फसल की खेती (Crop Cultivation)

सब्जियों में सिंचाई जल की आवश्यकता एवं प्रबंधन

सिंचाई जल असमानता होने पर सब्जियों में प्रभाव:

सब्जियों में सिंचाई जल की आवश्यकता एवं प्रबंधन – अधिक उत्पादन हेतु कृत्रिम ढंग से पानी देने की क्रिया को सिंचाई कहते हैं। बढ़ती हुई आबादी के दबाव से अतिरिक्त भोज्य पदार्थों की आपूर्ति के लिए सिंचाई का विकास किया गया। अधिक जल कृषि के लिए प्रयोग किया जाता है। सब्जी उत्पादन में पोषक तत्वों एवं पानी का बहुत योगदान है। सब्जियों का 80 प्रतिशत या इससे अधिक भाग जल से बना होता है। पानी के माध्यम से ही पोषक तत्व पूरे पौधों में पहुँचता है। सब्जियाँ जल की कमी के प्रति काफी सहिष्णु होती है, क्योंकि अधिकांश सब्जियों की जड़े उथली (झकड़ा) होती है एवं पौधे की वृद्धि एवं विकास कम समय में ही पूरा करती है। थोड़े अंतराल के लिए भी पानी की कमी, उत्पादन के साथ-साथ सब्जियों की गुणवत्ता पर भी विपरीत प्रभाव डालती है। सब्जियों में वृद्धि व विकास के समय, फूल आने एवं फल वृद्धि के समय पानी की कमी होने पर सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ता है।

टमाटर: फूल आने के समय मृदा में कम नमी के परिणामस्वरूप फूल झड़ जाते हैं, निषेचन नहीं होता साथ ही फलों का आकार छोटा हो जाता है। फलों के पकने के समय अधिक सिंचाई से फलों में सडऩ हो जाती है एवं फलों की मिठास में कमी हो जाती है। जल की कमी होने से कैल्सियम की मृदा में अल्पता आ जाती है जिसके परिणामस्वरूप पुष्प वृन्त में सडऩ पैदा हो जाती है एवं फूल झड़ जाते हैं।

Advertisement
Advertisement

बैंगन: बैंगन मृदा जल में असमानता के प्रति काफी संवेदनशील होता है। मृदा में कम नमी होने के कारण उपज में काफी गिरावट आती है एवं फलों का रंग सुचारू रूप से विकसित नहीं होता है। अधिक जल भराव से फसल में जड़ विगलन रोग लग जाता है।

मिर्च एवं शिमला मिर्च: लंबे, शुष्क वातावरण एवं मृदा में नमी की कमी होने से, विशेषकार गर्मियों में फूल एवं छोटे फल गिर जाते हैं तथा पौधा पुन: पानी देने पर भी जल्दी अपने आपको नियंत्रित नहीं कर पाता है। कम नमी होने के कारण शुष्क पदार्थ एवं पोषक तत्वों का अवशोषण कम हो जाता है परिणामत: फल की वृद्धि रूक जाती है।

Advertisement8
Advertisement

महत्वपूर्ण खबर : मध्य भारत में गेहूं की वैज्ञानिक खेती कैसे करें

Advertisement8
Advertisement

प्याज : प्याज की जडं़े काफी उथली होती हंै इसलिए इसे कम परन्तु बार-बार पानी की आवश्यकता होती है। शल्क कंद के विकास के समय पानी की कमी होने पर प्याज के उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इस अवस्था पर नमी की कमी से नयी वानस्पतिक वृद्धि का रूकना, दो शल्क कंदों का बनना एवं कन्द का फटना आदि विकृत देखी जाती है। प्याज की फसल तने के पास से स्वयं झुककर गिर जाने या कुचलने के बाद सिंचाई करने से भण्डारण में फफंूदजनित बीमारियों के लगने की संभावना बढ़ जाती हैं।

मूली एवं गाजर: ये सब्जियाँ रसीली एवं गूदेदार होने के कारण सिंचाई के प्रति काफी संवेदनशील है। जड़ों की वृद्धि एवं विकास के समय नमी की कमी होने के कारण फसल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। जड़ों की बढ़वार के समय मृदा में नमी की कमी की दशा में जड़ों का विकास रूक जाता है, जड़े टेड़ी-मेड़ी एवं खुरदरी हो जाती है तथा जड़ों में नाइट्रेट की मात्रा बढ़ जाती है। गाजर में कम नमी की दशा में जड़ों से अरूचिकर महक आ जाती है। मृदा के सूखे रहने के बाद एकाएक सिंचाई करने या वर्षा होने पर जड़े फट जाती हंै।

पत्तागोभी: मृदा के काफी समय तक शुष्क रहने के बाद सिंचाई करने या वर्षा होने पर शीर्ष (बंद) फट जाता है। चायनीज पत्तागोभी में बंद के विकास के समय कम नमी की दशा में पत्तियों का ऊपर किनारा सूख जाता है। फसल की आरिम्भक अवस्था में अधिक नमी की वजह से जड़ों का अनावश्यक अधिक विकास होता है।

