धनिया एवं जीरे के रोग एवं निदान
- आदित्य नारायण चौबे
आई.एफ.टी.एम. विश्वविद्यालय, लोधीपुर राजपूत, मुरादाबाद - राम सुमन मिश्रा,
पादप रोग विज्ञान विभाग
आचार्य नरेंद्र देव कृषि एवं प्रौ. वि. वि. कुमारगंज, अयोध्या (उप्र)
25 नवंबर 2021, धनिया एवं जीरे के रोग एवं निदान – धनिया मसाले की एक महत्वपूर्ण फसल है, जिसकी पत्ती एवं दाने को साबुत अथवा पीसकर विभिन्न खाद्य पदार्थो जैसे: अचार, सॉस, मीट एवं सब्जियों को सुगन्धित तथा जायकेदार बनाने के लिए उपयोग में लाया जाता है। जिसकी ताजी पत्तियों में 87.9 प्रतिशत, पानी, 3.3 प्रतिशत प्रोटीन, 6.5 प्रतिशत वसा, 1.7 प्रतिशत राख, 0.14 प्रतिशत कैल्शियम, 0.6 प्रतिशत फास्फोरस एवं 0.01 प्रतिशत लौह पाया जाता है। धनिया का प्रयोग आयुर्वेदिक दवाओं के रूप मे प्राचीनकाल से होता चला आ रहा है। इसके बीज का प्रयोग विभिन्न आयुर्वेदिक औषधियों के निर्माण में होता है, जो विशेष रूप से उपच, जुकाम, पेंचिंस, दस्त तथा मूत्र सम्बंधित बीमारियों के उपचार में प्रयुक्त होता है। इसलिए धनिया की खेती देश के लगभग प्रत्येक प्रांत में की जाती है लेकिन कई उन्नतशील प्रजातियों एवं कृषि क्रियाओं के प्रयोग के बाद भी प्रति हेक्टेयर धनिये का उत्पादन 519 किग्रा प्रति हेक्टेयर से अधिक नहीं हो पाया जिसके कई अन्य कारणों में से इसमें लगने वाली विभिन्न प्रकार के रोगों का भी बहुत प्रभाव है जिसमें से उकठा रोग, छाछया रोग एवं तने की सूजन रोग प्रमुख हैं। जिसका वर्णन निम्नवत है:-
उकठा रोग (विल्ट) के लक्षण
यह रोग पौधे के जड़ से शुरू होता है तथा पौधे के संवहन बंडल को नष्ट कर देता है, जिससे पौधा हरा ही सूख जाता है। वैसे यह रोग किसी भी अवस्था में लग सकता है लेकिन इसका प्रकोप पौधों की छोटी अवस्था में अधिक होती है।
रोग जनक
धनिया का यह रोग फ्यूजेरियम आक्जीपोरियम कारियन्डरी नामक कवक से होती है। यह मृदा जनित कवक रोग है, इसके बीजाणु मृदा में सुशुप्तावस्था में पड़े रहते हैं, जो अनुकूल जलवायु पाने पर संक्रमण करते हैं।
रोग नियंत्रण
- गर्मी के मौसम में गहरी जुताई तथा 2-3 वर्ष का फसल चक्र अपनाकर रोग का नियंत्रण किया जा सकता है।
- स्वस्थ एवं रोगरहित बीजों की बुवाई करें।
- जहां पर उकठा रोग का प्रकोप हो वहां पर उकठा रोग रोधी प्रजाति आरसीआर-41 व सीएस-287 प्रजाति की बुवाई करें।
- बीज की बुवाई से पहले बाविस्टीन 1.5 ग्राम$+थायरम (1:1) प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें अथवा स्यूडोमोनास फ्लोरीसेंंस 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें।
तने का सूजन रोग (स्टेमगाल)
इस रोग के लक्षण जमीन से ऊपर की पत्तियों, तनों, डंठलों एवं फलों पर जनवरी के अंतिम अथवा फरवरी के प्रथम सप्ताह से दिखाई देने लगते हैं। प्रारम्भ में यह छोटा सूजा हुआ तथा बाद में बड़ा खुरदरा सूजन लिये हुए दिखाई देते हैं। यह सूजा हुआ भाग 10-12 मिलीमीटर लम्बा तथा 3-5 मिलीमीटर चौड़ा होता है। रोगी पौधों की पत्तियां अमृदु हो जाती है, जिसके कारण पौधे नष्ट हो जाते हैं। इस रोग से पैदावार तथा गुणवत्ता दोनों में कमी आ जाती है।
रोग जनक
तने का सूजन रोग (स्टेमगाल) प्रोटोमाइसिस माइक्रोस्पोरस नामक कवक द्वारा होता है। यह क्लेमाइडास्पोर के रूप में संक्रमित बीज तथा मृदा में सुशुप्तावस्था में पड़ा रहता है जो अनुकूल जलवायु आने पर संक्रमण करता है।
रोग नियंत्रण
- रोग का प्रकोप कम करने के लिए स्वस्थ बीजों का ही प्रयोग करें।
- बुवाई से पूर्व बीजों को बाविस्टीन की 2.5 ग्राम एवं थायरम की 4.0 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोपचार करके बुवाई करें।
- आरसीआर-41, राजेन्द्र स्वाति एवं नरेन्द्र धनिया-2 नामक किस्मों में इसका प्रकोप कम होता है। इन्हीं किस्मों की बुवाई करें।
