ड्रैगन फ्रूट में धूप झुलस से बचाव के लिए शेडिंग तकनीक
04 अक्टूबर 2025, नई दिल्ली: ड्रैगन फ्रूट में धूप झुलस से बचाव के लिए शेडिंग तकनीक – ड्रैगन फ्रूट (Selenicereus spp.) एक उच्च मूल्य वाली बागवानी फसल के रूप में महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और पश्चिम बंगाल जैसे अर्ध-शुष्क और आर्द्र-गर्म क्षेत्रों में तेजी से लोकप्रिय हो रही है। गर्मी के मौसम में जब तापमान 35 डिग्री सेल्सियस से ऊपर पहुँच जाता है, तब इस फसल में धूप झुलस की समस्या गंभीर रूप से सामने आती है। इसकी क्रैसुलेशियन एसिड मेटाबॉलिज़्म (CAM) प्रणाली के कारण पौधे दिन में रंध्र बंद कर लेते हैं, जिससे वाष्पोत्सर्जन द्वारा शीतलन संभव नहीं हो पाता। इस वजह से पौधों की टहनियाँ पीली पड़ जाती हैं, तनों में सड़न बढ़ जाती है, पत्तियों का हरापन कम होता है, रोग बढ़ते हैं और फूल तथा फल की संख्या प्रभावित होती है।
पारंपरिक उपाय और उनकी सीमाएँ
अब तक किसान धूप झुलस से बचाव के लिए कुछ सामान्य उपाय अपनाते रहे हैं। इनमें पौधों को बिना ढकाव छोड़ देना, सिंचाई कम कर देना, 50 प्रतिशत ग्रीन शेड नेट का उपयोग करना या फिर 5 से 10 प्रतिशत की दर से काओलिन घोल का छिड़काव करना शामिल है। लेकिन ये उपाय पौधों को पर्याप्त सुरक्षा नहीं दे पाते और फसल को अनुकूल सूक्ष्म वातावरण भी उपलब्ध नहीं कराते।
नई तकनीक का विकास
इस चुनौती का समाधान करने के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के राष्ट्रीय अजैविक आघात प्रबंधन संस्थान (ICAR–NIASM), बारामती ने वर्ष 2022–23 में कृत्रिम शेडिंग तकनीक विकसित की। परीक्षणों में पाया गया कि 50 प्रतिशत तीव्रता वाले काले और सफेद शेड नेट ग्रीन नेट की तुलना में अधिक प्रभावी हैं। इस प्रणाली के अंतर्गत आरसीसी खंभे या लोहे के एंगल 8 से 10 मीटर ऊँचाई तक लगाए जाते हैं और हर 10 मीटर पर 2 मीटर लंबे “टी” बार फिट किए जाते हैं। पौधों की छतरी से लगभग 0.75 मीटर ऊपर 2 मीटर चौड़ा शेड नेट अप्रैल–मई में लगाया जाता है और मानसून शुरू होते ही हटा लिया जाता है। इस संरचना की लागत लगभग 1.0 से 1.5 लाख रुपये प्रति एकड़ आती है।
किसानों को मिले परिणाम
इस तकनीक से पौधों के ऊपर का तापमान 5 से 6 डिग्री सेल्सियस कम हो गया और प्रकाश की तीव्रता लगभग 50 प्रतिशत घट गई। परिणामस्वरूप धूप झुलस की घटनाएँ 90 प्रतिशत से अधिक कम हुईं और रोग लगने की संभावना 30 से 40 प्रतिशत तक घटी। पौधों में हरितलवक की मात्रा संरक्षित रही, जिससे प्रकाश संश्लेषण प्रभावित नहीं हुआ। फूल आने में औसतन 12 से 15 दिन की तेजी दर्ज की गई, अधिक फूल बने, फल गिरने की समस्या कम हुई और कुल उत्पादन में 40 से 70 प्रतिशत की वृद्धि हुई। किसानों को 5.5 से 8.0 टन प्रति हेक्टेयर तक उत्पादन प्राप्त हुआ।
प्रदर्शन और प्रभाव
इस तकनीक का प्रदर्शन महाराष्ट्र के पुणे, सतारा, सांगली और सोलापुर जिलों में 10 किसानों के खेतों पर किया गया। किसानों ने बताया कि फूल आने में तेजी, फल सेटिंग में 20 से 30 प्रतिशत सुधार, 1–2 अतिरिक्त फल की खेप, कीटनाशक की खपत में लगभग 25 प्रतिशत कमी और शुद्ध आय में 2 से 3 लाख रुपये प्रति हेक्टेयर की वृद्धि दर्ज की गई।
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