फसल की खेती (Crop Cultivation)

देशी वनस्पतियां औषधीय गुणों से भरपूर

देशी वनस्पतियां औषधीय गुणों से भरपूर – वर्तमान समय में कोरोना जैसी महामारियों के दौर को देखते हुए राजस्थान के शुष्क क्षेत्रों में आसानी से पाए जाने वाले औषधीय पादपों एवं उनके उपयोग के बारे में जानकारी होना अत्यंत आवश्यक है ताकि इनका सही उपयोग कर हम स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर सके। इन औषधीय पौधों के रूप में प्रकृति ने हमें अनमोल सम्पदा प्रदान की है। इनमे से ज्यादातर औषधीय पौधे जंगली अवस्था में पाये जाते हैं। हमारे घर के आस-पास सड़क व रास्तों के किनारे अनेक पौधे ऐसे उगते हैं, जो औषधीय गुणों से युक्त होते हैं। परन्तु आम शहरी व्यक्ति इनके गुणों से अनभिज्ञ होने के कारण इनका अनदेखा कर देते हैं। आदिवासी और ग्रामीण परिवेश के लोग इन्हें पहचानते हैं। वे पीढ़ी दर-पीढ़ी इस ज्ञान को संजोए हुए हैं और इसका उपयोग कर रहे हैं। यहाँ हमने उन्हीं औषधीय पादपों को लिया है जो हमारे घर के आस-पास आसानी पाये जाते हैं। परन्तु आज के परिवेश में हमारी अनभिज्ञता के कारण ये स्वास्थ्य वर्धक पोधे उपेक्षित हैं।

कंटकारी/कंटेली/भटकटैया (सोलेनम जेन्थोकार्पम)

यह गहरे हरे रंग की छोटी काँटेदार झाड़ी है। गर्मियों के दिनों में यह खाली पड़ी हुई जमीन और सड़क के किनारे आसानी से नजर आ जाती है। इसकी पत्तियाँ लम्बी, किनारों से कटी हुई और दंतुर होती हैं। तना छोटा, हल्का हरा होता है। तना और पत्तियाँ रोमिल होते हैं। पत्तियों की शिराओं पर बड़े काँटे होते हैं। पुष्प नीलवर्ण, बैंगनी और संयुक्तदली होते हैं। फल गोलाकार 0.5 से 1 इंच व्यास के होते हैं और पकने पर पीले रंग के दिखाई देते हैं। यह उष्ण और शुष्क जलवायु का पौधा है और सम्पूर्ण भारत में पाया जाता है। इसके औषधीय गुण इसमें उपस्थित ग्लूको-एल्केलॉइड और स्टीरॉल्स के कारण होते हैं। सम्पूर्ण पौधा औषधीय गुणों से युक्त है। पौधे का शुष्क चूर्ण अकेले या अन्य औषधियों के साथ अस्थमा, कफ और बुखार में प्रयुक्त किया जाता है इसकी उष्ण और तिक्त प्रकृति के कारण यह अस्थमा की शक्तिशाली औषधि है। पत्तियों का रस माइग्रेन होने पर नाक में डाला जाता है। फल कब्जनाशक है। इसकी जड़ दशमूलारिष्ट औषधि का अंग है।

पीली कंटेली (आर्जीमोन मैक्सिकाना)

यह शुष्क परिस्थितियों में उगने वाला काँटेदार एक वर्षीय शाक है तथा खरपतवार के रूप में कहीं भी उग जाता है। पौधा 1 मीटर तक लम्बा होता है। पर्ण काँटेदार होती है पौधे में पीले रंग का दूधिया पदार्थ लैटेक्स पाया जाता है। इसके बीज सरसों के बीजों जैसे दिखाई देते हैं। इसके औषधीय गुण इसमें उपस्थित एल्केलॉइड बर्वेरिन व प्रोटोपिन के कारण होते हैं इसका दूध एंटीबैक्टीरियल होता है और घाव जल्दी भरने में सहायक होता है। यह त्वचा रोगों में भी प्रयुक्त होता है। कुछ जनजातियाँ और ग्रामीणों द्वारा इसके दूध को परम्परागत रूप से मोतियाबिंद के उपचार में काम में लिया जाता है तथा बिच्छू के डंक मारने पर इसकी जड़ को घिस कर लगाया जाता है। इसकी जड़ का पाउडर एक उत्तम विरेचक है। बीज विषैले होते हैं। इन्हें मच्छर प्रतिकर्षी और कृषि में कृमिनाशी के रूप में प्रयोग किया जाता है। बीजों में उपस्थित तेल को आर्जीमोन तेल कहते हैं। इसकी मिलावट सरसों के तेल में भी की जाती है। यह तेल गम्भीर स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं और ड्रॉप्सी रोग का कारण बनता है।

अजगंधा (क्लीओम विस्कोसा)