- रोग के लक्षण दिखाई देते ही फसल पर हेक्साकोनाजोल की एक मिलीलीटर मात्रा प्रति लीटर पानी या कार्बेन्डाजिम की 2.5 ग्राम मात्रा का प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर छिडक़ाव 15-20 दिन के अंतराल पर 2-3 बार करें। घोल में किसी भी चिपचिपे पदार्थ को मिलाकर छिडक़ाव करें। जिससे दवा अधिक समय तक पौधे पर रह सके।
जीरे की बीमारियां एवं निदान
छाछया रोग (पाउडरी मिल्ड्यू):
फसल के प्रारम्भिक अवस्था में रोग के लक्षण पत्तियों व टहनियों में सफेद चूर्णित धब्बे के रूप में दिखाई देते हैं, पुष्पन एवं बीज बनने की अवस्था तक पूरे पौधों को सफेद चूर्ण से ढक लेते हैं। रोगग्रस्त पौधों में या तो बीज बनता ही नहीं है, यदि बनता है तो छोटे आकार का तथा बहुत ही पतला होता है। लेकिन यदि रोग बीज बनने के बाद की अवस्था में आता है तो उपज पर ज्यादा प्रभाव न पडक़र दानों का रंग एवं चमक खराब कर देता है।
रोग जनक: जीरा का छाछय रोग इरीसाइफी पोलीगोनी नामक कवक से होता है जो एसकोमाइसीटीज कुल का सदस्य है। इसकी जनन वृद्धि लैंगिक एवं अलैंगिक दोनों तरह से होती है। अलैंगिक जनन चक्र कई बार एक ही फसल पर पूरी होती है। जिससे रोग कारक क्षमता में कई गुना वृद्धि हो जाती है।
रोग जनक: छाछया रोग, मुख्यत: मृदा एवं बीज जनित कवक रोग हैं, इसका कवक जाल एवं कोनीडिया बीज में उपस्थित रहते हैं तथा अनुकूल जलवायु पाने के बाद यह संक्रमण करते हैं। इनका द्वितीयक संक्रमण वायु द्वारा होता है। वातावरण में तापमान 20-25 डिग्री सेंटीग्रेड तथा सापेक्षिक आद्र्रता 80 प्रतिशत से अधिक होने पर संक्रमण की तीव्रता अधिक होती है। रोगजनक के क्लेमाइडोस्पोर मृदा एवं फसल अवशेष में बहुत अधिक समय तक सुशुप्तावस्था में पड़े रहते हैं जो अनुकूल वातावरण पाने पर रोग पैदा करते हैं।
रोग नियंत्रण:
- इस बीमारी की रोकथाम के लिए एक किग्रा घुलनशील गंधक अथवा 500 मिलीलीटर कैराथेन अथवा 700 ग्राम केलेक्सिन का 500-600 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हेक्टेयर क्षेत्र में छिडक़ाव करें। आवश्यकता पडऩे पर 10-15 दिन बाद छिडक़ाव दोहराया जा सकता है।
- रोग की रोकथाम के लिए 25-28 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से गंधक के चूर्ण का बुरकाव करें। आवश्यकता पडऩे पर बुरकाव दुबारा 20-23 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से किया जा सकता है।
झुलसा रोग (ब्लाइट)
फसल में रोग के लक्षण प्रारम्भिक अवस्था में ही छोटे-छोटे भूरे धब्बे के रूप में दिखायी देते हैं जो बाद में काले रंग में बदल जाते हैं।
रोग के लक्षण: फसल में पुष्पन शुरू होने के बाद अगर आकाश में बादल छाये हों तथा वातावरण में नमी बढ़ जाये तो इस रोग के लगने की सम्भावना काफी बढ़ जाती है। रोगग्रस्त पौधों की पत्तियों व तनों पर गहरे-भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं तथा पौधों के सिर झुके नजर आने लगते हैं। रोग का प्रसार इतना तीब्र होता है कि बीमारी के लक्षण दिखाई देने के बाद फसल को बचाना मुश्किल होता है।
रोग जनक: यह रोग अल्टरनेरिया बुरिन्सी नामक कवक से होती है। यह ड्यूटेरियोमाइ-सीटीज कुल का सदस्य है। इसकी जनन वृद्धि केवल अलैंगिक विधि से होती है।
रोग जनक: इस रोग के रोग जनक मृदा, खरपतवारों एवं अन्य फसलों पर जीवित अवस्था में पड़े रहते हैं तथा उपयुक्त वातावरण पाने पर यह कवकजाल बनाकर अलैंगिक जनन द्वारा एक ही फसल पर कई बार जीवन चक्र पूरा करके फसल को रोगग्रसित करने की क्षमता में वृद्धि कर देते हैं। द्वितीय संक्रमण वायु द्वारा होता है, जिससे रोग एक स्थान से दूसरे स्थान पर बहुत तेजी से बढ़ती है।