रबी फसलों में सिंचाई का महत्व
पौधों के लिये जल की आवश्यकता – छोटे बढ़ते हुए पौधों में 85 से 90 प्रतिशत भाग केवल जल ही होता है। जल ही पौधों को कोशिकाओं में विद्यमान जीवद्रव्य (प्रोटोप्लाज्म) का एक आवश्यक अंग है। जीव द्रव्य में जल की कमी होने पर पौधों पर आवश्यक चयापचयी क्रियाओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और जल की अत्यधिक कमी होने पर पौधा मर जाता है। पौधों द्वारा प्रकाश संश्लेषण के लिए भी जल एक अभिकर्मक की तरह उपयोग में आता है। एक विलायक के रूप में जल के माध्यम से बहुत लवण पदार्थ और गैसें पौधों के भीतर प्रवेश पाती हैं और पौधों के शरीर में एक कोशिका से दूसरी कोशिका या एक भाग से दूसरे भाग तक पोषक तत्वों और अन्य घुलनशील पदार्थों को पहुंचाने के लिये जल की आवश्यकता होती है। जब जल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होता है, तभी पौधों की कोशिकाओं की वृद्धि और स्फीति बनी रहती है। पौधों में नमी की कमी होने पर स्फीति का हृास होता है और पौधे मुरझा जाते हैं, जिससे बढ़वार रुक जाती है। अत: पौधों को भूमि से प्राप्त जल की कमी को पूरा करने के लिये सिंचाई की जरूरत होती है।
अधिक सिंचाई से होने वाली हानियाँ – सिंचाई समय से करने पर लाभ होता है, किंतु जरूरत से अधिक करने पर पौधों के आवश्यक पोषक तत्व भूमि में रिसकर निचली सतह पर चले जाते हैं, जो पौधों को उपलब्ध नहीं होते। इसी कारण पौधे पीले पडऩे लगते हैं। ऐसा अधिकतर नहर वाले सिंचाई क्षेत्रों में देखने को मिलता है। अधिक सिंचाई करने से मिट्टी में वायु संचार में कमी आ जाती है, जिससे पौधे की वृद्धि रुक जाता है। यदि खेत की भूमि मटियार मिट्टी ज्यादा हो तो ऐसी अवस्था में सिंचाई द्वारा अथवा अधिक वर्षा आवश्यकता से अधिक जल प्राप्त होने पर निचली तहों में प्रवाह अवरूद्ध हो जाता है और जल एकत्र हो जाता है। भूमि में अत्यधिक जल की लगातार उपस्थिति से विशेष हानि यह होती है कि ऐसी भूमि के जल में अधिक मात्रा में लवण घुलते रहते हैं। जल निकास के अभाव में यदि यह लवण मिश्रित जल खेत में ही जमा होता गया तो ऐसी दशा में वाष्पीकरण द्वारा जल के नष्ट हो जाने पर भूमि की सतह पर ही ये लवण छूटे रहते हैं और भूमि में क्षारीय स्थिति उत्पन्न हो जाती है, जिससे भूमि के ऊसर हो जाने की संभावना बनी रहती है।
भूमि में जल की अधिक मात्रा से साफ हवा का अभाव हो जाता है और भूमि की वायु में आक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है और ऐसी अवस्था में आक्सीजन की उपस्थिति में कार्य करने वाले जीवाणुओं की कमी और अनुपस्थिति में कार्य करने वाले जीवाणुओं की बहुतायत होने लगती है। इससे भूमि में जीवांश के सडऩे का कार्य नहीं हो पाता है और उपयोगी रूप नाइट्रेट-नाइट्रोजन से तत्व रूप में अधिक नाइट्रोजन बनकर नष्ट होने लगती है। अधिक नमी होने के कारण भूमि में पौधों की जड़ों का क्षेत्र घट जाता है, जिससे पौधों को पर्याप्त मात्रा में पोषक तत्व नहीं मिल पाते हैं। किसान भाईयों को इस बात की जानकारी रखना आवश्यक है कि फसलों में सिंचाई कब करें व पानी कितनी मात्रा में दिया जाये। यह निम्न बातों पर निर्भर है।