यह एक वर्षीय शाकीय पौधा है। वर्षा ऋतु में यह पुष्पित व फलित होता है तथा सड़कों के किनारे फुटपाथ पर आसानी से नजर आ जाता है। पौधे की ऊँचाई लगभग 1 मीटर तक होती है पत्तियाँ 5 पालियों में बँटी होती हंै और रोमिल होती है पुष्प पीले रंग के होते हैं। पुंकेसर स्पष्ट व लम्बे होते हैं। फल, फली की तरह लम्बे, सम्पुटिका युक्त होते हैं। यह उष्ण कटिबंधीय जलवायु का पौधा है और जंगली अवस्था में प्राकृतिक रूप में उगता है। पौधे में विशिष्ट गंध होती है। इसमें क्लीओमिन और विस्कोसिन एल्केलाइड पाये जाते हैं। पत्तियाँ खाने योग्य व पौष्टिक होती हैं। इनका स्वाद कड़वा होता है, इसलिये अन्य सब्जियों के साथ मिलाकर आहार में शामिल की जा सकती हैं। जुकाम में पत्तियों की भाप लेने से लाभ होता है। खाँसी-जुकाम में पत्तियों का काढ़ा बनाकर लिया जाता है। घाव और विषैले कीट के काटने पर पत्तियाँ पीसकर लगाई जाती हैं। बवासीर रोग में पाइल्स को इसके बीजों के काढ़े से धोने पर उनकी सूजन खत्म हो जाती है। इसकी सब्जी गर्भवती महिलाओं के लिये एक पौष्टिक आहार है।

छोटी दूदी (यूफोर्बिया थाइमिफोलिया)

यह नन्हा-सा शाकीय पौधा नम स्थानों पर, दीवारों के सहारे उगता है। घर के बगीचे में घास के साथ देखा जा सकता है। पौधा श्यान होता है। पत्तियाँ गहरी हरी, छोटी अंडाकार और सम्मुख होती है। तना गोल पतला, कोमल और रक्ताभ होता है। पौधे से श्वेत दूधिया पदार्थ लैटेक्स पाया जाता है। यह एकवर्षीय शाक है। जनजातियों और ग्रामीणों द्वारा इस पौधे को दूब के साथ पीसकर इसका रस गर्भाशय रोगों और श्वेतप्रदर के उपचार में प्रयोग में लिया जाता है। त्वचा रोग में इसकी पत्तियों को घिसकर लगाया जाता है। इसका रस का दस्त और पेचिस रोग में दिया जाता है। यह कृमिनाशी है। यह कफ और अस्थमा के लिये उत्तम औषधि है। यह एक एंटीवायरल औषधि भी है।

वज्रदंती (बार्लेरिया प्रायोनाइटिस)

यह शुष्क जलवायु का पौधा है यह जंगलों तथा चट्टानों सामूहिक रूप से वृद्धि करता है। इसको घरों और उद्यानों में भी शोभाकारी पौधे के रूप में उगाया जाता है। यह 1-1.5 मीटर ऊँचा होता है पत्तियों के आधार पर 3-5 तीक्ष्ण, हल्के पीले काँटे होते हैं। पुष्प कीपाकार, हल्के नारंगी-पीले होते हैं। सम्पूर्ण पौधा ही औषधीय गुणों से युक्त होता है। यह एंटीएलर्जिक, एंटीबायोटिक और एंटीवायरल है इसमें एल्केलॉइड, ग्लूकोसाइड और सिटो-स्टीरॉल्स पाये जाते हैं। पौधे में पोटैशियम प्रचुर मात्रा में होता है। पत्तियों और मूल का रस खाँसी, बुखार और अस्थमा में उपयोगी है। पत्तियों का रस त्वचा में संक्रमण होने पर प्रयोग में लिया जाता है। बाल झडऩे और सफेद होने की स्थिति में पत्तियों को पीसकर लगाया जाता है। पत्तियों और जड़ों का पाउडर दाँतों और मसूढ़ों के लिये उत्तम औषधि है।

खूबकला/जंगली सरसों (सिसिम्ब्रियम इरियो)

यह शाकीय पौधा है। यह लगभग 50-70 सेमी ऊँचाई तक पहुँच जाता है। पौधा सरसों के पौधे से मिलता-जुलता है। यह जंगली अवस्था में खरपतवार के रूप में उगता है। पत्तियों रॉकेट आकार की, किनारे से कटी होती हैं। यह शीत ऋतु के अन्त में पुष्पित होता है। पुष्प छोटे, पीले रंग के और चतुर्दली होते हैं। पौधे में गंधक के यौगिकों की उपस्थिति के कारण तीक्ष्ण गंध होती है। इसकी पत्तियाँ पौष्टिक और खाने योग्य होती हैं। बीज छोटे, नारंगी-भूरे रंग के, सरसों जैसे होते हैं। बीज औषधीय महत्व के हैं। इनमें फ्लेनोनॉइड, लिनोलिक और ऑलिक अम्ल भी पाये जाते हैं। बीजों का उपयोग इनकी उष्ण प्रकृति के कारण कफ और अस्थमा में किया जाता है। बुखार को कम करने और टाइफाइड ज्वर में भी इनका उपयोग किया जाता है। शरीर में लम्बे समय तक बने रहने वाले जीर्ण ज्वर में इसके बीजों को मुनक्का और पीपल के साथ पीसकर दिया जाता है।

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