बटोरे हैं। मैं अपने अनुभवों के आधार पर खेती को प्रकृति से जोड़कर समझने और पूरी निष्ठा से अपनाने की अपील करता हूँ।
कुदरत बिना किसी हस्तक्षेप जिस प्रकार घने तथा स्वस्थ जंगलों का विकास करती है। इस विकास यात्रा में वह पारिस्थितिक तंत्र की मदद से बिना भेदभाव के वृक्षों, झाडिय़ों, लताओं, पक्षियों, जीव-जन्तुओं, कीट-पतंगों, जीवाणुओं, मिट्टियों तथा सूरज की रोशनी और पानी को जंगल के विकास में प्रयुक्त करती है लगभग उसी प्रकार प्रकृति निष्ठ खेती भी निरोगी खेती और निरोगी काया का मार्ग प्रशस्त करती है।

किसान यात्रा

मेरी किसानी की यात्रा बेहद सरल है। मैंने अप्रैल 2015 में जबलपुर स्थित अपने घर से लगभग 30 किलोमीटर दूर चरगंवा के कमतिया गाँव में 5 एकड़ जमीन खरीदी। कृषि पद्धति की समझ विकसित करने के लिए कृषि वैज्ञानिकों और आसपास के किसानों से लम्बी चर्चा की। उनके तौर-तरीके तथा अपनाई कृषि पद्धति समझी। अखबारों में किसानों की समस्याओं के बैकग्राउन्ड में मुझे लगता था कि मैं बीमारियों से बचने के लिए खेती कर रहा हूँ। दुश्वारियों के कारण खेती से धन कमाना संभव भी नहीं है। इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रख मैंने परम्परागत खेती को अपनाने का निर्णय लिया। बाबूलाल दाहिया, सुभाष पालेकर जैसे अनेक लोगों से भेंट की। नेट से लेकर कृषि साहित्य तक खंगाला। उस सब का मर्म समझने का प्रयास किया और फिर अपना रास्ता तय किया।

गाय, गौमूत्र, गोबर

चार पांच महिनों के चिन्तन के बाद अक्टूबर 2015 में लगभग ढ़ाई एकड़ जमीन पर आम के 650 पेड़ लगाए। मार्च 2016 में डेढ़ एकड़ में नींबू के 100 पेड़ लगाए। एक एकड़ में अनाजों और सब्जियों इत्यादि को लगाया। गाय खरीदी और गोमूत्र तथा गोबर का इंतजाम किया। सहजीवन पर आधारित प्रकृति निष्ट खेती को अपनाते हुए बिना रसायन वाली खेती प्रारंभ की। यूरिया जैसे रसायनिक खादों तथा कीटनाशक दवाओं के स्थान पर जीवामृत और दशपर्णी घोल की सहायता से खेती को आगे बढ़ाया। खेत की मेढ़ों पर अमरुद, पपीता, आँवला, कटहल, सीताफल, अनार, कला, लीची, चीकू, मुनगा, नरियल, सुपारी इत्यादि के वृक्ष लगाए।

अरहर से आरंभ

अपने खेत के बहुत छोटे हिस्से में पहले साल तुअर के देशी बीजों को बोया। गोबर की खाद, जीवामृत और दषपर्णी घोल का उपयोग किया। फसल आने पर अच्छे तथा स्वस्थ बीजों को छांटा। अगले साल अच्छे बीजों को बोया। यह क्रम जारी रखा। हर साल मुझे उत्पादन में वृद्धि मिली। इस साल मुझे 70 डिसिमल जमीन से लगभग चार क्विंटल तुअर का उत्पादन मिला है। बीज की साइज औसत से अधिक रही। कुछ बीज तो मटर की साइज के हैं। अपने खेत में तैयार बीज, खाद, दवाई इत्यादि के उपयोग के कारण लागत बहुत कम है। अब मेरी दूध, हरी सब्जियों, अरहर इत्यादि की आवश्यकताएं आसानी से पूरी हो रही हैं।
अपने अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि खेती करने वाले लोगों को प्रकृति के नियम कायदे तथा निर्देशों को जानना, समझना और मानना आवश्यक है। यह बात कुछ लोगों को अजीब लग सकती है, पर वही मौजूद है। उसे अपनाकर खेती की लागत कम की जा सकती है। इसके लिए जरूरी है कि किसान अपना देशी बीज बचाए, उसे अपने खेत में लगाए और अपनी खाद तथा दवा खुद ही बनाए। बाजार से दूर रहे। जाहिर है जब किसान अपना खाद, अपना बीज बचा उपयोग में लायेगा तो खुद-ब-खुद स्वावलम्बी हो जायेगा। वह समृद्ध होने लगेगा। जो प्रकृति के विपरीत है, उसे खेती में शामिल नही करना चाहिए। वह सह-जीवन आधारित प्रकृति निष्ठ खेती नहीं है।
मेरा सुझाव है कि बरसात के दिनों में घास के परिवार की फसल जैसे ज्वार, बाजरा, मक्का इत्यादि या अरहर की फसल लेना बेहतर होता है। ऐसा करने से निंदाई का खर्च बच जाता है। हमें प्रकृति द्वारा बरसात में पैदा किए कचरे को स्वीकार करना चाहिए। लगता है, कुदरत उसे जमीन की उर्वरकता बढ़ाने के लिए पैदा करती है। बरसाती फसल, लम्बी होने के कारण ऊपर उठ जाती है और सूरज की रोशनी उसकी आवश्यकता पूरी कर देती है और जब हम अपने खेत में खुद के खेत का पैदा किया बीज बोते हैं तो वह बीज स्थानीय मौसम से परिचित होता है। उसके डीएनए में स्थानीय परिस्थितियों से संस्कारित होने से लेकर अच्छे तरीके से फलने और फूलने के गुण होते है। इस कारण वह अधिक प्रतिरोधक क्षमता के साथ पैदा होता है। फलता-फूलता है तथा उत्पादन देता है। वह राजाश्रय में पली-बढ़ी या सहेजी खेती नहीं है। वह 5000 साल से अधिक से चली आ रही परम्परागत खेती है। किसानों ने उसी को उत्तम खेती कहा है।

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