फसल की खेती (Crop Cultivation)

खेती में जैव कीट-रोगनाशक अपनाकर प्रकृति को बचायें

लेखक: डॉ. रामनिवास शर्मा (सहायक प्रोफेसर, पौध व्याधि); डॉ. उदयभान सिंह (प्रोफेसर एवं अधिष्ठाता) कृषि महाविद्यालय, कुम्हेर, राजस्थान (श्री कर्ण नरेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय, जोबनेर); डॉ. जे.के. गुप्ता (सहायक प्रोफेसर, कीट)  कृषि महाविद्यालय, लालसोट, राजस्थान (श्री कर्ण नरेन्द्र कृषि विवि, जोबनेर)

02 दिसम्बर 2023, नई दिल्ली: खेती में जैव कीट-रोगनाशक अपनाकर प्रकृति को बचायें – देश में फसलों को कीटों व रोगों से प्रतिवर्ष लगभग 7 से 25 प्रतिशत तक नुकसान होता है। कृषि के क्षेत्र में रासायनिक कीट व रोगनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग से कीट व रोगकारकों में प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न हो रही है। इसके साथ-साथ इन महंगे कीट व रोगनाशकों के प्रयोग से किसान की माली हालत भी कमजोर हो गई है। ये रासायनिक कीट व रोगनाशी वातावरण को प्रदूषित करने के साथ-साथ भोज्य पदार्थों को भी जहरीला बना रहे हैं एवं साथ में भूमि की उर्वरा शक्ति को भी चौपट कर रहे हैं। फिर भी किसान कीट व रोगों को त्वरित गति से नियंत्रित करने के लिए इन कीट व रोगनाशकों का अंधाधुंध प्रयोग कर रहे हैं, जबकि प्रकृति में ऐसे प्राकृतिक जैव नियंत्रक विद्यमान हैं जैसे- एन.पी.वी., ट्राइकोग्रामा, क्राइसोपर्ला, ट्राइकोडर्मा, स्यूडोमोनास आदि, जिनका प्रयोग कर रासायनिक दवाओं के अनावश्यक खर्च, कीट व रोगकारकों में प्रतिरोधक क्षमता व प्रदूषण के दुष्प्रभावों से बच जा सकता है। खेती में प्रयोग किये जाने वाले मुख्य जैव नियंत्रक इस प्रकार हैं-

जैविक रोगनाशी ट्राइकोडर्मा

यह एक प्राकृतिक जैव फफूंदनाशी फफूंद  है जो नरमा-कपास, दलहन, शाक-सब्जियों व मसाले की फसलों में बीज व बीजांकुर गलन, जड़ गलन, तना गलन व उक्ठा आदि बीज व मृदा जनित बीमारियों से फसल सुरक्षा में प्रभावी है। इस फफूंद की तीन प्रजातियाँ – ट्राइकोडर्मा हारजेनियम, ट्रा. विरिडी व ट्रा. हैमेटम मुख्य रूप से ज्यादा प्रचलित हैं।

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ट्राइकोडर्मा का उपयोग बीजोपचार व मृदा उपचार के लिए किया जाता है। बीज के द्वारा या सीधे मृदा में पहुंचने के बाद यह फफूंद उचित नमी एवं वायु की उपस्थिति में स्वयं वृद्धि करने लगती है एवं कुछ विषैले पदार्थ जैसे- ट्राइकोडर्मिन, ग्लाइओटॉसिन, विरिडिन या एन्जाइम जैसे बीटा (1-3) ग्लूकेनेज व काईटीनेज आदि का स्राव करती है जो कि फसलों के रोगजनकों की वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं जिससे रोगों की रोकथाम में मदद मिलती है।

उपयोग विधि

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ट्राइकोडर्मा का उपयोग बीजोपचार एवं मृदा उपचार में किया जाता है। बीजोपचार के लिए बीज को सादा पानी से थोडा गीला करके कुछ समय तक छाया में फरेरा करने के बाद 5-10 ग्राम ट्राइकोडर्मा (टाल्क पाउडर आधारित) को प्रति किलो बीज के हिसाब से बीज के साथ मिलायें एवं तत्पश्चात बीज की बिजाई करें।

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जिस खेत में प्रत्येक वर्ष बीमारी का प्रकोप अधिक होता हो उस खेत में मृदा उपचार करना आवश्यक होता है। मृदा उपचार के लिए प्रति हेक्टेयर क्षेत्र के हिसाब से 5-10 किलोग्राम ट्राइकोडर्मा (टाल्क पाउडर आधारित) को 200 किलोग्राम सड़ी हुई गोबर की खाद (एफ.वाई.एम.) में मिलाकर बुवाई से पूर्व मृदा में भुरकें।

स्यूडोमोनास फ्लूऑरेसेन्स

यह एक जैव फफूंद व जीवाणुनाशी जीवाणु है जो कि नरमा-कपास, दलहन, शाक-सब्जियों व फलदार पौधों में रोगों जैसे नींबू का कैंकर, कपास का जीवाणु अंगमारी, कपास का जड़ गलन, गोभी की काली सड़न, गवार का जीवाणु अंगमारी आदि से फसल सुरक्षा में प्रभावी है। स्यूडोमोनास फ्लूऑरेसन्स प्रकिण्डों व प्रतिजैविक पदार्थों का स्राव करता है जो कि रोगजनकों पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। यह परजीविता, प्रतिजैविकता एवं प्रतिस्पर्धा जैसे प्रतिपक्षी अंत: क्रियाओं के संयोजन से सूत्रकृमि व रोगों को नियंत्रित करता है। यह पौधों की बढ़वार में भी सहायक है।

उपयोग विधि

स्यूडोमोनास फ्लूऑरेसेन्स का उपयोग बीजोपचार में किया जाता है। बीजोपचार के लिए बीज को सादा पानी से थोड़ा गीला करके कुछ समय तक छाया में फरेरा करने के बाद 5-10 ग्राम ट्राइकोडर्मा (टाल्क पाउडर आधारित) को प्रति किलो बीज के हिसाब से बीज के साथ मिलायें एवं तत्पश्चात बीज की बिजाई करें। सब्जियों आदि की पौध को रोपाई से पूर्व स्यूडोमोनास फ्लूऑरेसेन्स (टाल्क पाउडर आधारित) के 1 प्रतिशत घोल में 3 मिनट तक डुबोकर रोपाई करें। खड़ी फसल में पौधों के वायवीय भागों पर रोग (विशेषकर जीवाणु जनित) के लक्षण दिखाई देने पर स्यूडोमोनास फ्लूऑरेसेन्स (टाल्क पाउडर आधारित) के 0.5 प्रतिशत घोल का छिड़काव करेें।

जैविक कीटनाशी एन.पी.वी. (न्यूक्लियर पॉलीहेड्रोसिस वायरस)

एन.पी.वी. एक सुरक्षित जैव कीटनाशी है। इसका प्रयोग अमेरिकन सुण्डी (हरी लट) एवं तम्बाकू की सुण्डी के नियंत्रण हेतु किया जाता है। फसल पर इसका छिड़काव करने के बाद जब सुण्डी पौधे की पत्तियों अथवा फलों के भाग को खाती है तो उस भाग के साथ-साथ कुछ एन.पी.वी. भी उसकी आहार नाल में पहुँच जाता है। आहार नाल का माध्यम क्षरीय होने की वजह से यह एन.पी.वी. आहार नाल को गलाकर सुण्डी के शरीर की रक्त कोशिकाओं के केन्द्रक के साथ जुड जाता है एवं स्वयं की संख्या में वृ़िद्ध करता रहता है जिससे सुण्डी लकवग्रस्त हो जाती है। अंत में यह विषाणु उसके सारे शरीर में फैलकर 3 से 5 दिनों के अन्दर सुण्डी को मार देता है। सुण्डी को मारने के लिए एन.पी.वी. का भोजन के साथ आहार नाल में पहुँचना आवश्यक है क्योंकि केवल बाहरी त्वचा पर छिड़कने से सुण्डी पर इसका कोई प्रभाव नहीं  पडता है।

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उपयोग विधि

किसी भी स्रोत से प्राप्त एन.पी.वी. जिसकी क्षमता 1ङ्ग109 पी.ओ. बी./एम.एल. हो, की 0.75 मि.ली. मात्रा प्रति लीटर पानी के हिसाब से फसल पर सुण्डी की दूसरी या तीसरी अवस्था तक छिड़क दें क्योंकि एन.पी.वी. सुण्डी की दूसरी या तीसरी अवस्था तक ही अधिक प्रभावी रहता हैं।

ट्राइकोग्रामा

यह एक अण्ड परजीवी कीट है जो कि जैव नियंत्रण विधि का एक प्रभावी घटक है। यह परजीवी अत्यन्त छोटा व काले भूरे रंग का होता है। इस कीट का जीवन चक्र छोटा होने के कारण यह कई हानिकारक कीटों के अण्डों को नष्ट करता है जिससे हानिकरक कीटों की पीढ़ी आगे नहीं बढ़ पाती हैं। इस अण्ड परजीवी का प्रयोग कर गन्ना, धान, मक्का, कपास, टमाटर एवं बैंगन में लगने वाले लेपिडोप्टेरा समूह के विभिन्न कीटों का सफल व प्रभावी नियंत्रण किया जा सकता हैं।

यह कीट कपास की हरी सुण्डी, चितकबरी सुण्डी, गुलाबी सुण्डी व चावल के तना छेदक आदि हानिकारक कीटों (पतंगों) के अण्डों में अपने अण्डे देकर अपना जीवन चक्र शुरू करता है एवं प्यूपा अवस्था तक का जीवन चक्र परपोषी के अण्डों में ही पूरा करता है। व्यस्क अवस्था में अण्डों से बाहर निकलकर पुन: अपना जीवन चक्र इन कीटों (पतंगों)  के अण्डों में अपने अण्डे देकर प्रारम्भ कर देता है। इस प्रकार से ट्राइकोग्रामा परपोषी कीटों (पतंगों) के अण्डों के भ्रूणीय भाग को अपने पोषण के रूप में उपयोग कर लेता है जिससे कि इन अण्डों से सुण्डियां न निकलकर वयस्क ट्राइकोग्रामा निकलते हैं।

उपयोग विधि

ट्राइकोग्रामा परजीवी को परपोषी (कोरसायरा) के अण्डों पर तैयार करके ट्राइकोकार्ड के रूप में उपलब्ध कराया जाता है। एक कार्ड पर लगभग 20,000 परपोषी के अण्डे होते हैं जिनमें ट्राइकोग्रामा अण्ड परजीवी अपने अण्डे देकर अपना  जीवन चक्र प्रारम्भ करता है। प्रारम्भ में परपोषी के अण्डे हल्के पीले रंग के होते हैं लेकिन ट्राइकोग्रामा परजीवी द्वारा संक्रमित होने पर ये अण्डे भूरे काले रंग के हो जाते हैं। एक हेक्टेयर खेत के लिए 150 से 160 हजार (8  ट्राइकाकार्ड) ट्राइकोग्रामा द्वारा संक्रमित परपोषी के अण्डों की आवश्यकता पड़ती है। प्रत्येक ट्राइकोकार्ड पर इन परजीवीयों के निकलने की सम्भावित तिथि अंकित होती है। इन परजीवीयों के निकलने की सम्भावित तिथि से एक दिन पूर्व खेत में कार्ड की पट्टी को अलग-अलग कर पौधे की निचली पत्तियों के साथ यू-क्लिप से या धागे से बांध दें। खेत में परजीवीयों का समान रूप से विचरण हो सके इसके लिए ट्राइकोकार्ड की पहली पट्टी खेत की मेड से 5 मीटर की दूरी पर लगायें व आगे की पट्टी 10 मीटर की दूरी पर लगायें। एक हेक्टेयर खेत में करीब 100 स्थानों पर ट्राइकोकार्ड की पट्टियां लगायें।

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