Crop Cultivation (फसल की खेती)

चने की प्रमुख बीमारियां एवं रोकथाम

Share

बीमारियाँ :-

चने की उकठा रोग :- यह एक मृदोढ़ व बीजोढ रोग है, जो कि फ्यूजेरियम आक्सीस्पोरम नामक फफूंद से होती है।

संक्रमण :- रोगजनक फसल के अवशेषों व बीजों में 3-5 साल तक जीवित रहते हैं तथा बुवाई करने पर फफूंद के बीजाणु फसल के साथ-साथ उगने लगते हैं। तथा पौधों की महीन जड़ों (मूलिकाओं) को बेधकर पौधों में प्रवेश करते हैं।

बीमारी के लक्षण :- इस फफूंद के कवकजाल पौधों की जाइलम एवं फ्लोएम (दारूवाहिनिया) में एकत्रित होते रहते हैं। जिससे जल व खनिज लवणों का ऊपर चढऩा बंद हो जाता है। इस रोग के कारण पौधे की टहनियाँ सूखने लगती हैं। तथा पत्तियाँ हल्की कत्थई या बैंगनी रंग की हो जाती हैं। जो बाद में धीरे-धीरे नीली होने लगती हैं। रोग पौधे की जड़ें बाहर से पूर्णत: स्वस्थ दिखती हैं। लेकिन बीच से चीरकर देखने पर इनके जाइलम एवं फ्लोएम व मज्जा कोशिकाएँ भूरी दिखाई देती हैं। रोग के उग्र रूप धारण करने पर जड़ें सड़ जाती हैं और सम्पूर्ण पौधा मुरझा जाता है। जाइलम एवं फ्लोएम में रहकर फंगस कभी-कभी विषैले पदार्थ भी निकालते हैं। जिससे सम्पूर्ण पौधे में विषाक्तता उत्पन्न हो जाती है।

महत्वपूर्ण खबर : सब्जियों में सिंचाई जल की आवश्यकता एवं प्रबंधन

नियंत्रण :-

  • प्रतिरोध एवं उकठा अवरोधी किस्मों को अपनाएं जैसे- जे.जी. – 11 विशाल, जे.जी. – 74, जे.जी. – 130, जाकी 9218
  • रसायनिक दवा, जैविक फफूंद से बीज उपचार करें।
  • बुवाई से पहले प्रति हेक्टेयर 100 कि.ग्रा. सड़े हुए गोबर में 2-2.5 कि.ग्रा. ट्राइकोडर्मा मिलाकर खेत में छिड़क कर सिंचाई करें। कृषि विभाग में जैविक फफंूद ट्राइकोडर्मा, रसायनिक बीजोपचार दवा 50 प्रतिशत अनुदान पर मिलती है।
  • रोगी पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिए।
  • इस रोग से प्रभावित बीज को बुवाई के काम में न लें।

शुष्क मूल विगलन रोग :- इस रोग राइजोक्टोनिया बटाटिकोला नामक फफूंद से होता है रोग से प्रभावित पौधे पीले, पड़कर सूख जाते हैं और सम्पूर्ण खेत में बिखरे दिखाई देते हैं। मरी हुई जड़ शुष्क व कड़ी हो जाती है। जिसकी ऊपरी छाल पर दरारें पड़ जाती हैं। पौधे के जमीन वाले भाग को लम्बाई में फाडऩे पर छोटे-छोटे कोयले के कणों के समान छोटे स्कलेरोशिया दिखाई देते हैं।

  • घेंटियों में दाना भरते समय दूसरी सिंचाई का प्रबंध किया जाये। कीट नियंत्रण एवं कीट व्याधियों को पहचान एवं उनके नियंत्रण के बारे में बताया जाए। कीट व्याधियों के नियंत्रण करने में एकीकृत नाशी जीव प्रबंधन की विधियों के बारे में बताया जाये।
  • 2 प्रतिशत डीएपी घोल के छिड़काव की सलाह कृषकों को दें।

प्रसव के बाद जेर का रुकना कारण एवं निवारण

ब्याने के बाद ज़ेर का रुक जाना पशुओं की आम बीमारी है। ज़ेर के रुकने से गर्भाशय में इन्फेक्शन हो सकता है जिससे ऋतु चक्र को दुबारा शुरू होने में देर लगती है। इसका इलाज समय से नहीं करवाने पर यह गर्भाशय में संक्रमण पैदा कर पशु को रिपीट ब्रीडर या बांझ बना सकता है। अत: इन रोगों को तुरंत चिकित्सक परामर्श ले कर ठीक करवा लें।

कारण

  • समय पूर्व प्रसव द्य कष्ट प्रसव/कठिन प्रसव
  • अगर पशु में प्रसव पूर्व कोई हार्मोनल दवा लगानी पड़ी हो
  • गर्भाशय में पहले से ही कीटाणु-जनित संक्रमण
  • गर्भाशय की मांसपेशियों में शिथिलता आने पर
  • पशु के इम्यून सिस्टम कमजोर होने पर
  • आहार में पोषण तत्वों की कमी द्य हार्मोंस में असंतुलन
  • कुप्रबंध रखरखाव में कमी द्य खनिज लवण या विटामिन्स की कमी

निवारण

  • पशु चिकित्सक द्वारा उचित जांच व परामर्श लें।
  • गर्भावस्था के अंतिम तिमाही माह में पशु को संतुलित आहार दें।
  • आहार में खनिज मिश्रण (कैल्सियम, फास्फोरस, जि़ंक) व नमक मिलाएं।
  • जेर के रुकने पर बच्चे को दूध पिलाएं। यह जेर को उतरने में मदद करता है।
  • 24 घंटे बाद ही ज़ेर को निकलवाने के लिए हाथ डलवाएं।
  • ज़ेर निकलवाने के बाद गर्भाशय में एंटीबायोटिक्स की 2+2 गोली डलवाएं।
  • गर्भाशय संकुचन के लिए टॉनिक्स (इनवोलोन/युटरोटोन) पिलाएं।

अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें

  • डॉ. मेघा पांडे, वैज्ञानिक (पशु पुनरुत्पादन) भाकृअनुप
    केंद्रीय गोवंश अनुसंधान संस्थान, मेरठ छावनी- 250001 (उप्र)
    मो: 9410971314
Share
Advertisements

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *