सरसों में एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन (आईपीएम)
प्रमुख नाशीजीव ( प्रमुख कीट एवं रोग)
चेपा/माहू – यह कीट छोटा, कोमल, सफेद-हरे रंग का होता है। इस कीट के शिशु एवं प्रौढ़ दोनों पौधों के विभिन्न भागों से रस चूसते हैं। यह प्राय: दिसम्बर के अन्त से लेकर फरवरी के अन्त तक सक्रिय रहता है। इस कीट की आर्थिक हानि की सीमा 10 से 20 माहू (मध्य तना के 10 से.मी. भाग में) है। इससे उपज में लगभग 25-40 प्रतिशत तक की हानि हो सकती है।
चितकबरा कीट (पेन्टेड वग)- इस कीट के शिशु एवं प्रौढ़ दोनों ही सरसों को पौध की अवस्था से लेकर, वनस्पति, फली बनने और पकने अवस्था में रस चूसकर हानि पहुंचाते हैं। बाद में मैंड़ाई के लिए रखे गये सरसों पर भी आक्रमण करते हैं। जिससे दाने सिकुड़ जाते हैं और उत्पादन व तेल की मात्रा में कमी हो सकती है।
काले धब्बे का रोग/आल्टरनेरिया पर्ण अंगमारी- यह रोग बड़े पैमाने पर सरसों में लगता है। इसका प्रकोप पत्तियों, तनों, फलियों इत्यादि पर हल्के भूरे रंग के चक्रीय धब्बों के रूप में प्रदर्शित होता है। बाद में ये धब्बे हल्के काले रंग के बडे आकार के हो जाते हैं। इससे बीज की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है। जिस कारण इसकी अंकुरण में कमी तथा बाजार भाव कम मिलता है। गीला व गर्म मौसम या अदल-बदल के वर्षा व धूप तथा तेज हवाएं इस रोग को बढ़ाती हैं।
सफेद रतुआ- यह रोग सर्वप्रथम पत्तियों पर आता है। जब तना एवं पुष्पक्रमों में दिखाई पड़ता है उसमें पुष्पक्रम फूल कर विकृत आकार के हो जाते हैं, जिससे पैदावार में 17-34 प्रतिशत तक कमी आती है। यदि हवा के साथ तेज वर्षा होती है तो यह रोग तीव्र गति से फैलता है।
स्कलेरोटिनिया विगलन- इस रोग में पत्तों व तनों पर लंबे चिपचिपे धब्बे दिखाई देते हैं जो बाद में कवक की वृद्धि से ढक जाते हैं। इस रोग का प्रकोप फूल आने की अवस्था से शुरू होता है। जब मौसम ठण्डा व नम होता है, तो इस रोग की उग्रता बढ़ती है। इस रोग से सूखे पौधों के तनों में काले रंग वाले पिंड बन जाते हैं।
चूर्णिल आसिता- प्रारंभ में यह रोग पौधों के तनों, पत्तियों एवं फलों पर श्वेत, गोल आटे जैसे चूर्णित धब्बों के रूप में दिखाई देता है। तापमान की वृद्धि के साथ-साथ ये धब्बे आकार में बड़े हो जाते हैं।
लाभप्रद जीव ( प्रमुख मित्र जीव )
काक्सीनेला – इस के शिशु दुबले एवं इनके वक्षांग एवं पैर अच्छी तरह से विकसित होते हैं। इनके प्रौढ़ चमकीले, पीले, नारंगी या गहरे लाल रंग के होते हैं।
क्रायसोपरला – प्रौढ़ कीट के लेसविंग हल्के हरे रंग के 12-20 मि.मी. लम्बे होते हैं। इनके पंख पारदर्शी एवं हरे पीले रंग के होते हैं तथा शरीर कोमल होता है।
ट्राईकोडर्मा – ट्राइकोडर्मा एक महत्वपूर्ण जैविक नियंत्रण कवक है। इनका समूह (कालोनी) सामान्यत: हरे रंग का होता है। ट्राइकोडर्मा कवक सरसों के विभिन्न रोगों जैसे सफेद रोली, एवं स्कलेरोटिनिया गलन रोग की रोकथाम में प्रयोग किया जाता है।
फूल एवं फली बनने की अवस्था पर प्रबन्धन
- खेत का रोजाना भ्रमण करें व नाशीजीव दिखने पर नियंत्रण के उपाय तुरंत अपनाए।
- ताजा बनाये हुये लहसुन 7 से 2 प्रतिशत या ट्राइकोडरमा कवक उत्पाद 2 ग्राम/ली. पानी की दर से छिड़काव करें या कार्बेन्डाजिम 0.1 प्रतिशत मैंकोजेब (गोभी वर्गीय फसलों में लेबल क्लेम है, जबकि सरसों में नहीं है) 0.2 प्रतिशत की दर से जरूरी होने पर पर्णीय छिड़काव या सफेद रतुआ के ज्यादा प्रकोप पर मैटालेक्सिल मैंकोजेब कवकनाशी का 2.5 ग्राम/ली. की दर से पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।
- स्क्लरोटिनिया तना गलन रोग ग्रसित पौधे जो कि सामान्य पौधों से पहले पक जाते है को पिंड (स्क्लरोशिया) बनने से पूर्व ही जड़ से उखाड़ कर बाहर निकाल दे एवं बाद में रोग ग्रसित अवशेषों को जला दे।
- समय-समय पर खेत से खरपतवार निकालते रहे व मधुमक्खियों को कीटनाशकों के नुकसान से बचाने के लिए कीटनाशकों का छिड़काव शाम के समय ही करें।