खीरा: फूल आने पर मृदा में नमी के अभाव से परागकण ठीक से न हो पाने के कारण फसल उत्पादन कम हो जाता है। फलों के विकास के समय नमी के अभाव में फलों का आकार बिगड़ जाता है और उनमें कड़वाहट आ जाती है। खेत में थोड़े समय तक भी जल भराव होने से पत्तियां पीली पड़ जाती है एवं लता का विकास रूक जाता है। फलों की तुड़ाई के समय खेत की सिंचाई नहीं करें।

खरबूज: खरबूज में फलों के पकने के समय सिंचाई नहीं करें अन्यथा फलों में मिठास, विलेय पदार्थ एवं विटामिन सी की मात्रा कम हो जाती है।
तरबूज: फलों के पकने के समय तरबूज में सिंचाई बंद कर दें अन्यथा फलों की त्वचा फट जाती है, गूदे रेशेदार एवं कम रसीले होते है तथा फल की गुणवत्ता खराब हो जाती है। फलों की बढ़वार पर नमी की कमी से फलों में नाइट्रेट की मात्रा बढ़ जाती है जो कि स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है।
मटर: मृदा में कम नमी की दशा में ही मटर को पानी देने की आवश्यकता पड़ती है। मटर में प्रथम सिंचाई – फूूल आने पर (बुवाई के लगभग 30-40 दिन के बाद) तथा दूसरी सिंचाई फलों के विकास के समय (बुवाई के 50-60 दिन बाद) आवश्यकता पड़ती है। वानस्पतिक वृद्धि के समय मृदा में कम नमी होने पर नत्रजन स्थिरीकरण करने वाली गाँठों का निर्माण कम होता है तथा फसल की वृद्धि रूक जाती है।

Advertisement8
Advertisement

टपक सिंचाई: पानी की मांग बढऩे के कारण, सिंचाई के लिए पानी की उपलब्धता पर दबाव बढ़ रहा है। भारत में उपयोग किए जाने वाला भूमिगत जल स्रोत सीमित है। भूमिगत जल के अन्धाधुन्ध दोहन से जल स्तर में लगातार गिरावट आ रही है। एक अनुमान के अनुसार प्रतिवर्ष 20 से 60 सेमी भूमिगत जल स्तर में गिरावट मापी गई है। टपक सिंचाई या बूँद-बूँद सिंचाई इस समस्या के निदान हेतु सबसे उपयुक्त माध्यम है। इस विधि में पानी की आवश्यकता बहुत कम पड़ती है एवं पानी के अधिकतम उपयोग क्षमता को इस विधि के प्रयोग से प्राप्त किया जा सकता है। इसमें बूँद-बूँद करके पानी प्रत्येक पौधे की जड़ों के पास ड्रिपर के माध्यम से दिया जाता है। इस विधि में पानी कम अंतराल पर लेकिन कम मात्रा में दिया जाता है।

पौधशाला में सिंचाई:

पौधशाला की सिंचाई मुख्यत: हजारा द्वारा की जाती है। हजारे में छिद्र के माध्यम से पानी भूमि सतह पर पतली परत के रूप में क्यारी को नम रखता है। पौधशाला में प्रारम्भिक पौध विकास के लिए लगातार नमी बनाए रखना आवश्यक होता है। पौधशाला हमेशा उठी (ऊँची) हुई क्यारियों में लगाना चाहिए जिससे क्यारी में पानी इक_ा न हो सके, क्योंकि पौधशाला में पौधें को पानी लगने की दशा में फफूंदजनित बीमारियों के लगने की संभावना अधिक रहती है। पौधशाला में बीज बोने के बाद क्यारी को घास-फूस से 3-6 दिन के लिए ढँक दिया जाता है जिसका उद्देश्य पानी देते समय बीज सीधे पानी के सम्पर्क में न आए और क्यारी में नमी भी काफी समय तक संरक्षित रहे। पौधशाला में पानी देना, पौध रोपाई के 5-6 दिन पहले बंद कर दिया जाता है जिससे पौधे में विषम परिस्थितियों के प्रति अनुकूलन आ सके।

छिड़काव या फव्वारे द्वारा सिंचाई

इस विधि में पानी फव्वारे के रूप में वर्षा जल की तरह भूमि पर गिराया जाता है। पानी सूक्ष्म छिद्र या नोजल के माध्यम से उपयुक्त दबाव देकर फव्वारे के रूप में गिराया जाता है। इस विधि का प्रयोग मुख्यत: सभी फसलों एवं सभी प्रकार की मृदा के लिए किया जा सकता है परन्तु यह विधि बलुई, बलुई दोमट एवं असमान भौगोलिक क्षेत्र के लिए ज्यादा उपयोगी होती है। यह विधि उथली जड़ वाली एवं जल के प्रति सहिष्णु फसलें जैसे मटर, पालक एवं सब्जियों की पौधशाला के लिए बहुत लाभकारी होती है। छिड़काव विधि से सिंचाई करके शरद ऋतु में आलू, मटर आदि को पाले के प्रभाव से बचाया जा सकता है। छिड़काव द्वारा सिंचाई में घुलनशील उर्वरकों, कीटनाशक, फफूंदनाशक एवं खरपतवारनाशी आदि का प्रयोग अधिक लाभकारी होता है।

Advertisements
Advertisement5
Advertisement