(क) भूमि की किस्म- कम जल धारण क्षमता वाली मिट्टियों में जैसे बलुई मिट्टियों में उगाई जाने वाला फसलें, मिट्टी में पौधों को आसानी से उपलब्ध होने वाले पानी का शोषण कर लेती हैं व अधिक जल धारण क्षमता वाली फसलों की तुलना में पानी की कमी से जल्दी प्रभावित होती हैं। मिट्टी की जलधारण शक्ति से ही उगाई जाने वाली फसलें भी प्रभावित होती हैं, जैसे कम जलधारण शक्ति वाली मिट्टी में गहरी जड़ों वाली फसलों का उगाना लाभप्रद रहता है। कम जल धारण क्षमता वाली मिट्टियों में सिंचाई जल की मात्रा व एक सिंचाई से दूसरी सिंचाई के बीच अंतर कम रखना चाहिए। जबकि मटियार या भारी मिट्टियों में अंतर तथा मात्रा अधिक रखना चाहिए।
(ख) मौसम – कभी-कभी मौसम शुष्क हो, तेज हवा चल रही हो व तापक्रम भी अधिक हो तो कम अंतर से हल्की सिंचाई करनी चाहिए। जैसे रबी की पिछेती फसलों में।
(ग) बोआई की विधि- घनी बोई गई फसल में छिड़कवा बोई फसल की अपेक्षा कम पानी लगता है, क्योंकि धरती पर पौधों का आच्छादन अधिक होने से वाष्पीकरण से हृास कम होता है।
(घ) उर्वरक उपयोग- यदि सिंचाई जल कम मात्रा में उपलब्ध हो तो उर्वरक की मात्रा कम कर दो, क्योंकि मिट्टी की नमी के अभाव में प्रयोग किये गए उर्वरक के पोषक तत्व मिट्टी में घोल का गाढ़ा कर देते हैं व यह गाढ़ा पोषक तत्वों के साथ-साथ भूमि जल को भी पौधों को प्राप्त होने से रोकता है। इसलिए असिंचित फसलों में सिंचित फसलों की अपेक्षा कम उर्वरक देने की सिफारिश की जाती है।
(च) सिंचाई अंतराल – हाल में हुए अनुसंधानों में पाया गया है कि अच्छी उपज प्राप्ति में अधिक सिंचाई ज्यादा सहायक है। अत: बजाय भारी व सिंचाईयों के बीच ज्यादा अंतर रखने के, हल्की व कम अंतराल में सिंचाई करना लाभदायक है। हल्की सिंचाई से पोषक तत्व प्राय: जो भूमि की ऊपरी सतह पर होते हैं, पौधों को आसानी से प्राप्त हो जाते हैं व पोषक तत्वों की रिसाव से हानि भी नहीं होती है।
(छ) फसल की किस्म – अधिक उपज प्राप्त करने के लिए एवं सिंचाई जल के समुचित उपयोग के लिये उन्नत एवं संकरित किस्मों का उपयोग करना चाहिए एवं फसल की बाढ़ की क्रांतिक अवस्थाओं पर अवश्य सिंचाई करें। इन अवस्थाओं में सिंचाई न करने से उपज में विपरीत प्रभाव पड़ता है।
(य) अनुभव व प्रबंध – अनुभवी किसान प्राय: अपने पूर्व अनुभवों से भी जाने जाते हैं कि पौधों की किन-किन अवस्थाओं पर पानी की आवश्यकता होती है व कितनी मात्रा में पानी दिया जाना चाहिए। जैसे पौधों की कुछ फिजियोलाजिकल अवस्थाओं पर उदाहरणार्थ गेहूं की पहली सिंचाई 20-21 दिन बाद कल्ले फूटने की अवस्था पर देना अत्यंत आवश्यक है।